खटकती है मूल उद्देश्यों के प्रति उदासीनता

By: Apr 3rd, 2017 12:05 am

मर्म संवेदनशील होता है, मर्म तक पहुंचते भी संवेदनशील लोग ही हैं। इसी कारण यह अपेक्षा की जाती है कि शब्दों के जरिए जीवन और संसार के मर्म को उद्घाटित करने वाले शिल्पियों को भी कुछ ऐसी सुविधाएं प्रदान की जाएं, जो उनकी संवेदनशीलता को बचाए रखने में सहयोगी हों। अन्यथा लाभ-हानि की कठोर दुनिया कोमल भावनाओं को धीरे-धीरे निगल जाती है। ऐसी सुविधाएं शब्द शिल्पियों को गहरे पानी में उतरने का समय और सामर्थ्य प्रदान करती हैं। साहित्यिक संस्थाएं इसी सोच के कारण अस्तित्व में आती हैं। स्थिति तब मार्मिक हो जाती है, जब ऐसी संस्थाओं में मठाधीशी जन्म ले लेती है। साहित्यिक संस्थाओं की हिमाचली परिदृश्य को उकेरने की कोशिश की है अतिथि संपादक सत्येंद्र गौतम ने…                                    -फीचर संपादक

बड़ोदरा की शोध और प्रकाशन संस्था ‘पीपल लिंग्विस्टिक’ के अनुसार  पिछले पचास सालों में भारत की बीस प्रतिशत भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं। अगर समस्त विश्व की बात की जाए तो स्थिति और भी भयावह है। संयुक्त राष्ट्र की एक रपट के अनुसार 2021 तक  विश्व की 96 प्रतिशत भाषाओं और लिपियों के समाप्त होने का अंदेशा है।  भाषाएं कब संक्रमित हो गईं इसका पूर्व आंकलन और बचाव के उपाय न भाषा शास्त्री कर पाए न सरकारें न समाज।

इस विषम भाषायी स्थिति से हिमाचल भी अछूता नहीं है। समाज और संस्थाएं यहां भी भाषा के संदर्भ में सृजनात्मक लाइन खींचने में पिछड़े हुए दिखते हैं। भाषा विकास, भाषा और संस्कृति विभाग का प्रमुख कार्य है। कारण चाहे जो भी रहे हों, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इस दायित्व के निर्वहन में कहीं न कहीं चूक अवश्य हुई है। जनचेतना में और लेखकों को प्रोत्साहित करने  में विभाग वांछित परिणाम नहीं दे पाया है। भाषा और संस्कृति विभाग के सर्वोच्च पद पर आसीन रहे बहुत से अधिकारियों की कोई साहित्यिक पृष्ठभूमि नहीं रही।

हां, पद संभालने के बाद ही ये लोग साहित्यकार बन बैठे। भाषा, कला और संस्कृति अकादमी में जहां अन्य लेखकों की लेखनी धूल फांकती रहीं, वहीं इनकी पुस्तकें धड़ल्ले से छपीं। जहां डा.यशवंत सिंह परमार, लाल चंद प्रार्थी, नारायण चंद पराशर के समय उच्च श्रेणी के साहित्यकार आगे बढ़े, वहीं बाद में ऐसे लोग भी सामने आए जिनकी स्वीकार्यता नहीं थी और उनके लेखन और पुरस्कार चयन के लिए विवाद हुए । अगर यह विभाग लोगों को जागरूक नही कर पाया तो हो सकता है कि आने बाली पीढि़यां यह शोध करें कि हिमाचली बोलियां कैसी थी और इसको कैसे बोला जाता था।

केंद्र सरकार की पड़ताल में यह साबित हो चुका है कि हिमाचल की सात बोलियां संकट में हैं। शिमला संसदीय क्षेत्र के सांसद वीरेंद्र कश्यप के सवाल के जवाब में केंद्रीय मानव संसाधन राज्यमंत्री महेंद्र नाथ पांडे ने बताया कि हिमाचल के ऊंचाई वाले क्षेत्रों में बोली जाने वाली सात बोलियां विलुप्त होने लगी हैं। बघाटी, हंडूरी, कुल्लुवी, किन्नौरी, पंगवाली, सिरमौरी और स्पीति बोली खत्म होने की कगार पर है। राज्य मंत्री ने बताया कि केंद्र सरकार ने देश की 197 बोलियों की पहचान की है, जिनके वजूद पर संकट मंडराया है। अब यह प्रश्न स्वाभिक है कि किसकी निष्क्रियता के कारण ऐसा हुआ इनको बचाने का एक उपाय तो यह है कि हिमाचली पहाड़ी की प्रमुख बोली को आठवीं अनुसूची में सम्मिलित किया जाए।

दूसरा उपाय है कि सरकार भाषाओं और बोलियों के सरंक्षण और मूल स्वरूप को बचाए रखने के लिए पहाड़ी भाषा संवर्द्धन बोर्ड गठित करे। यह बोर्ड साहित्यकारों को स्थानीय भाषाओं में लिखने के लिए प्रेरित करे। इसके साथ-साथ विद्यालयों में जाकर बच्चों में अपनी बोलियों के प्रति सम्मान जगाए और बोलियों में सृजन के लिए प्रतियोगिताएं आयोजित करे। यह स्थापित सत्य है कि जब तक किसी भी भाषा कला या खेल को सरकारी संस्थागत या निजी सरंक्षण नही मिलता वह फलती फूलती नहीं। पहाड़ी के साथ एक और गंभीर चुनौती जुड़ चुकी है। वह है इसके साहित्य के रूप में।

 एक तो लोगों में पहाड़ी के प्रति रुचि और सम्मान कम होता जा रहा है, दूसरा अगली पौध तैयार न हो पाना भी एक कारण है। इसका वर्तमान स्वरूप एक जलाशय में रुके हुए पानी की तरह हो गया है। इसकी धारा अविरल बहती रहे, इसके लिए नए लेखकों का पदार्पण होना आवश्यक है। इसके लिए भाषा एवं संस्कृति विभाग द्वारा कार्यशालाओं, व्याख्यान गोष्ठियां और प्रतियोगिताओं का आयोजन व्यापक पैमाने पर होना चाहिए। जिससे पहाड़ी के गुणात्मक सृजन को बढ़ाबा मिले। क्योंकि गुणात्मक सृजन से ही नए पाठकों को जोड़ा जा सकता है और हिमाचली बोलियों के प्रति सम्मान को जगाया जा सकता है। भाषा और साहित्य  को प्रोत्साहित करने के लिए जिला मुख्यालयों पर लेखक गृहों का निर्माण हुआ था । परंतु धीरे -धीरे इन में अन्य गतिविधियों का संचालन होने  लगा और लेखन व साहित्यक गतिविधियों को बढावा देने के ये स्थान साहित्यकारों की पहुंच से दूर हो गए।

यह सत्य है कि समय पर नहीं चेते तो हिमाचली बोलियां आने बाले समय में अपना अस्तित्व चाहे न भी गंवाएं परंतु बहुत से शब्दों और मूल रूप को अवश्य खो देगी क्योंकि वे लोग समाप्त हो रहे है जिनको सिर्फ हिमाचली बोली ही आती है और जिनके पास इसके के मूल शब्द हैं । हिमाचली बोलियों के संदर्भ में अगर मौलिक और स्वतंत्र चिंतन हुआ है तो पहाड़ी गांधी बाबा कांशी राम का नाम शिखर पर रहेगा। गुलामी के दौर में उनका चिंतन और लेखन देशभक्ति से ओतप्रोत रहा । इसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा, यातनाएं भी सहनी पड़ीं। पारिवारिक सदस्यों से भी हाथ धोना पड़ा, परंतु वह अविचलित और अडिग बने रहे । स्वतंत्रता आंदोलन के  कुछ वर्षों बाद भी मौलिक चिंतन के लिए पर्याप्त स्पेस था, लेकिन बाद में राजनीति सब पर हावी हो गई।

जहां मूल उद्देश्य के प्रति उदासीनता हो तो उस विभाग का लोगों से जुड़ पाना संभव ही नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि भाषा और संस्कृति के मर्म को समझते हुए सरकार साहित्यकारों और जनता में एक अभियान चलाए। इसके महत्त्व और सम्मान की भावना को जगाया जाए।

-सत्येंद्र गौतम, भाषायी विविधता के पैरोकार हैं और भाषायी विवधता को  समावेशी विकास के लिए आवश्यक मानते हैं। भाषा के लिए जमीनी स्तर पर कार्य करने के अलावा सार्वजनिक विमर्श में सार्थक हस्तक्षेप के लिए जाने जाते हैं।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App