घाटी में तड़प सुशासन की है

By: Apr 22nd, 2017 12:05 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्रीडा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

जम्मू-कश्मीर में जगमोहन राज्यपाल थे, तो उन्होंने कश्मीर घाटी में भी सुशासन की ओर काम करना शुरू कर दिया था। उससे आम जनता को विश्वास होने लगा था कि उनके मन में भी घाटी में कुछ करने की आशा है। लेकिन इससे वहां के सभी राजनीतिक दलों को खतरा पैदा हो गया कि वे घाटी में अप्रासांगिक हो जाएंगे या फिर उन्हें भी स्वयं अपनी दिशा बदलनी होगी। जगमोहन का विरोध करने वाले भी यही दल थे और सड़कों पर जगमोहन मुर्दाबाद का नारा लगाने वाले भी वही लोग थे, जिनके बच्चे आज पत्थर मार रहे हैं। उनकी संख्या और चेहरे लगभग वही हैं। अलगाववादियों का समर्थन करने वाले आज भी उतने हैं, लेकिन वे चिल्लाते जोर से हैं इसलिए सारे देश में सुनाई पड़ते हैं…

कुछ समय पहले जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी संगठनों के आह्वान पर कश्मीर घाटी में लंबी हड़ताल हुई थी। यह हड़ताल लगभग छह महीने चली थी। अलगाववादी संगठनों को आशा थी कि पूर्ववर्ती सरकारों की तरह ही इस बार भी सरकार झुक जाएगी। समझौते के नाम पर बातचीत होगी और अलगाववादी संगठन जनता को बता सकेंगे कि सरकार को झुका दिया है। यह एक प्रकार से मनोवैज्ञानिक लड़ाई थी। अलगाववादी संगठनों को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए सरकार के मुकाबले ऐसी छोटी-मोटी लड़ाइयां जीतना जरूरी होता है। यदि जीत न भी हो, तो कम से कम जीत का आभास तो होना ही चाहिए। तभी आम जनता का अलगाववादी संगठनों पर भरोसा बना रहता है। कश्मीर घाटी में आज तक की सरकारें अलगाववादियों को या तो जीत का अवसर देती रही हैं या फिर जीत का आभास होने देती हैं। यह पहली बार हुआ कि सरकार ने हड़ताल करने वालों से बातचीत नहीं की। आम जनता में ही अलगाववादियों का विरोध करना शुरू कर दिया। तब अलगाववादियों को हड़ताल का आह्वान वापस लेना पड़ा। पिछले तीन दशकों में यह अलगाववादियों की पहली पराजय थी। जायरा वसीम का उदाहरण और उसको मिला जनसमर्थन कट्टरपंथियों के प्रति विद्रोह का संकेत था। कुछ समय पहले आमिर खान ने एक नई फिल्म बनाई थी, दंगल। उसमें आमिर खान ने फोगट के बचपन की भूमिका में कश्मीर घाटी की सोलह साल की जायरा वसीम का चयन किया। जायरा ने अपनी इस भूमिका का बखूबी निर्वाह किया और सभी की प्रशंसा अर्जित की। सभी ने कहा कि जायरा में जीवंत अभिनय की क्षमता है, लेकिन कुछ लोगों को तब भी घाटी की एक लड़की का सामाजिक बेडि़यों को तोड़ना नागवार गुजरा था। यही कारण था कि जहां कठमुल्लों से जायरा को धमकियां मिल रही थीं, वहीं घाटी की युवा पीढ़ी से जायरा को समर्थन मिला।

दरअसल युवा पीढ़ी का यह समर्थन ही आश्चर्यजनक कहा जा सकता है। जायरा को युवा पीढ़ी का वह समर्थन जायरा की बहादुरी का प्रतीक था। बर्फ के नीचे दबे इस परिवर्तन को काले खूंखार चेहरे भी जानते थे। यही कारण है कि वे और भी जोर से जायरा को निशाने पर ले रहे थे। इतना तो मानना पड़ेगा कि जायरा के अभिनय और घाटी की युवा पीढ़ी से उसे मिल रहे समर्थन ने काले चेहरों के निजाम में बित्ते भर का एक छेद तो कर ही दिया था। बहुत साल पहले मैं ईरान में था। करज से तेहरान की ओर जा रहा था। रास्ते में मीलों लंबा जाम लगा हुआ था। मैं भी बस से बाहर आ गया। दो-तीन लड़के मेरे पास आए। पूछने लगे कहां के रहने वाले हो? मैंने बताया, हिंदोस्तान से हूं। मेरी दाढ़ी उन दिनों काफी लंबी थी। दाढ़ी देख कर बोले, शुमा आखुंदा ए? क्या तुम मुल्ला हो? मेरे नहीं कहने पर बोले, आखुंदा खैली बद ए। मुल्ला बहुत खराब हैं, सारा ईरान तबाह कर दिया। जायरा प्रकरण के बाद मेरा विश्वास बढ़ गया था कि कश्मीर घाटी तबाह नहीं होगी। अब अलगाववादियों ने लड़ाई का दूसरा मोर्चा खोला। इस बार लड़ाई और गंभीर हो गई थी। पत्थर मारने वालों को विशेष रूप से तैयार किया गया। रणनीति भी बदली गई। सेना और सुरक्षा बलों पर सार्वजनिक स्थानों पर हमले शुरू हुए। पुलिस वालों के घरों में घुस कर उनके परिवारों पर हमले शुरू हुए। आजकल कश्मीर घाटी में जो हो रहा है यह उसी दूसरी रणनीति का हिस्सा है। पहली लड़ाई हड़ताल की थी और उसके बाद अब उसी लड़ाई का नया मोर्चा आक्रमण का है। आक्रमण की लड़ाई क्योंकि प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रही है, इसलिए उसकी चर्चा भी सबसे ज्यादा हो रही है। सुरक्षा बलों पर पत्थर पड़ते देख कर कश्मीर घाटी के विशेषज्ञ कभी-कभी निराश भी होने लगते हैं।

उनके अनुसार घाटी सरकार के हाथ से निकलती जा रही है। लोग सुरक्षा बलों से भिड़ने के लिए सड़कों पर निकल आए हैं। घाटी के लोगों ने भारत को रिजेक्ट कर दिया है। यह जल्दी निष्कर्ष निकाल लेना होगा। लेकिन सबसे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि घाटी के प्रमुख राजनीतिक दल अपने क्षणिक लाभ के लिए, इस स्थिति का लाभ लेते हैं और उसे हवा भी देने लगते हैं। कश्मीर घाटी में जब अलगाववादी पहली लड़ाई हारने के बाद दूसरी लड़ाई लड़ रहे हैं, तो नेशनल कान्फ्रेंस के फारुक अब्दुल्ला भी इसी मोर्चे में शामिल हो गए और पत्थरबाजों का समर्थन करने लगे और अपने लाभ के लिए सोनिया कांग्रेस भी अंततः अब्दुल्ला परिवार के पक्ष में ही खड़ी हो गई। लेकिन अलगाववादियों की इस दूसरी लड़ाई में कश्मीर घाटी के कितने लोग शामिल हैं। सूबे की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती कहती हैं कि वे पांच प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो सकते। मुझे लगता है कि वह ठीक ही कहती हैं। दरअसल घाटी के लोगों का विश्वास भारत में खत्म नहीं हुआ है, बल्कि उनका विश्वास वर्तमान सिस्टम से उठ गया है। कश्मीर घाटी में भ्रष्टाचार इतना ज्यादा है, जितना देश में शायद और कहीं न हो। केंद्र से जितना पैसा आता है, घाटी के कुछ परिवार ही  ईमानदारी से आपस में मिलकर सारा पैसा बांट खा लेते हैं। जनता तक वह पैसा नहीं पहुंचता है। श्रीनगर से बाहर विकास के नाम पर कुछ नहीं है। इसलिए आम लोगों के मन में सिस्टम के प्रति पिछले छह-सात दशकों से गुस्सा बढ़ता गया है और अंततः वह निराशा में बदल गया है। उस निराशा के क्षणों में अलगाववादी उनके हाथ में पत्थर दे देते हैं।

बहुत लोगों को ध्यान में होगा कि जिन दिनों जम्मू-कश्मीर में जगमोहन राज्यपाल थे, तो उन्होंने कश्मीर घाटी में भी सुशासन की ओर काम करना शुरू कर दिया था। उससे आम जनता को विश्वास होने लगा था कि उनके मन में भी घाटी में कुछ करने की आशा है। लेकिन इससे वहां के सभी राजनीतिक दलों को खतरा पैदा हो गया कि वे घाटी में अप्रासांगिक हो जाएंगे या फिर उन्हें भी स्वयं अपनी दिशा बदलनी होगी। अलगाववादियों के अस्तित्व के लिए ही खतरा पैदा हो गया था। जगमोहन का विरोध करने वाले भी यही दल थे और सड़कों पर जगमोहन मुर्दाबाद का नारा लगाने वाले भी वही लोग थे। जिनके बच्चे आज पत्थर मार रहे हैं, उनकी संख्या और चेहरे लगभग वही हैं। आज भी वही स्थिति है। अलगाववादियों का समर्थन करने वाले आज भी उतने हैं, लेकिन वे चिल्लाते जोर से हैं इसलिए सारे देश में सुनाई पड़ते हैं। वर्तमान सरकार यदि सुशासन ला पाती है, तो यह चिल्लाहट स्वयं बंद हो जाएगी।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com


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