नशाखोरी पर समाज की भावना भी तो समझें

By: Apr 10th, 2017 12:02 am

( कर्म सिंह ठाकुर लेखक, सुंदरनगर, मंडी से हैं )

राब जहां कारोबारियों के लिए भारी-भरकम मुनाफे का सौदा है, वहीं राजनीतिक दलों के लिए सत्ता का मार्ग प्रशस्त करती रही है। दूसरी तरफ सरकारों के लिए आमदनी का प्रमुख स्रोत भी है। लेकिन नशाखोरी से घर-परिवार टूट रहे हों, अपराध बढ़ रहा हो, सड़क दुर्घटनाओं में इससे इजाफा हो, तो शराबबंदी सरकारों की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए…

आजकल हर गली-मोहल्ले और शहर में शराबबंदी की चर्चाएं चली हैं। सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार राष्ट्रीय व राज्यीय राजमार्ग से 500 मीटर के दायरे में नए शराब के ठेके खोलने या पुरानों को लाइसेंस देने पर प्रतिबंध लगा दिया था। नशे के खिलाफ यह निर्णय स्वागतयोग्य था। हालांकि आगे चलकर माननीय सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का तोड़ ढूंढते हुए कई राज्य राजमार्गों को अवनत कर दिया गया। विश्व में शराब की खपत लगभग स्थिर ही है, जबकि भारत में वार्षिक वृद्धि 15 प्रतिशत के करीब हर वर्ष हो रही है। यही कारण है कि सरकारों के लिए शराब का कारोबार फायदे का सौदा बनता जा रहा है। शराब व नशाखोरी का प्रभाव सबसे ज्यादा माताओं, बहनों तथा सामाजिक जीवन पर पड़ता है। गरीब व अनपढ़ लोग आसानी से नशे की लत में पड़ जाते हैं, जिसके कारण किसान भूमि की नीलामी, औरतों के गहनों को बेचना, चोरी-डकैती, छीना-झपटी जैसी घटनाएं अकसर देखने को मिलती हैं। शराब या नशाबंदी की समस्या भारत में लंबे समय से निरंतर चर्चा का कारण बनी हुई है। गांधीवादी विचारधारा के समर्थक आजादी की लड़ाई से लेकर अब तक संघर्षरत हैं, लेकिन वर्तमान में गांधीवादी विचारकों की संख्या मुट्ठी भर ही बची हुई है।

70 वर्ष आजाद भारत आज भी गांधीवादी नशामुक्त समाज के सपने को साकार नहीं कर पाया। आजाद भारत के इतिहास में आंध्र प्रदेश, केरल, गुजरात तथा हरियाणा में शराबबंदी की गई, लेकिन यह प्रयास सफल नहीं हो पाया। शराब जहां कारोबारियों के लिए भारी-भरकम मुनाफे का सौदा है, वहीं राजनीतिक दलों के लिए सत्ता का मार्ग प्रशस्त करती रही है। दूसरी तरफ सरकारों के लिए आमदनी का प्रमुख स्रोत भी है। ऐसे में शराबबंदी का प्रश्न सिर्फ सुर्खियां बटोरना ही है। जब तक नशाबंदी के खिलाफ एक राष्ट्रीय सोच विकसित नहीं हो पाएगी, तब तक नशाबंदी पर पाबंदी संभव ही नहीं है। एक वक्त था जब मदिरापान सामंतवर्ग तक ही सीमित था। बड़े अफसर, रईस, उद्योगपति तथा सामर्थ्यवान व्यक्ति ही शराब का सेवन करते थे, लेकिन अब गरीब, मजदूर, असहाय बच्चे, बूढ़े सब शराब के आदी बनते जा रहे हैं। शादी-ब्याह बिना मदिरापान के संपन्न नहीं हो रहे हैं। गांवों-शहरों में शराब का शबाब सिर चढ़ कर बोल रहा है। नशे में सड़कों पर बाइक सवारों का सरेआम ट्रैफिक नियमों की धज्जियां उड़ाना आम बात बन गई है। नशाखोरी से जब कई घर-परिवार टूट रहे हों, समाज में अपराध बढ़ रहा हो, सामाजिक शक्ति पथभ्रष्ट हो रही है, सड़क दुर्घटनाओं में 90 प्रतिशत का कारण नशा बन गया हो तो शराबबंदी सरकारों की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। स्वाधीनता से पूर्व जनवरी, 1925 में नशाबंदी के लिए 30 हजार महिलाओं के हस्ताक्षरों से युक्त मांग पत्र वायसराय को दिया गया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी मदिरापान सेवन को समाज के लिए घातक माना। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से सबक लेना वर्तमान समय की आवश्यकता बन चुकी है। देश के समृद्ध राज्य पंजाब, गोवा, हरियाणा में भी नशे ने कदम इस कद्र पसारे हैं कि सामाजिक जीवन में अनेक कुरीतियों का जन्म होने लगा है। हाल ही में पड़ोस के पंजाब में हुए चुनावों में नशा एक मुख्य मुद्दा था और वही हाल उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य में भी देखने को मिला। दोनों ही राज्यों में कांग्रेस व भाजपा सत्तारूढ़ हुई हैं। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि दोनों राज्यों में नशाखोरी पर कितनी पाबंदी लग पाती है। बिहार में नीतीश कुमार ने सत्ता प्राप्ति के बाद पूर्ण शराबबंदी कर डाली।

हालांकि उन्हें अनेक तरह की समस्याओं का सामना भी करना पड़ा, लेकिन नीतीश कुमार अपने फैसले पर स्थिर बने रहे। यह प्रशंसनीय कार्य था। यदि शराबबंदी राष्ट्रीय मुद्दा बन जाए तो बिहार में जो छिटपुट कमी रह भी गई है, वह अपने आप समाप्त हो जाएगी। भारत में सड़क दुर्घटनाओं का मुख्य कारण नशा है। यदि राष्ट्रीय राजमार्गों पर शराब के ठेके उपलब्ध हों, तो शराब पर्यटकों व वहां से गुजरने वाले व्यक्तियों को आसानी से मिल जाती है। शराब पीकर ड्राइविंग करने के कारण हर वर्ष लाखों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। कई घरों के चिराग बुझ जाते हैं, तो कई घरों की आर्थिकी मिट्टी में मिल जाती है। सर्वोच्च न्यायालय के राष्ट्रीय व राज्यीय राजमार्ग से 500 मीटर की दूरी तक किसी भी ठेके का न होना एक ऐसा कदम है, जो देश की नई पहचान बनाने में सक्षम हो सकता है। यदि शराब के लिए आपको आधा किलोमीटर अपने मार्ग से साइड पर जाना पड़े तो समय की खपत होगी, वाहन का खर्चा उठाना पड़ेगा तथा सेवन के बाद पुलिस के हत्थे चढ़ गए तो जुर्माना भी देना पड़ेगा। संभवतः ऐसे नियमों का यदि सख्ती से पालन हो तो देश में शराबबंदी के लिए एक राष्ट्रीय सोच विकसित की जा सकती है। हिमाचल में भी ठेकों की नीलामी पर सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय का प्रभाव देखने को मिला। बहुत से ठेकों के लिए खरीददार ही नहीं मिले। ठेकों का 500 मीटर किनारों पर खिसकना नुकसान का सौदा हो सकता है, लेकिन प्रदेश सरकार ने अपनी आर्थिकी को बचाने के लिए प्रदेश के स्टेट हाई-वे को जिला हाई-वे में परिवर्तित कर दिया, ताकि ठेके से होने वाली आर्थिकी को झेलने से प्रदेश बच जाए, जबकि प्रदेश की अधिकतर पंचायतों से निरंतर शराबबंदी की मांगें निरंतर उठ रही हैं। प्रदेश सरकार को प्रदेश की जनता की मांगों का समर्थन करते हुए इस निर्णय को निरस्त करना चाहिए तथा शराबबंदी की दिशा में प्रदेश को आगे बढ़ाना चाहिए।

ई-मेल : ksthakur25@gmail.com


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