नारद भक्ति सूत्र

By: Apr 22nd, 2017 12:08 am

भक्त्या जानातीति चेन्नाभिज्ञप्त्या साहाय्यायत्।।

Aasthaभक्ति से मुझे भलीभांति जानता है; इस वचन के अनुसार भक्ति ही साधन और ज्ञान ही साध्य है, ऐसा कहें तो? यह ठीक नहीं है, क्योंकि वहां ‘अभिजानाति’ कहा गया है। अभिपूर्वक ‘ज्ञा’ धातुका अर्थ है अभिज्ञा; अभिज्ञा कहते हैं पहले की जानी हुई वस्तु के ज्ञान को। पहले ज्ञान हुआ फिर फलरूपा भक्ति हुई। वह भक्ति ही अभिज्ञप्ति रूप से पूर्व ज्ञान का स्मरण कराकर स्वयं ही जीव के भगवत्प्रवेश में सहायक होती है।

प्रागुक्तं च।।

मयि भक्तिर्हि भूतानाममृतत्वाय कल्पते।

दिष्ट्या यदासीन्मत्स्नेहो भवतीनां मदापनः।।

पहले ब्रह्मज्ञान होता है, फिर भक्ति, यह बात पहले के श्लोक में कही भी गई है।

एतेन विकल्पोऽपि प्रत्युक्तः।।

ज्ञान अंगी है और भक्ति अंगी, ऐसा निश्चय होने से इन दोनों के विकल्प पक्ष (और समुच्चयवाद) का भी खंडन हो गया है।

देवभक्तिरितरस्मिन् साहचर्यात्।।

(श्वेताश्वेतरोपनिषद् में) गुरु-भक्ति के साथ पठित होने के कारण देव विषयक भक्ति भी ईश्वर भिन्न

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।

समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।

ज्ञान अथवा भक्ति दोनों ही अङ्ग और दोनों ही अङ्गी हैं; किसी को भी प्रधान या गौण मानने में आपत्ति नहीं है; ऐसी मान्यता ‘विकल्प’ है। जब एक की प्रधानता निश्चित हो गई, तब दूसरा अप्रधान है ही। प्रधान और अप्रधान-अंगी और अंग में ‘विकल्प’ नहीं होता। ज्ञान और भक्ति दोनों एक साथ रहकर ही मुक्ति के साधन होते हैं, यह समुच्चयवाद है; उस निश्चय से इसका भी निराकरण हुआ।

देवता की भक्ति का बोधक है।

योगस्तूभयार्थमपेक्षणात् प्रजायवत्।।

योग तो ज्ञान और भक्ति दोनों का साधन है; क्योंकि दोनों में उपकारक होने के कारण उसकी अपेक्षा रहती है। यद्यपि योग मुख्यतः ज्ञान का अंग है, तथापि जब ज्ञान भी भक्ति का अंग है, तब उसी के साथ योग भी उसका अंग हो सकता है; जैसे वाजपेय आदि का अंगभूत प्रयाज उसकी दीक्षा लेने वाले व्यक्ति की दीक्षा का भी अंग माना जाता है।

गौण्या तु समाधिसिद्धिः।।

‘ईश्वरप्रणिधानाद् वा’ इस योग सूत्र में जो ‘प्रणिधानाद्’ आया है, वह गौणी भक्ति के अंतर्गत है, उस गौणी भक्ति से समाधि की सिद्धि होती है।


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