पत्थरबाजों का इलाज यही !

By: Apr 17th, 2017 12:02 am

सेना की एक जीप से बांधा गया एक पत्थरबाज…! कश्मीर के बड़गाम इलाके का यह वीडियो सच है या संपादित, हमारा सरोकार यह नहीं है। सरोकार यह है कि उस बंधे पत्थरबाज पर भी पत्थरों की ही बौछार की जानी चाहिए थी। उसे लहूलुहान होने देना चाहिए था। उसे पीड़ा और दर्द से चीखते देना चाहिए था। यदि उस पूरी प्रक्रिया में वह पत्थरबाज मर भी जाता, तो उसी जमीन पर उसका दाह-संस्कार कर देना चाहिए था, ताकि उसके लिए ‘जन्नत’ हराम हो सकती थी। ऐसा होता, तो शायद पत्थरबाजों को कुछ एहसास होता कि देश और उसकी सेना के सम्मान के साथ खिलवाड़ का हश्र क्या होता है! लेकिन ऐसा नहीं हुआ, अलबत्ता हमारी परिकल्पना और चाहत यही है कि पत्थर फेंकने वाले ‘भाड़े के टट्टुओं’ का यही इलाज हो सकता है! दरअसल सबसे पहले देश है। राष्ट्रीय एकता, अखंडता और संप्रभुता से भी कोई समझौता नहीं किया जा सकता। बेशक पाषाणकालीन प्रहार करने वाला देश का नागरिक हो, लेकिन वह देश के साथ-साथ सैनिकों और जवानों का भी सम्मान लूट रहा है। सशस्त्र जवानों के हेल्मेट, बैग पर थप्पड़-मुक्के मार रहा है। जवानों की टांगों पर लातों से प्रहार कर रहा है, लेकिन उस हिंसक माहौल में भी सैनिक चुपचाप रहा, धैर्य नहीं खोया, क्योंकि उनके हाथों में ‘लोकतंत्र की कसौटी’ सरीखी ईवीएम थीं। सैनिक देश के कानून और संविधान से बंधे थे। जवान लोकतंत्र के प्रहरी बने रहे। उनके हाथों में भी एके-47 राइफलें और बंदूकें थीं। कल्पना करें कि पल भर को भी कोई जवान आपा खो देता और वे बंदूकें चलने लगतीं, तो बड़गाम का वह इलाका लाशों से पट जाता! सलाम है सैनिकों की सहनशीलता, लोकतांत्रिक चेतना और अनुशासन को…! लेकिन यह कब तक जारी रहेगा? पिछले कई दिनों से कश्मीर में पत्थरबाजों, अलगाववादियों और पाकपरस्त साजिशों की चर्चा जारी है। सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत तक को चेतावनी देनी पड़ी थी कि सेना के आपरेशन और आतंकियों के बीच जो भी बाधा बनेगा, आतंकियों का कवच बनने की कोशिश करेगा और सुरक्षा बलों पर पत्थरों की बौछार करेगा, तो उसके साथ सख्त कार्रवाई की जाएगी। उस बयान पर खूब सियासी चीखा-चिल्ली हुई थी। अब पत्थरबाज को जीप के बोनट से बांध कर सबक सिखाने की एक कोशिश की गई है, तो शबनम लोन और निर्दलीय विधायक इंजीनियर राशिद सरीखे कट्टरपंथी अपने कपड़े फाड़ रहे हैं और मानवाधिकारों का रोना रो रहे हैं। अब्दुल्ला परिवार के बयानों पर भी क्या टिप्पणी करें, वह तो रंगे सियार सरीखा है, लिहाजा उसे खारिज कर देना चाहिए। जिस इलाके में दो या सात फीसदी मतदान हुआ हो, फारुक अब्दुल्ला उस सीट पर 10,700 वोट से जीतने पर डींगें हांक लें, लेकिन हम इसे चुनाव नहीं मानते। यह लोकतंत्र पर एक करारा तमाचा है। फारुक भारत की संसद-लोकसभा-के सदस्य बन जाएंगे, लेकिन कश्मीर में पत्थरबाजों के संदर्भ में वह किस ‘वतन’ की बात कर रहे थे? दरअसल हमें तो पत्थरबाजों का यही सटीक इलाज लगता है, क्योंकि जीप से बंधे अपने साथी को देखकर पत्थरबाज सहम उठे और फिर कोई पत्थर नहीं फेंका गया। सेना और सुरक्षा बलों को आलोचनाओं से घबराना नहीं चाहिए और न ही ऐसी मर्यादाएं तय करनी चाहिएं कि चेतावनी, आंसू गैस, हवा में गोली और अंततः पांवों को निशाना बनाकर गोली कब चलाई जाए? ये पत्थरबाज भी बुनियादी तौर पर आतंकी हैं। यह 12 साल से 18 साल तक के लड़कों की जमात क्या है? जवानों से बदसलूकी करते हुए वे चिल्ला-चिल्ला कर नारे लगाते हैं-‘गो बैक इंडिया…गो बैक…हमें चाहिए आजादी।’ वे भारतीय जमीन पर ही भारतीय सैनिकों को खदेड़ने और वापस चले जाने के नारे लगाते हैं, तो अलग-अलग मुखौटों में छिपे वे देश के गद्दार ही हैं। जब भूकंप और बाढ़ की आपदाओं के दौरान कश्मीर के ही लोग इन्हीं सैनिकों और सुरक्षा बलों के कंधों और पीठ पर लद कर सुरक्षित स्थान पर पहुंच कर अपनी जान बचाते हैं, तब यह ‘गो बैक इंडिया…गो’ याद नहीं रहता? बहरहाल बीते वर्ष 2016 में करीब 3550 जवान पत्थरबाजी से घायल हुए थे और आज भी यह सिलसिला जारी है। करीब एक दशक से पत्थरबाजी के प्रहार किए जा रहे हैं। करीब 13,000 घटनाएं हो चुकी हैं। पत्थरबाज भी मरे हैं। वे पांच-सात हजार रुपए के भाड़े पर ‘देशद्रोही काम’ करते रहे हैं। अलगाववादियों के जरिए पाकिस्तान आर्थिक मदद करता रहा है। आखिर कोई स्थिति तो अंतिम होनी चाहिए? कोई तो आखिर इलाज होना चाहिए? आखिर कब तक ये टकराव जारी रहेंगे? सब्र इतना छलकने लगा है कि आतंकवाद के खिलाफ इजरायल और अमरीका की नीतियों के इस्तेमाल की नौबत आ गई है। जिस देश में सैनिक, सुरक्षा बल अपमानित हो रहे हों, वह देश खामोश कैसे बैठ सकता है? लिहाजा देश वाकई आज गुस्से में है!


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