प्रगति के जाम में यातायात

By: Apr 26th, 2017 12:01 am

हिमाचल की शहरी जिंदगी के बीच, खंभे पर लटके उसूलों की इबादत कहां की जाए। ऐसा प्रतीत होता है कि सड़क पर युद्ध के मानिंद यातायात के हालात और प्रगति को ढोते वाहनों के बीच होड़ का समुद्र। कोई एक शहर, कस्बा या गांव इस लायक नहीं बचा कि सड़क पर पैदल यात्री के कदम बच जाएं। अब तो यातायात जाम की वजह भी प्रगति ही नजर आने लगी और जहां वाहनों की कतारों के बीच, जिंदगी निरंतर असुरक्षित और छोटी हो चली है। निजी बसों की रफ्तार-टैक्सियों की भरमार, बाइक का मिजाज और शान के लिए कार का साइज इतना बढ़ गया कि अब तो गली भी अपनी नहीं रही। हिमाचली वाहन सबसे अधिक अतिक्रमण कर रहे हैं और समाज को अपने ही पांवों से दूर भी कर रहे। इस सूरत पर हैरानी यह कि यातायात व्यवस्था एक असाध्य रोग की तरह, हिमाचल को विचलित कर रही है। सार्वजनिक परिवहन के जिस मॉडल के तहत लो फ्लोर बसों ने पदार्पण किया, उसकी बारीकी से तलाशी होनी चाहिए। आखिर जवाहर  लाल नेहरू शहरी नवीकरण मिशन के तहत बसें आईं किसलिए और इनका प्रयोग का अर्थ किसलिए। क्या लो फ्लोर बसों ने निजी वाहनों का भार उठा लिया या शहरी परिवहन को नई दिशा दी। यकीनन नहीं, लेकिन इन्होंने भी यातायात व्यवस्था में अपनी टांग अड़ा दी। क्षमता और संभावना से कहीं अधिक बसों की खेप ने सार्वजनिक परिवहन की पूर्ण जिम्मेदारी नहीं उठाई, नतीजतन निजी वाहनों की उपस्थिति कहीं अधिक घातक होती जा रही है। शिमला जैसे शहर पर करीब सवा लाख वाहनों की सवारी में बाहरी वाहनों को जोड़ लें, तो शहर के पांव कैसे चलेंगे। विडंबना यह है कि हिमाचली परिवहन को केवल रूट-परमिट के दायरे में ही समझा गया, जबकि अब जरूरत से अधिक वाहनों ने इतनी जगह घेर ली कि जीवन अस्त-व्यस्त होने लगा है। हैरानी यह कि एचआरटीसी की बसें अपने ही बस अड्डों को छोटा कर चुकी हैं, तो सड़कों पर विराजित यह साम्राज्य और भी खतरनाक है। दैत्य आकार में दौड़ रहीं कुछ बसें तो इसलिए भी खतरनाक क्योंकि इनके संचालन से पीछे आ रहे वाहन काफिले जाम में तबदील हो रहे हैं। मकलोडगंज की होटल एसोसिएशन ने तो बाकायदा मांग कर डाली कि जरूरत से ज्यादा और लंबी बसों के आगमन को रोका जाए। होना भी यही चाहिए था कि पर्यटन सीजन के दौरान परिवहन का संचालन प्रशासन इस तरह करे कि केवल यात्री ही ऐसे स्थलों पर पहुंचे, वाहन नहीं। पर्यटक स्थलों से दस-बीस किलोमीटर दूर ही निजी वाहन रोककर लो फ्लोर बसों के जरिए यातायात संचालन हो या पार्किंग स्थलों से रज्जु मार्ग से सैलानी अपने गंतव्य तक पहुंचे। कुछ इसी सोच से बस स्टैंड के निर्माण को दो या तीन शहरों के मध्य स्थल पर विकसित किया जाए, ताकि यातायात संचालित किया जा सके। नीति आयोग के तहत परिवहन क्षेत्र में आ रहे बदलाव को समझते हुए हिमाचल की परिवहन नीति को पीडब्ल्यूडी व शहरी विकास मंत्रालय का भी दस्तावेज बनाया जाए। किसी भी शहर, कस्बे या गांव में बस रुकने के स्थान पूरी तरह निर्धारित नहीं, जबकि बस स्टॉप की अवधारणा में मुख्य सड़क से हटकर इनका निर्माण आवश्यक है। घुमारवीं, नगरोटा बगवां, बैजनाथ या हमीरपुर जैसे शहरों के बस स्टैंड से निकलती बसों के कारण यातायात खुद की हालत पर तरस खाता है। पूरे प्रदेश में चौक-चौराहों पर यातायात को समझने के बजाय खुद-ब-खुद चलने की आदत डाल दी गई है। हर सड़क परिवहन ईश्वर पर अटूट भरोसे के तहत ही चल रहा, जबकि नियमों की रखवाली व मार्गदर्शन के लिए यातायात पुलिस का विस्तार अति आवश्यक है। शहरी क्षेत्रों में परिवहन की अपनी-अपनी मशक्कत पर सवार, वाहन चालक की मजबूरी, शान या भौतिक क्षुधा का हर दिन मुकाबला बढ़ता जा रहा है। बाइक की सवारी ने युवाओं में जोखिम उठाने की प्रतिस्पर्धा बढ़ा दी है, तो सामाजिक मुकाबले में कार निरंतर लंबी हो रही है। क्यों न शहरों के भीतर सिटी कार की परिकल्पना में केवल छोटी कारों को ही अनुमति मिले। बिना पार्किंग के निर्मित घरों के मालिकों के वाहन पंजीकृत न किए जाएं या सड़क पर खड़े वाहनों को उठाने के लिए कानून व प्रशासन सख्त हो। युवा पीढ़ी के वाहनों पर नजर रखने को पुलिस सतर्क रहे और गांव से शहर तक पार्किंग के लिए बड़े मैदान विकसित किए जाएं।


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