प्रजा परिषद का अहम पड़ाव

By: Apr 29th, 2017 12:05 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्रीडा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

प्रेम नाथ डोगरा ने अनेक बार प्रजा परिषद का प्रतिनिधि मंडल लेकर दिल्ली में नेहरू से मिलने की कोशिश की, ताकि उन्हें प्रदेश के लोगों का पक्ष बता सकें। लेकिन लोकतंत्र का दम भरने वाले नेहरू ने उन्हें मिलने का समय नहीं दिया। वह जम्मू-कश्मीर का पक्ष जानने के लिए शेख अब्दुल्ला के अलावा और किसी से मिलने को तैयार नहीं थे और उधर जम्मू में शेख अब्दुल्ला की सरकारी सत्याग्रहियों से लाठी-गोली के अतिरिक्त और किसी भाषा में बात करने को तैयार ही नहीं थी। सरकारी भवनों पर तिरंगा झंडा लहराने और भारत माता की जय कहने वाले पंद्रह सत्याग्रही शेख की पुलिस की गोलियों का शिकार हो गए…

स्पष्ट विधिक तथ्यों के बावजूद जम्मू-कश्मीर की स्थिति को लेकर कुछ लोग अस्पष्टता फैलाने में सफल रहे, तो इसका प्रमुख कारण कुछ चयनित तथ्यों का बार-बार दोहराव रहा है। यदि बारीकी से अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि जम्मू-कश्मीर के प्रकरण में तथ्यों के साथ बहुत खिलवाड़ किया गया है। इसी कारण, हम आज भी यहां पर हुए प्रबल संघर्षों से अपरिचित हैं। प्रजा परिषद आंदोलन इस अपरिचय का एक क्लासिक उदाहरण है। इस आंदोलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की केंद्रीय भूमिका थी। जम्मू-कश्मीर में संघ का कार्य काफी अरसा पहले से शुरू हो चुका था। कश्मीर घाटी में प्रो. बलराज मधोक ने घाटी में संघ को विस्तार किया था, जो हमारे जो श्रीनगर के डीएवी कालेज में इतिहास पढ़ाते थे। प्रेम नाथ डोगरा प्रदेश संघचालक थे और उन्होंने जम्मू में संघ को स्थापित करने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। जगदीश अबरोल, केदारनाथ साहनी वहां संघ के प्रचारक थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस मरहले पर रियासत के लोगों को एकजुट कर इस राष्ट्र विरोधी और जम्मू-कश्मीर के लिए आत्मघाती रास्ते का विरोध करने का निर्णय किया। लेकिन यह कार्य किसी एक दल या विचारधारा के लोगों का तो था नहीं। यह तो संपूर्ण रियासत के भविष्य से जुड़ा हुआ सवाल था, इसलिए रियासत के तमाम लोगों को साथ लेकर चलना और उनका प्रतिनिधि संगठन तैयार करना जरूरी था, जो पंडित नेहरू, शेख अब्दुल्ला और इस पूरे प्रकरण में चालाक बंदर की भूमिका में रह कर कार्य कर चुके लॉर्ड माउंटबेटन की सम्मिलित शक्ति को टक्कर दे सके। इस संकटकाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने प्रदेश की जनता को साथ लेकर प्रजा परिषद के नाम से नया संगठन खड़ा कर दिया। जम्मू-कश्मीर के लोगों के इसी सामूहिक संकल्प में से प्रजा परिषद का जन्म हुआ, जिसने 1949 से लेकर 1952 तक रियासत में लाजवाब ऐतिहासिक आंदोलन चलाया, जिसमें जम्मू के पंद्रह लोगों ने अपने प्राणों की आहुति देकर इस पूरे षड्यंत्र को परास्त किया। प्रजा परिषद की मांग पूरे प्रदेश में बच्चे की जुबान पर नारा बन कर गूंजने लगी-‘एक देश में दो निशान, दो विधान, दो प्रधान-नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे।’

शेख अब्दुल्ला ने इस राष्ट्रीय आंदोलन के कर्णधार, पंडित प्रेमनाथ डोगरा को सत्ता का लालच देकर खरीदने की कोशिश की। शेख का प्रस्ताव था कि जम्मू की सत्ता प्रेमनाथ डोगरा संभाल लें और कश्मीर में उनकी सत्ता में दखलअंदाजी न करें। प्रेमनाथ डोगरा ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। उनका उत्तर था, ‘मैं राष्ट्र की अखंडता व अस्मिता की लड़ाई लड़ रहा हूं। सत्ता की लड़ाई नहीं लड़ रहा।’ शेख अब्दुल्ला ने नेहरू की शह पर प्रेमनाथ डोगरा को बलात्कार से लेकर हत्या तक के मामले दर्ज कर जेल में डाल दिया। लेकिन जनता की सम्मिलित ताकत के आगे झुक तर सरकार को अंततः उन्हें छोड़ना पड़ा। उन्हें जम्मू-कश्मीर में सामान लेकर जाने पर सीमा पर कस्टम ड्यूटी लगती थी। रियासत में प्रवेश करने के लिए पासपोर्ट नुमा परमिट होना जरूरी था। प्रजा परिषद ने इसका विरोध किया। प्रजा परिषद के कार्यकर्ता छाती पर तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का चित्र लगा कर नारा लगाते थे-‘एक देश में दो प्रधान, नहीं चलेंगे नहीं चलेंगे।’ उन दिनों जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल को राष्ट्रपति के समकक्ष सदर-ए-रियासत कहा जाता था। शेख अब्दुल्ला की पुलिस ऐसा नारा लगाने वालों पर लाठी चलाने से लेकर गोली तक चलाती थी। प्रजा परिषद के सत्याग्रही सरकारी कार्यालयों पर तिरंगा झंडा फहराने के लिए संघर्ष करते और उधर नेहरू-शेख की पुलिस उसे उतारने के लिए जद्दोजहद करती। इधर जम्मू-कश्मीर में प्रजा परिषद नेहरू-शेख की जोड़ी की इस आत्मघाती रणनीति को परास्त करने के लिए गोलियों का शिकार हो रही थी, उधर दिल्ली में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सहायता लेकर भारतीय जनसंघ का गठन कर दिया था।

धीरे-धीरे जम्मू-कश्मीर के लोगों के इस राष्ट्रीय आंदोलन और सत्याग्रह की गूंज सारे देश में पहुंची। भारतीय जनसंघ ने अन्य दलों के साथ मिल कर प्रजा परिषद के इस आंदोलन का समर्थन करने का निर्णय किया। जनसंघ ने पूरे देश में जम्मू-कश्मीर दिवस मना कर इस आंदोलन की जानकारी लोगों की दी। देश भर से सत्याग्रही बिना पासपोर्ट-परमिट के जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने लगे। पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर हवालात व जेल में अमानवीय यातनाएं देने लगी। प्रेम नाथ डोगरा ने अनेक बार प्रजा परिषद का प्रतिनिधि मंडल लेकर दिल्ली में नेहरू से मिलने की कोशिश की, ताकि उन्हें प्रदेश के लोगों का पक्ष बता सकें। लेकिन लोकतंत्र का दम भरने वाले नेहरू ने उन्हें मिलने का समय नहीं दिया। वह जम्मू-कश्मीर का पक्ष जानने के लिए शेख अब्दुल्ला के अलावा और किसी से मिलने को तैयार नहीं थे और उधर जम्मू में शेख अब्दुल्ला की सरकारी सत्याग्रहियों से लाठी-गोली के अतिरिक्त और किसी भाषा में बात करने को तैयार ही नहीं थी। सरकारी भवनों पर तिरंगा झंडा लहराने और भारत माता की जय कहने वाले पंद्रह सत्याग्रही शेख की पुलिस की गोलियों का शिकार हो गए। उधर दिल्ली में नेहरू दहाड़ रहे थे। इस जन आंदोलन को किसी भी कीमत पर कुचल देंगे , इधर जम्मू में शेख चिंघाड़ रहे थे, जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान लागू नहीं होने देंगे। तिरंगा लहराने की कीमत चुकानी होगी और वह कीमत जम्मू के लोग अपने प्राण देकर चुका रहे थे।

इस मरहले पर डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने स्वयं श्रीनगर जाकर शेख अब्दुल्ला से बात करने का निर्णय किया। लेकिन देश भर में चर्चा थी कि नेहरू की कांग्रेसी सरकार मुखर्जी को जम्मू जाने नहीं देगी, क्योंकि वह बिना परमिट जाना चाहते थे। परंतु नेहरू और शेख अब्दुल्ला में न जाने क्या खिचड़ी पकी कि कांग्रेस सरकार ने उन्हें जम्मू-कश्मीर में प्रदेश करने दिया और प्रवेश करते ही शेख अब्दुल्ला ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। यदि पंजाब की कांग्रेसी सरकार उन्हें गिरफ्तार करती, तो वह भारत के उच्चतम न्यायालय की आधिकारिता में आ जाते थे। लेकिन जम्मू-कश्मीर में गिरफ्तार करने से उच्चतम न्यायालय का अधिकार क्षेत्र उन पर लागू नहीं होता था, क्योंकि शेख अब्दुल्ला और नेहरू में समझौता हो चुका था कि जम्मू-कश्मीर उच्चतम न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं रहेगा। गिरफ्तारी के कुछ समय बाद ही डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की शेख अब्दुल्ला की जेल में रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई। उसके बाद ही नेहरू का शक पुख्ता हुआ कि शेख अब्दुल्ला अमरीका से मिलकर जम्मू-कश्मीर को आजाद रखना चाहते हैं। प्रजा परिषद का आंदोलन खत्म हुआ, लेकिन नेहरू को यह बात समझाने में डा. मुखर्जी को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com


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