बत्ती नहीं, सोच वीआईपी

By: Apr 22nd, 2017 12:02 am

वीआईपी कल्चर सिर्फ लाल बत्ती तक ही सीमित नहीं है। दरअसल यह अतिविशिष्ट संस्कृति का हिस्सा ही नहीं है। भारत कई अंतर्विरोधों का देश है। यदि एक ओर त्याग और बलिदान है, तो दूसरी तरफ सत्ता की भूख और अपनी अमीरी के अहंकार का प्रदर्शन भी खूब है। मुद्दा विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति के सरकारी या निजी वाहनों पर चिपकी लाल या नीली बत्ती का नहीं है। कभी एक आवासीय इलाके के एक वार्ड के औसत पार्षद के जीवन, रहन-सहन, ऐंठ और अकड़ पर गौर करें। उस वार्ड के लागों से संवाद करके पार्षद के सार्वजनिक व्यक्तित्व, उसकी मानसिकता और सोच आदि को जानने की कोशिश करें। तब आप इस बिंदु पर पहुंच सकेंगे कि दरअसल वीआईपी कल्चर क्या होती है? उत्तर प्रदेश सरकार के एक मंत्री ने एक दिव्यांग कर्मचारी के लिए ‘लूला-लंगड़ा’ शब्दों का सरेआम इस्तेमाल किया। उसकी नियुक्ति पर सवाल उठाए। इसी तरह जम्मू-कश्मीर सरकार के ही एक भाजपाई मंत्री ने सरेआम यह सलाह दी कि जो देशद्रोही हैं, पत्थरबाज हैं, उन्हें गोली मार देना ही पक्का इलाज है। चुनाव जीतने के बाद जनप्रतिनिधि जिस तरह खुद को जनता के माई-बाप समझने लगते हैं, वह उनका छद्म अहंकार होता है। उपरोक्त दोनों मंत्रियों के व्यवहार में भी उनका सत्ताई अहंकार टपक रहा था। इन्हें ही वीआईपी कल्चर की लाल बत्ती का प्रतीक माना जा सकता है। हाल ही में एयर इंडिया के विमान में शिवसेना के एक लोकसभा सांसद ने सरकारी अधिकारी को जिस तरह चप्पलों से मारा-पीटा, वह गुंडागर्दी थी, मवालीपन था, क्योंकि वीआईपी होने का अहंकार उसके सिर पर सवार था। ऐसे व्यवहार की लाल बत्ती बंद की जानी चाहिए। वाहनों से लाल बत्ती हटाने का निर्णय बेहद क्षुद्र और कृत्रिम है। वीआईपी दादागिरी फिर भी जारी रहेगी। इस मौके पर भी महात्मा गांधी को याद करना पड़ेगा। वह हमारी स्वतंत्रता की लंबी लड़ाई के निहत्थे नायक थे। हम उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ का सम्मान देते हैं, लेकिन सत्ता और उसकी भूख, अहंकार को उन्होंने अपने से दूर रखा। बाद में जयप्रकाश नारायण ने ‘संपूर्ण क्रांति’ का आंदोलन छेड़कर इंदिरा गांधी जैसी प्रधानमंत्री को पराजित करा दिया, देश को कांग्रेस के विकल्प की जनता पार्टी सरकार दी, लेकिन सत्ताई तौर पर वह तटस्थ रहे। सांसद तक बनने की इच्छा नहीं हुई, लेकिन आज वे आदर्श हैं कहां! लाल बत्ती हटाने से ही संस्कार नहीं बदल जाएंगे। नेता और आम आदमी के फासले नहीं सिमट जाएंगे। प्रधानमंत्री मोदी का मानना सही है कि लोकतंत्र में आम आदमी ही वीआईपी है। लाल बत्ती न केवल उसे शासन से दूर करती है, बल्कि उसे डराती भी है, लेकिन नेताओं की बड़ी-बड़ी गाडि़यां, विशाल बंगले, सुरक्षा कर्मियों की फौज का घेरा और अंततः सहज उपलब्ध न होने का गुरूर आदि वे सत्ताई कंगूरे हैं, जो आम आदमी और नेता के बीच फासले पैदा करते हैं। इनमें लाल बत्ती का अस्तित्व तो बौना सा है। जर्मनी की एक मित्र दिल्ली प्रवास पर थीं। उनके पति सांसद हैं। मित्र ने जो बयां किया, यदि उसका कुछ भी हिस्सा पालन किया जाए, तो वीआईपी कल्चर खंडित हो जाएगी। मित्र के पति साइकिल पर या पैदल ही जर्मन संसद तक जाते हैं। उनके लिए अलग से कोई विशालकाय बंगला नहीं है। अपने ही इलाके में, अपने ही पुश्तैनी घर में वे लोग रहते हैं और आम आदमी की तरह जीवन जीते हैं। लोगों को पता है कि वह सांसद हैं और उनके दायित्व भिन्न हैं, लेकिन दिखावे की रत्ती भर भी कोशिश नहीं है। भारत में वीआईपी की उपलब्ध संख्या 5,79,092 है, जबकि जर्मनी में मात्र 142, जापान में 125, अमरीका में 252, ब्रिटेन में सिर्फ 84, फ्रांस में 109, आस्टे्रलिया में 205, रूस में 312 और चीन सरीखे दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाले देश में भी 435 है। जिन देशों में वीआईपी संख्या बेहद सीमित है, वे सभी भारत की तुलना में श्रेष्ठ, विकसित और संपन्न देश हैं। भारत की वीआईपी कल्चर का मानक सिर्फ लाल बत्ती ही नहीं है, नेताओं का मानस बुनियादी मानक है। उसे हटाया जाए, तो कुछ बदलाव दिखाई देगा।


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