भारी पड़ेगा प्रतिभा का तिरस्कार

By: Apr 29th, 2017 12:03 am

पूजा शर्मा लेखिका, स्वतंत्र पत्रकार हैं

प्रतिभा पलायन का एक मुख्य कारण है नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद। जगजाहिर है कि भाई-भतीजावाद का कितना बोलबाला है। आखिर जिसकी चलती है, उसकी क्या गलती है। लेकिन गला तो प्रतिभाओं का ही घोंटा जा रहा है और नुकसान देश को उठाना पड़ रहा है…

विकास की दौड़ में सरकार तन्मयता से प्रयासरत है, इसके बावजूद उम्मीद के अनुरूप परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं। अब अगर आप मेहनत कर रहे हैं और फिर भी उसके परिणाम न मिल रहे हों, तो कुछ चिंता होना स्वाभाविक ही है। इस चिंता से निकलकर जरा ठंडे दिमाग से इस स्थिति का आकलन किया जाए, तो इसके कुछ कारण भी स्पष्ट दिखने लगेंगे। इसका एक मुख्य कारण है प्रतिभा की अनदेखी। देश और प्रदेश की कई प्रतिभाएं विदेशों में चली गईं और कई जाने की तैयारी में हैं। इसका नतीजा फिर यह कि देश-प्रदेश को कुशल मानव संसाधन नहीं मिल पा रहे। यह गंभीर चिंता का विषय है। प्रतिभा की उपेक्षा के भी मुख्य दो कारण हैं। पहला कारण आरक्षण और दूसरा हमारी व्यवस्था में पसरा भाई-भतीजावाद। कौन नहीं जानता कि आजादी के बाद तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर आरक्षण को दस वर्षों के लिए लागू किया गया था, परंतु वोट बैंक की राजनीति ने वे दस वर्ष आज तक पूरे नहीं होने दिए। इसी राजनीतिक हुनर के चलते करीब सात दशक बीतने पर भी यह परंपरा यथावत जारी है, बल्कि हर दिन किसी न किसी हिस्से से आरक्षण की मांग उठ जाती है। पाटीदार या जाट आंदोलन इसी की तो बानगी हैं। इसके लिए सामान्य वर्ग का निठल्लापन व राजनीतिक लोगों का दोगलापन दोनों ही जिम्मेदार हैं। गौर करने योग्य है कि आरक्षण का लाभ आरक्षित वर्ग के अमीर ही पीढ़ी-दर-पीढी उठा रहे हैं। आरक्षित गरीब और अनारक्षित वर्ग तो बद से बदतर होता जा रहा है। हमारे नेता हैं कि अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए आरक्षण की आंच में राजनीतिक रोटियां सेंकने में मस्त हैं और आरक्षण को मूंगफली की तरह बांट रहे हैं। 77वां, 81वां, 82वां और 85वां संविधान संशोधन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।

इतना सब कुछ करने के बावजूद जब और कानूनी पेचीदगियां नजर आने लगीं, तो रही-सही कसर पूरी करने के लिए केंद्र सरकार ने 117वां संविधान संशोधन विधेयक संसद में पेश कर डाला। केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें, न जाने क्यों एकतरफा कानूनों को बढ़ावा दे रही हैं, जिससे समाज में असंतुलन बढ़ता जा रहा है। क्या आरक्षण की यह पंरपरा कभी खत्म हो पाएगी? प्रतिभा पलायन का दूसरा मुख्य कारण है भाई-भतीजावाद। जगजाहिर है कि भाई-भतीजावाद का कितना बोलबाला है। आखिर जिसकी चलती है, उसकी क्या गलती है। लेकिन गला तो प्रतिभाओं का ही घोंटा जा रहा है और नुकसान देश को उठाना पड़ रहा है। इसी स्थिति को भांपते हुए पारदर्शिता के उद्देश्य से केंद्र सरकार ने तृतीय व चतुर्थ श्रेणी के पदों पर भर्ती करने के लिए साक्षात्कार समाप्त कर दिए हैं और साथ ही राज्य सरकारों को ऐसा निर्णय लेने हेतु लिखा है। नियुक्तियों में आरक्षण देने के बावजूद पदोन्नतियों में आरक्षण बिलकुल न्यायसंगत नहीं है। इससे कर्मचारियों में हीनता की भावना आती है और  कार्यकुशलता भी प्रभावित होती है। आलम यह है कि आरक्षित वर्ग ने तो मेहनत करनी ही छोड़ दी है। यही कारण है कि प्रतियोगी परीक्षाओं में बहुत अच्छे अंक लेने वाले अनारक्षित तो खाक छान रहे हैं और बहुत कम अंक पाने वाले आरक्षित व्यावसायिक प्रशिक्षण कोर्सों में प्रवेश पा रहे हैं तथा नौकरी भी पा रहे हैं। कई परीक्षाओं में तो माइनस अंक प्राप्त करने पर भी आरक्षण की वजह से वे नौकरी प्राप्त कर रहे हैं। यानी जुगनू तो अधिकारी बन रहे हैं और सूरज बन रहे चौकीदार।

समझ में नहीं आता है कि आखिर अनारक्षित वर्ग को किन गुनाहों की सजा दी जा रही है? क्या यह सब समानता के अधिकार के विपरीत नहीं है? जाहिर सी बात है कि इतना सब कुछ होने के बाद प्रतिभाएं या तो पलायन करेंगी या फिर आत्महत्या। आज पूरा देश आरक्षण रूपी बारूद के ढेर पर खड़ा है। कुछ समुदाय आरक्षण पाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं, तो कुछ आरक्षण के विरोध में। आरक्षण की समीक्षा और प्रतिभा के सम्मान की भी पुरजोर मांग की जा रही है। गुर्जर, जाट, पटेल, ब्राह्मण, मराठा आदि आंदोलन व राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, गुजरात तथा पंजाब आदि राज्यों के अनारक्षित कर्मचारियों द्वारा दर्ज विरोध इसके सजीव उदाहरण हैं। किसी भी देश की ताकत उसका समाज होता है। यदि किसी देश का समाज इस प्रकार छोटे-छोटे वर्गों में बंट जाए तो उसका विकास कम और हृस ज्यादा होता है। वर्ग विशेष के लिए बनाई जाने वाली नीतियां असमानता और पक्षपात के सिवाय और कुछ भी नहीं देंगी। अब समाज की एकता और अखंडता को बचाने के लिए व समाज की समेकित तरक्की के लिए समान नीतियां बनाई जानी चाहिएं। सभी जागरूक नागरिकों, समाज सेवी संस्थाओं तथा राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे वर्ग विशेष के तुष्टिकरण के बजाय प्रतिभा के सम्मान में नीतियां बनाने की हिमायत करें।


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