राजनीतिक दखल से बेदखल होती शिक्षा

By: Apr 15th, 2017 12:03 am

सुरेश कुमार लेखक, ‘दिव्य हिमाचल’ से संबद्ध हैं

शिक्षा को अब राजनीति में पैठ बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यही वजह है कि सेंट्रल यूनिवर्सिटी नौ साल में स्थापित नहीं हो पाई। श्रेय लेने की होड़ में एक शिक्षण संस्थान धोबी का कुत्ता बना घाट-घाट घूम रहा है। हर जनसभा में एक कालेज, हर छह-सात किलोमीटर पर एक कालेज, कभी स्कूल खोल दिए कभी बंद कर दिए…

कभी पेड़ों के नीचे जमीन पर बैठकर शिक्षा ग्रहण करते छात्र, कभी तख्ती पर इमला लिखते छात्र और कभी अपने हाथों पर अध्यापकों से डंडे खाते छात्र, शिक्षा की पवित्रता, गुणवत्ता और महत्ता  को दर्शाते थे। तब स्मार्ट क्लासरूम न सही, बैठने को सुविधाजनक डेस्क न सही, पर शिक्षा सौ फीसदी खरी थी। तब विद्यालय से निकलने वाला छात्र सोने की तरह तप कर निकलता था। छात्र-शिक्षक का रिश्ता अपनेपन की आभा लिए एक सुखद एहसास करवाता था। वक्त के थपेड़ों ने सब बदल दिया। कम्प्यूटर ने सब कुछ आसान कर दिया, पर कबाड़ा कर दिया। हम 21वीं सदी में आ गए पर शिक्षा को 19वीं सदी में ही छोड़ आए। अब शिक्षा राजनीति करने का मंच और माध्यम बन गई है। आज की शिक्षा वह शिक्षा नहीं है, जो संस्कृति और सभ्यता को साथ लेकर चलती थी। आज शिक्षा का मतलब एक डिग्री हासिल कर कोई छोटी-मोटी नौकरी करने तक ही सीमित है और शिक्षण संस्थान राजनीति के गढ़ बन गए हैं। छात्र संघ राजनीतिक दलों की छत्र छाया में पलते- बढ़ते हैं। जिस देश के छात्र और शिक्षक हड़ताल पर हों, उस देश की शिक्षा कैसी होगी, अंदाजा लगाया जा सकता है। बात हिमाचल की करें, तो हालात यहां भी ठीक नहीं हैं। हिमाचल में छात्र- शिक्षक हड़तालों का यह मंजर आम देखा जाता है। हमने सुना कि हिमाचल शिक्षा में अव्वल है और हमने यह भी सुना कि हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी देश के 100 विश्वविद्यालयों की रैकिंग तक भी नहीं पहुंची। दोनों सर्वे आशंकित करते हैं और यह आशंका पैदा हुई है राजनीति के कारण। राजनीतिक दल अपनी पैठ बनाने के लिए शिक्षण संस्थानों के छात्र संघों को प्रभावित करते हैं। अभी हाल ही में शिमला में एबीवीपी के 25000 छात्रों ने शिमला में प्रदर्शन किया। सरकार के प्रति रोष प्रकट किया।

लोकतंत्र में अपना हक पाने के लिए ऐसा जायज है, पर ऐसी नौबत ही क्यों आई कि छात्र सड़कों पर आ जाएं। अकेले छात्रों को भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता, खोट सरकार में भी है। सरकार ने कई ऐसे प्रयोग बिना तैयारी के शिक्षा के क्षेत्र में  किए कि शिक्षा में सुधार की बजाय, विकार पैदा हो गए। रूसा इसका एक जीता-जागता उदाहरण है। सरकार ने दो साल पहले छात्रों की फीस वृद्धि के लिए की गई हड़ताल को यह आश्वासन देकर तुड़वा दिया कि एक कमेटी गठित की जाएगी, जो फीस वृद्धि पर अपनी रिपोर्ट देगी। और सरकार को समिति के रिपोर्ट सौंपने के बावजूद आज तक वह रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई। सरकार ने इस बजट में सबसे ज्यादा पैसा (6204 करोड़) शिक्षा के लिए दिया और शिक्षा किस स्तर की है यह यूनिवर्सिटी की रैंकिंग ने बता दिया, यह किन्नौर में चोरी हुए प्रश्नपत्रों में साबित कर दिया। हिमाचली शिक्षा ऐसी तो न थी, जैसी हो गई है। स्तर शिक्षा का नहीं गिरा, स्तर गिरा है शिक्षा देने वालों का। इस आग में घी का काम किया छात्रों को आठवीं तक फेल न करने की नीति ने। यानी आठवीं तक न छात्रों को फेल होने का डर और न अध्यापकों को छात्रों को पास करवाने की चिंता। शिक्षा विभाग में भर्तियों में भी राजनीति का हस्तक्षेप रहा। सरकार ने शिक्षा विभाग में कई नामों से अप्रशिक्षित अध्यापकों  को अनुबंध पर रख लिया, जिन्हें मिलने वाला वेतन उन्हें सही ढंग से अपना कर्त्तव्य निभाने से रोकता है। और जो रेगुलर शिक्षक हैं उनकी मोटी तनख्वाह है, पर वे पढ़ाने से ज्यादा अपने होम स्टेशन पर तबादला करवाने की जुगत में सचिवालय के गलियारों में घूमते रहते हैं। राजनीति ने तो शिक्षा के क्षेत्र में प्रभावी होना ही है, जब तबादलों के लिए मंत्री-नेताओं के लैटर चलते हो। कुछ दिन पहले के एक समाचार के अनुसार एक अध्यापक सेवानिवृत्ति के बाद अपने जीवनयापन के लिए कबाड़ इकट्ठा करने का कारोबार कर रहा है।

यानी पर्याप्त पेंशन न होने के कारण यह काम करना उसकी मजबूरी बन गया है। क्या यह समाचार सरकार को जगाने के लिए काफी नहीं है कि इस सम्माननीय पेशे को इतनी पेंशन तो दे कि शिक्षक का बुढ़ापा आराम से गुजर सके। शिक्षा को अब राजनीति में पैठ बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। यही वजह है कि सेंट्रल यूनिवर्सिटी नौ साल में स्थापित नहीं हो पाई। श्रेय लेने की होड़ में एक शिक्षण संस्थान धोबी का कुत्ता बना घाट-घाट घूम रहा है। हर जनसभा में एक कालेज, हर छह-सात किलोमीटर पर एक कालेज, कभी स्कूल खोल दिए कभी बंद कर दिए। बस यही राजनीतिक मजाक शिक्षा के स्तर को गिरा रहा है। रही सही कसर इस रूसा ने पूरी कर दी। एक पार्टी ने रूसा लागू कर दिया और दूसरी पार्टी का चुनाव से पहले यह बयान कि सत्ता में आते ही सबसे पहले रूसा बंद करवाएंगे। क्या है यह, शिक्षा कोई राजनीतिक अखाड़ा है कि एक दल कोई सिस्टम शुरू कर दे और दूसरा दल उसे बंद कर दे। सरकार ने कुछ नहीं तैयारी की, बस यही देखा कि केंद्र से 100 करोड़ का बजट आना है और लाखों छात्रों का भविष्य अंधेरे में धकेल दिया। हिमाचल में प्रतिभा के लिए पारखी नहीं है। हिमाचल की शिक्षा के बारे में तो जितना लिखना चाहो, लिख सकते हैं, क्योंकि खामियों का जखीरा कम नहीं है और वजह सिर्फ यही कि शिक्षा में हद से ज्यादा राजनीतिक दखल है, जिसने शिक्षा को हिमाचल से बेदखल कर दिया है।

ई-मेल : sureshakrosh@gmail.com


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