संसदीय प्रणाली के स्याह पक्ष

By: Apr 13th, 2017 12:05 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

समस्या यह है कि शालीन विरोध का सरकार पर कोई असर नहीं होता और मंत्रिगण कानून में बदलाव के विपक्ष के किसी सुझाव को मानने के लिए तैयार नहीं होते। परिणामस्वरूप अपनी उपस्थिति जताने तथा जनता और मीडिया का ध्यान आकृष्ट करने के लिए विपक्ष वाकआउट और शोर-शराबे का सहारा लेता है। इस स्थिति से बचने का एक ही उपाय है कि कार्यपालिका और संसद का घालमेल खत्म हो, कार्यपालिका संसद से अलग हो, कार्यपालिका के सदस्यों का चुनाव अलग से हो, कार्यपालिका के पास कानून बनाने का अधिकार तथा संसद भंग करने का अधिकार न हो…

हम भारतीय गर्व से फूले नहीं समाते जब हम यह सुनते या कहते हैं कि हमारा देश भारतवर्ष विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। हमारे देश में संसदीय प्रणाली लागू है और हमारे संविधान ने संसद को सर्वोच्च स्थान दिया है। संसद के दोनों सदनों का समूह विधायिका है, जिसका मुख्य कार्य पुराने कानूनों की समीक्षा करना, आवश्यकतानुसार उनमें संशोधन करना, उन्हें निरस्त करना और नए कानून बनाना है। कार्यपालिका, संसद के बनाए हुए कानूनों को लागू करती है और इन कानूनों के अनुसार देश का शासन चलाती है, जबकि न्यायपालिका संसद द्वारा बनाए कानूनों की व्याख्या करती है और किसी विवाद की स्थिति में न्याय प्रदान करती है। संसद की सर्वोच्चता की दूसरी विशेषता यह है कि मंत्रिगण अपने हर कार्य के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी हैं और यदि प्रधानमंत्री या उनकी मंत्रिपरिषद का कोई सदस्य ऐसा करने में विफल रहे, तो संसद उन्हें हटा सकती है। विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र होने पर हमें जितना गर्व होता है, उतना ही दुख तब होता है जब हमें पता चलता है कि विपक्ष के विरोध के कारण संसद ठप पड़ी है। संसद में हंगामा, तोड़-फोड़ आदि की घटनाओं से हम शर्मिंदा होते हैं। नागरिकों के टैक्स का करोड़ों रुपया, जो देश के विकास में लग सकता था, यूं ही स्वाहा हो जाता है। सरकार कहती है कि वह संसद में बहस चाहती है, लेकिन विपक्ष हंगामा करके मीडिया में सुर्खियां बटोरना चाहता है। दूसरी ओर विपक्षी दल कहते हैं कि सरकार मनमानी पर अड़ी है, इसलिए विरोध जताना आवश्यक है। दावों और प्रति-दावों की इस जंग में सिर्फ जनता हारती है। कानून बनाना और कार्यपालिका की निगरानी करना संसद का कर्त्तव्य और अधिकार है, लेकिन यदि संसद ठप हो तो न कानून बन सकते हैं और न सरकार की कारगुजारी की समीक्षा हो सकती है। ऐसे में हर भारतीय यह चाहता है कि संसद सुचारू रूप से चलाने के उपाय ढूंढे जाएं।

अतः यह देखना समीचीन होगा कि संसदीय शासन प्रणाली के सही ढंग से काम करने की आवश्यकताएं क्या हैं। संसदीय प्रणाली में बहुमत के शासन का सिद्धांत काम करता है। इसके लिए यह आवश्यक है कि राजनीतिक दलों में परिपक्वता हो तथा विपक्षी दल, बहुमत प्राप्त दल के शासन के दौरान उसके फैसलों की तर्कसंगत समीक्षा के बाद उनका समर्थन या विरोध करें तथा वे कुछ समय के लिए बहुमत प्राप्त दल के फैसलों को स्वीकार करने के लिए तैयार रहें। राजनीतिक दलों के अस्तित्व का आधार नीतिगत मुद्दे हों। जनसामान्य को स्पष्ट रूप से मालूम हो कि किस दल की नीति क्या है और किसी दल विशेष के सत्ता में आने पर नीतियों में क्या परिवर्तन संभव हैं। संसदीय व्यवस्था के ठीक से काम करने के लिए यह आदर्श स्थिति है, लेकिन यदि व्यवहार में देखें तो हमारे देश में स्थिति बिलकुल अलग है। चूंकि संसदीय प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता बहुमत का शासन है, अतः असल में यहां विपक्ष लगभग शक्तिशून्य है। संसदीय व्यवस्था विपक्ष को  ‘आदरणीय’  तो कहती है, परंतु देती कुछ नहीं। विपक्ष सदन में भाषण दे सकता है और प्रश्न भी पूछ सकता है, लेकिन सरकार को कोई निर्णय लेने या कोई काम करने से नहीं रोक सकता। न ही वह मतदान को प्रभावित कर सकता है, क्योंकि सांसद सिर्फ अपनी पार्टी के निर्देश के अनुसार वोट देने के लिए बाध्य हैं। विपक्ष सरकार की गलत नीतियों की ओर ध्यान आकृष्ट करने का बेहतर मंच है, लेकिन यह सरकार को मनमानी से नहीं रोक सकता। इस प्रणाली में सब कुछ विजेता का ही होता है। संसदीय प्रणाली की मूलभूत कमजोरी यह है कि इस प्रणाली में कार्यपालिका ही संसद का भी काम करती है। मंत्रिपरिषद के सदस्यों के लिए संसद के किसी सदन का सदस्य होना आवश्यक है, इसलिए सरकार में शामिल मंत्रियों को कानून बदलने, निरस्त करने या नए कानून बनाने की सुविधा भी प्राप्त है। इस प्रकार कार्यपालिका, कार्यपालिका तो है ही, वह विधायिका भी है यानी कार्यपालिका को सरकार के दोनों अंगों की शक्तियां मिली हुई हैं।

बहुमत प्राप्त दल का नेता और दल के अध्यक्ष यदि मिल जाएं तो वे न केवल अपने दल के आका हो जाते हैं, बल्कि वे पूरी संसद का अपहरण करने में समर्थ हैं। नियम यह है कि यदि सरकार का कोई प्रस्ताव संसद में गिर जाए तो पूरे मंत्रिमंडल को इस्तीफा देना पड़ेगा, इसलिए सरकार को बचाए रखने के लिए बहुमत प्राप्त दल का हर सदस्य अपनी पार्टी के बिल के पक्ष में वोट देने के लिए विवश है। इस प्रणाली में जनता के प्रतिनिधि अपनी इच्छा से वोट देने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं, क्योंकि दलबदल विरोधी कानून के कारण वे पूर्णतः अपने आकाओं के रहमोकरम पर हैं। वही उन्हें प्रत्याशियों के रूप में चुनते हैं, वही उन्हें पार्टी और सरकार के पद बांटते हैं और वही उन्हें पार्टी के आदेश का उल्लंघन करने पर दंडित करते हैं। अगले चुनावों में पार्टी का टिकट न मिलने या लाभ का पद खो देने के डर से सांसद चापलूस और गुलाम हो जाते हैं। यही नहीं, जब कानून बनाने वालों के हाथ में ही उन्हें लागू करने की भी शक्ति हो, तो वे स्वयं को अपने ही बनाए कानूनों के पालन से मुक्त कर सकते हैं, और भारतवर्ष में यह हर जगह स्पष्ट दिखता है। भारतीय संविधान में सरकार के अधिकारों की कोई सीमा नहीं और यह जनता की सेवक नहीं, बल्कि अभिभावक बन बैठी है। कानून बनाने में विपक्ष की भूमिका सिर्फ आलोचना करने तक सीमित है, वह न कोई कानून बनवा सकता है और न रुकवा सकता है। ऐसे में यह धारणा कि संसद कानून बनाती है, असल में गलत है। सच्चाई यह है कि सरकार ही कानून बनाती है और सरकार ही कानून लागू भी करती है। शक्तियों के अभाव में विपक्ष पंगु हो जाता है।

समस्या यह है कि शालीन विरोध का सरकार पर कोई असर नहीं होता और मंत्रिगण कानून में बदलाव के विपक्ष के किसी सुझाव को मानने के लिए तैयार नहीं होते। परिणामस्वरूप अपनी उपस्थिति जताने तथा जनता और मीडिया का ध्यान आकृष्ट करने के लिए विपक्ष वाकआउट और शोर-शराबे का सहारा लेता है। इस स्थिति से बचने का एक ही उपाय है कि कार्यपालिका और संसद का घालमेल खत्म हो, कार्यपालिका संसद से अलग हो, कार्यपालिका के सदस्यों का चुनाव अलग से हो, कार्यपालिका के पास कानून बनाने का अधिकार तथा संसद भंग करने का अधिकार न हो। कानून बनाने के लिए संसद में कम से कम 65 प्रतिशत सदस्यों की सहमति आवश्यक हो, ताकि कोई एक दल मनमानी न कर सके और कानून बनाने में ज्यादा से ज्यादा दलों की भागीदारी हो। इससे विपक्ष शक्तिहीन नहीं होगा और उसे शोर-शराबे जैसे अनुचित साधनों का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। बेहतर होगा कि इसके लिए संविधान में आवश्यक संशोधन हो और शुरुआत में इसे स्थानीय स्तर पर लागू किया जाए। यानी नगरपालिकाओं के मेयर का चुनाव अलग से हो, उसका कार्यकाल निश्चित हो, लेकिन शहर के लिए कानून बनाने या बजट पास करने में उसकी भूमिका न हो। वह सिर्फ नगरपालिका द्वारा स्वीकृत नियमों-कानूनों को लागू करे और अपनी योजनाओं की पूर्ति के लिए खर्च का आकलन प्रस्तुत करे और नगरपालिका के चुने हुए सदस्य उसकी योजनाओं की समीक्षा करें, उसके लिए बजट पास करें। स्थानीय स्तर पर इस प्रयोग की सफलता के बाद इसे राज्य और केंद्र के स्तर पर भी लागू किया जाए, ताकि हमारा देश एक सार्थक लोकतंत्र बन सके। लोकतंत्र की सफलता की यह अनिवार्य आवश्यकता है।

ई-मेल : features@indiatotal.com


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App