सत्ता के मद में विवेक का हरण

By: Apr 10th, 2017 12:05 am

( ललित गर्ग लेखक, स्वतंत्र पत्रकार हैं )

जिस तरह सांसद होने के बावजूद गायकवाड़ ने निम्न स्तर की हरकत करते हुए कर्मचारी की पिटाई करने एवं उसे अपमानित करने का कार्य किया, वह कहीं से भी किसी सांसद के गरिमामय पद के अनुकूल नहीं था। ऐसे कार्य की तो किसी साधारण आदमी से भी उम्मीद ही नहीं की जा सकती, फिर आप तो संवैधानिक पद पर बैठे हुए जिम्मेदार नागरिक एवं जनप्रतिनिधि हैं। आप स्वयं ही कानून को ठेंगा दिखा रहे हैं, इससे बड़ी विडंबना की बात और क्या होगी…

अभी कुछ दिन पहले ही शिवसेना के सांसद रवींद्र गायकवाड़ द्वारा एयर इंडिया के एक 60 वर्षीय कर्मचारी से मारपीट करने, चप्पलों से पीटने एवं गाली-गलौज करने की घटना ने न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों को शर्मसार किया, बल्कि मानवीय मूल्यों को भी नजरअंदाज किया है। ऐसा लगता है कि सत्ता की ताकत एवं मद ने विवेक एवं संयम का अपहरण कर लिया है। समाज एवं राष्ट्र में संयमित व्यक्ति ही रेस्पेक्टेबल (सम्माननीय) हैं और वही एक्सेप्टेबल (स्वीकार्य) हैं। इसी पर लोकतंत्र की बुनियाद टिकी है, लेकिन गायकवाड़ ने अपने जनप्रतिनिधि होने के सम्मान को ही गाली बना दिया और मानवता की सारी हदें पार कर दीं। सांसद गायकवाड़ ने अपने घृणित, अमानवीय एवं बेहूदे व्यवहार से राजनीति की मर्यादा को धुंधलाया है। इससे उसकी मुश्किलें बढ़ना स्वाभाविक ही था और वे बढ़ीं भी। एयर इंडिया ने उनके खिलाफ मामला दर्ज कराया, वहीं भविष्य में उनके हवाई सफर करने पर भी बैन लगा दिया था। विडंबना यह कि अब तो वह इस कार्रवाई से मुक्त भी हो गए और पहले की ही तरह उनके हवाई सफर को बहाल कर दिया गया है। हम नहीं जानते कि यह फैसला किन हालात में लिया गया है, लेकिन इससे एक गलत परंपरा पनपने का भी भय पैदा हो गया है। इस शर्मनाक घटना का वाकया इस प्रकार घटित हुआ। गायकवाड़ पुणे से दिल्ली के लिए एआई-852 विमान में सफर कर रहे थे। दिल्ली पहुंचने के बाद विमान से सभी यात्री उतर गए, लेकिन गायकवाड़ नहीं उतरे।

सांसद के पास ओपन बिजनेस क्लास का टिकट था, लेकिन वह उसी विमान में सफर करना चाहते थे, जो नियमित तौर पर इकोनॉमी क्लास की उड़ान ही भरता है। हालांकि गायकवाड़ ने जब उसी विमान से उड़ान भरने पर जोर दिया, तो उन्हें विमान की पहली पंक्ति में एक सम्मानजनक सीट उपलब्ध कराई गई, क्योंकि उस विमान में अलग से बिजनस क्लास है ही नहीं। नई दिल्ली हवाई अड्डे पर सांसद विमान से एक घंटे तक नहीं उतरे, जबकि गोवा जाने वाले 115 यात्री विमान के उड़ान भरने का इंतजार करते रहे। एयर इंडिया के कर्मचारियों ने जब गायकवाड़ से विमान से उतरने के लिए कहा तो वह गालियां देने लगे और एयर इंडिया के कर्मचारी को चप्पलों से मारने लगे और भी बहुत कुछ अभद्र एवं हिंसक बर्ताव उन्होंने किया। सरकारी कर्मचारी इस तरह पिटने एवं अपमानित होने के लिए तो कतई नहीं हैं। सांसद महोदय को चाहिए था कि वह अपनी गलती को स्वीकार करते, लेकिन उनको अपने बर्ताव पर जरा सा भी अफसोस नहीं था। उन्होंने कहा, मैं माफी नहीं मांगूंगा, मैं क्यों मांगू? पहले उसे ‘पीडि़त’ को कहो माफी मांगने के लिए, उसके बाद हम देखेंगे। सांसद ने तो दिल्ली पुलिस को चुनौती ही दे डाली कि अगर हिम्मत है तो वह उसे गिरफ्तार करके दिखाए। गायकवाड़ का व्यवहार अतिशयोक्तिपूर्ण था। उस घटना ने समूचे राष्ट्र को झकझोरा है। अनेक प्रश्न खड़े कर दिए हैं, जैसे कि क्या सरकारी कर्मचारी होने का अर्थ राजनेताओं के पांव की जूती बन जाना है? सरकारी कर्मचारी ही नहीं, बल्कि आम जनता तक उनकी बेहूदगी, बेरहमी एवं दुर्व्यवहार की शिकार होती है। प्रश्न है कि क्यों शापित हैं हम सब इस बेहूदगी को झेलने को? एक आम इनसान जो कदम-कदम पर नियमों की पालना करते हुए अपनी जिंदगी चलाता है, वह ऐसे दुर्व्यवहार को क्यों झेले? जनप्रतिनिधि होने के नाम पर क्या ये हमें खरीद लेते हैं? क्यों हमारे साथ इस तरह के अमानवीय दुर्व्यवहार किए जाते हैं।

लोकतंत्र में इस तरह की गुंडागर्दी को क्यों जगह मिल रही है? एयर इंडिया के जिस कर्मचारी के साथ यह मारपीट एवं गुंडागर्दी हुई थी, असल में उस एयर इंडिया के कर्मचारी में हमें आम आदमी दिखाई देता है। इसलिए यह बेहूदगी किसी एक इनसान के साथ नहीं हुई है, बल्कि मानवीयता के साथ हुई है, भारतीयता के साथ हुई है, हम सबके साथ हुई है। उनके चेहरे में हम अपना चेहरा देखें। अफसोस की बात यह है कि राजनीति के मद ने गायकवाड़ जैसों को इतना मद में डूबो दिया है कि उनके लिए हर आम इनसान बेचारा है, जो अपमान झेलने, इनकी मार खाने, इनकी जली-कटी सुनने, इनकी जी हुजूरी करने और इन्हें सलाम करने को ही दुनिया में आया है। ऐसे क्रूर, बेदर्द और बेहूदों का बिना किसी दंड के बच निकलना दुखद ही माना जाएगा। कमोबेश एक जनप्रतिनिधि को तो इस तरह के कार्य शोभा नहीं देते। उनके इस व्यवहार की जितनी निंदा की जाए, कम ही होगी। बेहद शर्मनाक है इस तरह सरकारी कर्मचारी को अपने पांव की जूती समझना। इस तरह की घटनाओं को देखते हुए यह अपेक्षित हो जाता है कि जनप्रतिनिधियों के लिए उनके अपराध, उनके बदतमीजियों के लिए कठोर कानून बनाए जाएं।

प्रश्न यह भी है कि जनता के द्वारा, जनता के हितों के लिए चुना जाने वाला सांसद कैसे सत्ता के मद में चूर हर किसी को अपमानित करने का अधिकारी हो जाता है? जनमत एवं जनविश्वास तो दिव्य शक्ति है। उसका उपयोग आदर्शों सिद्धांतों और मर्यादाओं की रक्षा के लिए हो। जनता की सुविधा का सृजन करने या उनकी बदहाली को दूर करने के संकल्प के साथ सत्ता पर काबिज होने वाले सांसद के लिए उम्दा क्लास न मिलना कैसे इतना आक्रामक विषय बन जाता है। त्याग एवं संयम का उनका संकल्प कहां लुप्त हो जाता है कि उम्दा क्लास के सीट कब्जा को लेकर ही एयर इंडिया के कर्मचारी से मारपीट पर उतारू हो गया? जिस तरह सांसद होने के बावजूद गायकवाड़ ने निम्न स्तर की हरकत करते हुए कर्मचारी की पिटाई करने एवं उसे अपमानित करने का कार्य किया, वह कहीं से भी किसी सांसद के गरिमामय पद के अनुकूल नहीं था। ऐसे कार्य की तो किसी साधारण आदमी से भी उम्मीद ही नहीं की जा सकती, फिर आप तो संवैधानिक पद पर बैठे हुए जिम्मेदार नागरिक एवं जनप्रतिनिधि हैं। आप स्वयं ही कानून को ठेंगा दिखा रहे हैं, इससे बड़ी विडंबना की बात और क्या होगी? आप ऐसा करते हुए नियम और नीति की बात कर रहे हैं, जबकि खुद उसी का पालन नहीं कर रहे हैं। नीति और नियम को इस तरह ताक पर रखना आपको शोभा नहीं देता। उसकी ईमानदारी से निर्वाह करने की अनभिज्ञता संसार में जितनी क्रूर है, उतनी क्रूर मृत्यु भी नहीं होती। मनुष्य हर स्थिति में मनुष्य रहे। अच्छी स्थिति में मनुष्य मनुष्य रहे और बुरी स्थिति में वह मनुष्य नहीं रहे, यह मनुष्यता नहीं, परिस्थिति की गुलामी है।

इस गुलामी से मुक्ति के लिए ही जनता कुछ आदर्श चेहरों को चुनकर भेजती है कि वे उनका भला सोचेंगे, भला करेंगे। गायकवाड़ जैसे हमारे कर्णधार पद की श्रेष्ठता और दायित्व की ईमानदारी को व्यक्तिगत अहं से ऊपर समझने की प्रवृत्ति को विकसित कर मर्यादित व्यवहार करना सीखें, अन्यथा शतरंज की इस बिसात में यदि प्यादा वजीर को पीट ले तो आश्चर्य नहीं। गायकवाड़ जी आपको लोगों के विश्वास का उपभोक्ता नहीं, अपितु संरक्षक बनना है। आप जैसे लोगों के लिए भी आचार संहिता बननी चाहिए।  आज हम अगर दायित्व स्वीकारने वाले समूह के लिए या सामूहिक तौर पर एक संहिता का निर्माण कर सकें, तो निश्चय ही प्रजातांत्रिक ढांचे को कायम रखते हुए एक मजबूत, शुद्ध व्यवस्था संचालन की प्रक्रिया बना सकते हैं। ताकि सबसे ऊपर अनुशासन और आचार संहिता स्थापित हो सके, अन्यथा अगर आदर्श ऊपर से नहीं आया तो क्रांति नीचे से होगी। जो व्यवस्था अनुशासन आधारित संहिता से नहीं बंधती, वह विघटन की सीढि़यों से नीचे उतर जाती है। काम कम हो, माफ किया जा सकता है, पर आचारहीनता तो सोची-समझी गलती है। उसे माफ नहीं किया जा सकता!


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