सहेजे रखें मेले की महफिल

By: Apr 4th, 2017 12:02 am

news( शिवालिक अवस्थी लेखक, धर्मशाला, कांगड़ा से हैं )

बेशक समय के साथ-साथ हमारी जीवन शैली बदली, मनोरंजन के साधनों के प्रति हमारे ख्यालात बदले, आधुनिकता का तड़का मनोरंजन के क्षेत्र में भी खूब लगा, लेकिन इन तमाम बदलावों के बीच भी मेलों ने अपने महत्त्व को कम नहीं पड़ने दिया…

हिमाचल प्रदेश आस्था, विश्वास, भक्ति और शक्ति की भी भूमि है। यहां के लोगों ने मनोरंजन के लिए बहुत सारी चीजों का सहारा ले रखा है और उन्हीं में से एक है हमारी मेला संस्कृति। कहना न होगा कि हमारे जीवन में मनोरंजन के ये साधन होने भी चाहिएं, क्योंकि इस भागदौड़ भरी जिंदगी में अगर मनोरंजन भी न हो, तो जीवन के मजे फीके ही रहते हैं।  सही मायनों में मनोरंजन दिल बहलाव के साथ-साथ दिमाग को भी तरोताजा करता है और इसीलिए मनोरंजन का हमारे जीवन में महत्त्व और भी बढ़ जाता है। सांस्कृतिक तौर पर समृद्ध हिमाचल में साल भर किसी न किसी हिस्से में मेलों का आयोजन होता ही रहता है। बेशक समय के साथ-साथ हमारी जीवन शैली बदली, मनोरंजन के साधनों के प्रति हमारे ख्यालात बदले, आधुनिकता का तड़का मनोरंजन के क्षेत्र में भी खूब लगा, लेकिन इन तमाम बदलावों के बीच भी मेलों ने अपने महत्त्व को कम नहीं पड़ने दिया। प्रत्येक मेला एवं त्योहार लोक जीवन की किसी किंवदंती या किसी ऐतिहासिक कथानक से जुड़ा हुआ है। इसलिए इनके आयोजन में संपूर्ण लोक जीवन पूर्ण सक्रियता से भाग लेता है। इन मेलों में कहीं न कहीं हिमाचल की संस्कृति जीवंत हो उठती है। मेले मनोरंजन का साधन होने के साथ-साथ किसी भी समाज की पारंपरिक विरासत और संस्कृति का भी हिस्सा होते हैं। इसी के मार्फत हम मनोरंजन के साथ-साथ अपनी परंपराओं को भी तो आगे बढ़ाते हैं। हिमाचल में मेलों का इतिहास काफी पुराना रहा है। आज से सैकड़ों हजारों वर्ष पूर्व जब मनोरंजन के साधन विकसित नहीं थे, तब लोग मेलों के सहारे ही मनोरंजन किया करते थे। मेले उस समय न केवल मनोरंजन का साधन थे, बल्कि लोगों के सामाजिक मेलजोल का माध्यम भी थे।

मेले के ही बहाने लोग एक-दूसरे से मिलते थे। आपसी सद्भाव बढ़ता था और सामाजिक ताना-बाना ठीक ढंग से चलता था। हमारे समाज में यदि समरसता का भाव काफी गहरे तक समाया हुआ है, तो इसमें मेलों की एक उल्लेखनीय भूमिका रही है। यहां सामुदायिक भावनाएं भी कभी मेलों के आयोजन में आड़े नहीं आईं और इसी वजह से हर वर्ग, समुदाय व जाति के लोग मिल-जुलकर इन सांस्कृतिक समारोहों में शरीक होते रहे हैं और यहीं से एक सामाजिक समरसता व सौहार्द की जमीन भी तैयार हुई। आप सभी ने बचपन में मेलों का खूब आनंद उठाया होगा, फिर चाहे वे मेले हमारे आसपास के क्षेत्रों के हों या किसी दूसरे क्षेत्र के। आज भी जब उन मेलों की याद आती है, तो हम यकायक बचपन की उन हसीन यादों में खोने लगते हैं। बचपन में मेलों का मतलब सिर्फ खिलौनों और खाने-पीने तक ही सीमित होता था।  खिलौनों में कार और बजाने वाले बाजे तथा तरह-तरह के मुखौट, जिसमें बच्चों का सबसे पसंदीदा मुखौटा अकसर हनुमान जी का होता था। इसके बाद बचपन में ज्यादा आकर्षण झूलों का रहता था, उसके बाद रेलगाड़ी पहली पसंद थी। और हां, कार चलाने का तो अपना ही मजा होता था। जैसे मानो मेले की भीड़ से बचते-बचाते  कार खुद हम असल में चला रहे हों और एहसास भी पूरा वैसा ही होता था। कभी ऊंचा बड़े वाला झूला झूलने के बाद ऐसा जताते थे कि हम ने कोई किला फतह कर लिया हो। आखिर अगले दिन अपने दोस्तों को भी तो बताना होता था। बाद में घर के बड़े- बुज़ुर्गों के साथ कुश्ती और नगाड़ों का भरपूर आनंद लेना कितना उत्साहित करता था। हालांकि कुश्ती पर ज्यादा ध्यान तो पुरुषों का ही होता था, लेकिन साथ में हम सब भी कुश्ती का लुत्फ उठाते थे। और नगाड़ों को तो हम ढोल ही समझते थे, जिसकी धुन पर कभी-कभी तो थिरकने तक का दिल करता था। यह तो थोड़े और बड़े होकर पता चला कि उन्हें नगाड़े कहते हैं और मेलों का शुभारंभ इन्हीं नगाड़ों को बजाकर किया जाता है, जिन्हें बजाना बहुत शुभ भी माना गया है। फिर बारी आती थी कुछ खाने- पीने की।

हालांकि कई बार हमारे बड़े- बुज़ुर्ग, जो हमें मेले में लेकर आए होते थे, वे कहते थे कि मेले में खाया-पिया तो बीमार पड़ जाओगे, लेकिन हमारा मन कहां मानने वाला होता था। समय बदला और हम उम्र के अगले पड़ाव पर आ गए। जहां मेलों का स्वरूप बदल गया और हमारी पसंद भी बदल गई। जैसे-जैसे बड़े होते गए, धीरे-धीरे जीवन के तौर-तरीके बदलते गए। मेलों से लगाव तो आज भी बहुत ज्यादा है पर शायद अब जिंदगी की इस भागदौड़ में कहीं न कहीं वह बचपन वाला मेलों के प्रति प्यार शायद थोड़ा कम हो गया है, या यूं कहें अब हमारे पास शायद उतना समय नहीं होता, तो उस कारण मेलों के लिए हमारा लगाव थोड़ा कम हो गया है। खैर जो भी हो, लेकिन इतना जरूर है कि आज भी मेलों का नाम सुनकर कम से कम, कहीं न कहीं से बचपन वाली ख़ुशी जरूर आ जाती है। बेशक व्यस्तताएं कितनी भी हों, पर थोड़ा समय निकालकर कोशिश पूरी रहती है कि किसी तरह किसी न किसी मेले में पहुंचा जाए, वह भी सिर्फ इसलिए कि चाहे अब बचपन वाली मस्तियां भले ही न कर सकें, पर कम से कम मेले को निहारना ही बेहद जरूरी और अपनी खुशनसीबी समझते हैं। क्योंकि मेले न केवल मनोरंजन बल्कि  हमें हमारी संस्कृति का भी बोध करवाते हैं। हर मेले की वास्तविकता किसी न किसी घटना से जरूर जुड़ी होती है, जिससे हमें हमारी संस्कृति का ज्ञान होता है। मेले मनोरंजन ही नहीं करते, बल्कि हमें बहुत कुछ सिखा जाते हैं।


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