सांस्कृतिक मिट्टी की ‘सांझ’

By: Apr 29th, 2017 12:02 am

प्रयास की जिस बड़ी स्क्रीन पर हिमाचली फिल्म सांझ आई, उसमें कहानी से अलग एक विषय यह भी रहा कि प्रदेश के लोग कितनी शाबाशी देते हैं। फिल्म के साथ खड़ा पुरस्कार, इसकी पृष्ठभूमि, संगीत और फिल्मांकन में इतना कुछ तो रहा होगा कि अगर हिमाचली चाहते तो बिना विस्तृत प्रचार के अपने कला संसार को अहमियत देते। फिल्म से जुड़े लोगों की तड़प और सोशल मीडिया पर उनकी प्रतिक्रिया का मर्म जानें, तो यह स्पष्ट है कि प्रदेश की तरक्की के बीच सांस्कृतिक मिट्टी उदास है। हिमाचली फिल्मों का आगाज ‘दिव्य हिमाचल’ ने फुलमूं-रांझू से करीब दशक भर पहले किया और इस कड़ी में उपन्यास लाजो पर केंद्रित एक अन्य पहाड़ी फिल्म भी बनाई। सीडी के उस युग में फिल्मों ने समाज की सांस्कृतिक भूमिका की टोह ली और एक माहौल ऐसा भी बना कि कुछ फिल्मी कंपनियों ने प्रतिस्पर्धा के नाम पर भाषा और वेशभूषा से खिलवाड़ कर डाला। सांझ भी हमारे अपने सांस्कृतिक वजूद का आईना हो सकती है, बशर्ते ऐसे प्रयास को समर्थन दें। किसी भी क्षेत्रीय भाषा, संस्कृति, परंपराओं और पृष्ठभूमि की रखवाली के लिए ऐसी फिल्में अगर बनती हैं, तो दर्शक को समर्थक के रूप में सिनेमा हाल तक जाना होगा। हम यह नहीं जानते कि सांझ पर कितनी लागत आई या थियेटर तक पहुंचाने की जद्दोजहद में कितना खून-पसीना बहाना पड़ा, लेकिन यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि ऐसे प्रयास का पागलपन निजी तौर पर भारी पड़ता है। इसलिए जब ‘सांझ’ के माध्यम से निर्माता अपनी धरती पर खड़े हो रहे थे, तो ‘दिव्य हिमाचल’ ने इस प्रयास को एक्सीलेंस अवार्ड से नवाजा और यह हम सभी का दायित्व है कि प्रदेश में सृजनात्मक वातावरण बनाएं। विडंबना यह है कि हिमाचल का कला संसार भी एक टांग पर खड़ा है और सरकारी बैसाखियों में इतना दम नहीं कि सृजनात्मक दृष्टि से प्रोत्साहन नीतियां बनें। सांझ जैसी हिमाचली फिल्म से मनोरंजन कर हटाएं या ऐसी फिल्मों के निर्माण को आर्थिक मदद मिले, तो हमारे इर्द गिर्द भी एक हिलवुड तैयार होगा। यह सिने पर्यटन के लिहाज से भी समझा जाना चाहिए कि फिल्म शूटिंग के कारण हिमाचल की दृश्यावलियां मशहूर हुईं। आजकल स्टार प्लस पर दोपहर को आ रहे ‘अमला का क्या कसूर’ सीरियल धर्मशाला की पृष्ठभूमि को देश के घर-घर में पहुंचा रहा है, तो परोक्ष में इसका लाभ पर्यटन उद्योग को ही मिलेगा। सरकार ने सवा सौ कालेज खोलकर जो काम नहीं किया, वह एक फिल्म एवं टीवी संस्थान कर सकता है। गरली-परागपुर की बस्तियों में खड़ी अनेक हवेलियां फिल्म सिटी व संस्थान को आमंत्रित कर रही हैं, लेकिन सरकार इस क्षमता का अवलोकन ही नहीं कर पा रही। बेशक साहित्यकारों एवं लेखकों के साथ भाषा विभाग व अकादमी के रिश्ते बार-बार साबित होते हैं, लेकिन कलाकार की रेटिंग आज तक नहीं सुधरी। हिमाचली समारोहों और छिंज मेलों में सारा पैसा और सम्मान तो बाहरी कलाकार व पहलवान बटोर रहे हैं। ऐसे में समाज भी क्या कसूरवार नहीं, क्योंकि न किसी स्तरीय हिमाचली लेखक-साहित्यकार की रचना पढ़ी जा रही और न ही लोक गायक को समर्थन मिल रहा। महाराष्ट्र, गुजरात, प. बंगाल, बिहार या दक्षिण राज्यों में सामाजिक समर्थन से कलाकार और साहित्यकार बनता है। इसीलिए इन राज्यों में रंगमंच सुदृढ़ हुआ और भाषायी फिल्मों में राज्यों ने खुद को स्वीकार किया। पंजाबी गायन की वजह वे तालियां हैं, जो सामाजिक समर्थन से आती हैं और इसीलिए तमाम कलाकार राष्ट्रीय फलक पर चमक रहे हैं। विडंबना यह है कि हिमाचल में आज भी हम चंद कोस तक ही अपनी बोली की अस्मिता में हिमाचली भाषा का निर्माण नहीं कर पाए। हिमाचली भाषा एक तरह से ऐसी ही होगी जो ‘सांझ’ की अभिव्यक्ति कर पाई। वे तमाम गायक जो कुल्लू, शिमला, कांगड़ा या चंबा से निकले लोक गीतों से प्रदेश को जोड़ते हैं, वहां हिमाचली भाषा के सेतु विद्यमान हैं। हिमाचली भाषा का रूप-रंग और चेहरा, अपनी अभिव्यक्ति में श्रोता और समर्थक को जोड़ना है। यह सहज-स्वाभाविक भी हो सकता है, अगर राजनीति आड़े न आए। यह काम समाज का है कि वह पूरे हिमाचल को स्वीकार करते हुए, अपनी पहचान में संस्कृति, भाषा और कला का पुख्ता सबूत बने। कलाकार तो सच्चे मन से जुटा है और यही कार्य ‘सांझ’ के बहाने भी हुआ।


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