सामाजिक समरसता के नायक को नमन !

By: Apr 14th, 2017 12:02 am

( भावना शर्मा लेखिका, एचपीयू, शिमला में सहायक प्रोफेसर हैं )

जहां तक बाबा साहेब के आंदोलन का प्रश्न है, वह दलितों में चेतना जगाने में सफल रहे। वह दलितों के हिसाब से ही नहीं सोचते थे, बल्कि समाज के सभी शोषित वर्गों के लिए काम करना चाहते थे। उन्होंने सवर्णों में महिलाओं की स्थिति को लेकर भी चिंता जताई और केंद्रीय कानून मंत्री का पद भी छोड़ दिया था…

बाबा साहेब अंबेडकर ने अपने विचार और काम दोनों ही स्तरों पर भारतीय दलित समाज को जो योगदान दिया है, वैसा किसी और ने नहीं दिया है। भारत में दलित मुक्ति के आंदोलन में अंबेडकर जी का जो योगदान रहा है, वह विशेष महत्त्व रखता है। भीमराव रामजी अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को मध्य प्रदेश के महू में हुआ था। कठिन हालातों से जूझते हुए उन्होंने 1907 में बांबे विश्वविद्यालय से मैट्रिकुलेशन की परीक्षा पास की। 1906 में नौ वर्षीया रमाबाई से उनका विवाह हुआ। आगे की पढ़ाई एलीफिंस्टन कालेज से की। 1912 में राजनीतिक विज्ञान और अर्थशास्त्र में स्नातक होने के बाद उन्हें बड़ौदा में नौकरी मिल गई। 1913 में पिता के देहांत के बाद महाराजा गायकवाड़ ने उन्हें छात्रवृत्ति देकर आगे की पढ़ाई के लिए अमरीका भिजवाया। वहां बाबा साहेब ने कोलंबिया विश्वविद्यालय से एमए करने के बाद 1916 में पीएचडी की उपाधि प्राप्त कर ली। 1917 में बाबा साहेब बंबई गए और 31 जनवरी, 1920 को ‘मूकनायक’ नाम का एक पाक्षिक अखबार निकालना शुरू किया। इस दौरान उन्होंने बंबई के साईदेनहम कालेज ऑफ कामर्स एंड इकोनॉमिक्स में शिक्षण कार्य भी किया। लेकिन उच्च शिक्षा पाने की लालसा में वे वापस लंदन चले गए। लंदन से विज्ञान में डाक्टरेट और बेरिस्टरी की डिग्री हासिल कर वापस भारत लौटे और जुलाई, 1924 में ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की। अछूतों को सार्वजनिक तालाबों से पानी भरने का अधिकार दिलाने के लिए 1927 में बंबई के नजदीक कोलाबा और चौदार तालाब तक उन्होंने महाड़ पद यात्रा का नेतृत्व किया। 1929 में बाबा साहेब ने साइमन कमीशन का समर्थन करने जैसा विवादास्पद फैसला किया। कांग्रेस ने साइमन कमीशन का बहिष्कार कर संविधान का एक अलग ड्राफ्ट तैयार किया था, जिसमें शोषित वर्गों के लिए उनके कल्याण के प्रावधान नहीं होने के कारण ही बाबा साहेब को उनके प्रति संदेह पैदा हो गया था। 24 दिसंबर, 1932 को अंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच पूना पैक्ट हुआ। इस पैक्ट में अलग निर्वाचक मंडल के स्थान पर प्रांतों की विधानसभाओं और लोकसभा में आरक्षित सीटों का विशेष प्रावधान किया गया। अंबेडकर ने लंदन में हुए तीनों गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया और अछूतों के कल्याण की निरंतर मांग करते रहे।

1947 में भारत के आजाद होने के बाद वे बंगाल से संविधान सभा के लिए सदस्य चुने गए और जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में कानून मंत्री बनाया। 1952 के लोकसभा चुनावों में स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में वह चुनाव हार गए। लेकिन मृत्यु तक वह राज्यसभा के सदस्य बने रहे। 1916 में शोध निबंध ‘दि इवोल्यूशन ऑफ ब्रिटिश फिनांश इन इंडिया’ नाम से बाबा साहेब की एक पुस्तक प्रकाशित हुई। इसके पहले ‘कास्ट इन इंडिया-देयर मेकेनिज्म, जेनेसिस एंड डिवेलपमेंट इन इंडिया’ नामक पुस्तक प्रकाशित हो गई थी। 1941 से 1945 के बीच कई विवादास्पद किताबें और पर्चे प्रकाशित हुए। इनमें ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ एक है, जिसमें बाबा साहेब ने मुस्लिम लीग के रवैये की आलोचना की थी। बाबा साहेब को मरणोपरांत 1990 में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ दिया गया।  बहिष्कृत हितकारिणी सभा के माध्यम से उन्होंने दलितों को संगठित करने की कोशिश की। दलित समुदाय को समझाने की कोशिश की कि जब तक अस्पृश्यता है, तब तक पिछड़ेपन के दंश से उबर नहीं सकते। दलितों की आवाज को प्रचारित करने के लिए ही उन्होंने ‘मूकनायक’, ‘समता’, ‘जनता’ और ‘बहिष्कृत भारत’ जैसे अखबार निकाले। बाबा साहेब के काम का दूसरा पक्ष यह रहा कि वे दलितों की हीन भावना को दूर करने में काफी हद तक कामयाब रहे। दलित और शोषित समुदायों के लिए उन्होंने संविधान में अनेक बातों को शामिल किया। पर उनकी चिंता यह थी कि ये बातें सही ढंग से लागू नहीं होंगी, तो इनका लाभ अंतिम व्यक्ति तक नहीं पहुंच पाएगा। अगर इस दिशा में पूरी सफलता नहीं मिली है, तो इसकी वजह कानून नहीं है, बल्कि उस कानून को लागू करवाने वाले लोग हैं। दरअसल बाबा साहेब समझते थे कि भारत के लोग धार्मिक और संवेदनशील हैं, इसीलिए उनकी कोशिश थी कि लोगों पर संवैधानिक प्रावधान जबरदस्ती न थोपे जाएं, बल्कि लोग इसे स्वयं स्वीकार करें। जहां तक उनके आंदोलन का प्रश्न है, बाबा साहेब दलितों में चेतना जगाने में सफल रहे। वह दलितों के हिसाब से ही नहीं सोचते थे, बल्कि समाज के सभी शोषित वर्गों के लिए काम करना चाहते थे। उन्होंने सवर्णों में महिलाओं की स्थिति को लेकर भी चिंता जताई और केंद्रीय कानून मंत्री का पद भी छोड़ दिया था। बाबा साहेब की मृत्यु के बाद उनके समर्थक लोग या तो राजनीतिक चालों के शिकार हो गए या फिर राजकीय प्रलोभनों में पड़ गए और कोई भी नेता उनके कद का दलित आंदोलन खड़ा नहीं कर सका। अंबेडकर के बाद जिस तरह से दलित आंदोलन पनपना चाहिए था, वह नहीं हो सका। अंदरूनी कलह, जलन और राजनीतिक घातों के चलते दलित आंदोलन बिखरता चला गया। आज दलित समाज के कल्याण के लिए उस आंदोलन को नया जीवन देने की जरूरत महसूस हो रही है।


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