सिकुड़ न जाए मदद अनुपात

By: Apr 25th, 2017 12:05 am

केंद्रीय नीतियों के भरोसे हिमाचली उत्थान की श्रेष्ठ कहानी भी अपने सारांश में निपुण नहीं है, इसलिए कमोबेश हर सरकार की शिकायतें आर्थिक अधिक रही हैं। दिल्ली में नीति आयोग की बैठक में हिमाचल का पक्ष विशुद्ध आर्थिक रहा और केंद्रीय मदद के घटते अनुपात में प्रदेश के अधिकारों की पैरवी भी। केंद्रीय कार्यक्रमों व योजनाओं में धन आबंटन में आई कमी के भी सियासी मापदंड हो सकते हैं, लेकिन जब-जब जिरह बदलीं  हिमाचल के पर्वतीय आवरण को चोट लगी। पर्वतीय राज्यों के विशेष दर्जे पर बड़े राज्यों की घाघ दृष्टि रही और सियासत की घुटन में घटते रहे मदद के फार्मूले। नीति आयोग की संरचना के फायदों में क्यों तड़प रहा हिमाचल और आर्थिक शिकायतों में मुख्यमंत्री की दलीलों को समझने की जरूरत इसलिए भी है, क्योंकि बजटीय प्रावधानों में दुरूहता का दर्द जब बेजुबान होता है तो नंगे पहाड़ों की आबरू लुट जाती है। बाढ़ प्रबंधन, सिंचाई या पेयजल योजनाओं में आगे बढ़ने की रफ्तार पहाड़ में कठिन व धीमी है और अगर निरंतरता के खिलाफ, केंद्रीय मदद का अनुपात सिकुड़ जाए तो पहाड़ की चोटियां भी पिघल जाएंगी। देश में देश को समझना अलग बात है, लेकिन हर प्रदेश को समझना कठिन है। खास तौर पर जहां लोकतंत्र ही वोट तंत्र हो, वहां आधार और आकार बड़े सूबों का ही पहले आएगा, भले ही केंद्रीय योजनाओं के सफल कार्यान्वयन में छोटी इकाई साबित हुए राज्यों  ने बढ़त हासिल की हो। मुख्यमंत्री का दर्द भी यही रहा कि जिस तरह योजनाएं पहले अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में केंद्र की उदारता का सही पैमाना बनती थीं, उस पैमाइश में नीति आयोग को हिमाचल जैसे राज्य को नजदीक से देखना होगा। राष्ट्रीय रफ्तार से भिन्न प्रदेश की खेती या घर का चूल्हा कैसे जल पाएगा। पर्वतीय राज्यों में राष्ट्रीय परियोजनाओं की पहचान को और पुष्ट करने के हिसाब से देखेंगे, तो वर्तमान कटौतियां घातक हैं। बेशक बाढ़ की त्रासदी में बिहार-यूपी की चीखें राष्ट्रीय संवेदना को पिघला देती हैं, लेकिन यहां तो छोटी सी कूहल भी उफन कर खेत को निगल सकती है या बादल का एक कतरा भी फले, तो जमीन नाले में बदल जाती है। हिमाचल को तो हर मौसम तोड़ता है। पकी फसल, बागीचे में उगते फूल, बनते फल या सब्जी के खेत में मौसम की करवटें सदा से विनाशकारी रही हैं। पहाड़ को अपने उत्पादन की ढुलाई या आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई पर सारी आर्थिकी को प्रतिकूलता में चलाना पड़ता है। विकास के श्रम और मानदंडों  की लागत में मैदानों से कहीं अधिक संसाधन खपाने पड़ते हैं। पर्वत के जोखिम से जिस कद्र केंद्र को रू-ब-रू होना चाहिए, उसकी अर्जियां अभी भी लिखी जा रही हैं। ऐसे में शिमला के रिज पर पुनः राज्य की मुलाकात, देश के प्रधानमंत्री से जब होगी, तो सारी शृंखलाएं एकत्रित होकर बहुत कुछ  कह सकती हैं। ये रिश्ते पर्वत को समझने और उसे दिल के करीब रखने के हैं। नीति आयोग की परिभाषा में प्रधानमंत्री ने स्वयं इस देश की तस्वीर में जो मोती भरने हैं, उनसे कोई एक छोटा सा भी हिमाचल को मिल जाए, तो मोदी रैली के आलेख बदलेंगे। जिस तरह अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने औद्योगिक पैकेज की माला पहनाकर हिमाचल को आत्मनिर्भर बनाने की डगर बताई, उसी तरह एक कनेक्टिविटी पैकेज की जबरदस्त जरूरत है, ताकि बाधाओं से आगे ट्रेन बढ़े और लेह तक पहुंच जाए। सड़कों को नितिन गडकरी ने पहले ही हिमाचल की नई आर्थिकी के उद्घोष से जोड़ दिया है और अगर उड़ान के मार्फत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रदेश के पर्यटन को सहारा दें या हवाई अड्डों के विस्तार पर निगाह डालें, तो अभिलाषा की इस उड़ान के भी वही संचालक होंगे।


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