हावी हो गई है रेवड़ी बांटने की मानसिकता

By: Apr 3rd, 2017 12:05 am

हाल ही में संसद में हिमाचल प्रदेश की शिमला संसदीय क्षेत्र से सांसद वीरेंद्र कश्यप के प्रदेश के जातीय तथा निचले भूभागों में बोली जाने वाली बोलियों के लुप्त हो जाने पर चिंता जताई। इन बोलियों में किन्नौरी जनजातीय क्षेत्रों, लाहुल-स्पीति आदि अनेक स्थानों की जनभाषाएं हैं, जो लुप्त होने के कगार पर हैं। हालांकि प्रदेश में भाषा, कला एवं संस्कृति के संरक्षण के लिए बाकायदा एक विभाग और एक अकादमी भी मौजूद है। इस विभाग और अकादमी को प्रदेश की भाषा, कला एवं संस्कृति को न केवल बचाने का दायित्व सौंपा गया है अपितु इन संकायों के संवर्द्धन का भी जिम्मा संभाला गया है। इन दोनों ही संस्थाओं पर कर्मचारियों, अधिकारियों के वेतन- भत्ते आदि पर हर साल सरकारी खजाने का कारोड़ों रुपया खर्च होता है। इस विभाग और अकादमी की कार्यप्रणाली पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं। खासकर इन दोनों संस्थाओं पर काबिज चंद लोगों के वर्चस्व को लेकर। हाल ही में अकादमी की कार्यप्रणाली और पुरस्कार की राजनीति पर अनेक साहित्यकारों, कलाकारों तथा आमजन ने सोशल मीडिया पर आपत्तियां दर्ज कीं। कुछेक प्रश्न हैं, जा ेशायद ही कभी उत्तर पा सकें, वर्तमान तो यही कहता है।

इन प्रश्नों में सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि भाषा, कला एवं संस्कृति के संरचण एवं संवर्द्धन के लिए विभाग एवं अकादमी की क्या भूमिका रही है? जनभाषाओं के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए विभाग में पदों का सृजन करने की व्यवस्था मौजूद है, लेकिन इन जनपदीय भाषाओं/बोलियों/उप बोलियों के लिपिबद्ध करने के सीमित प्रयास के औपचारिक काम के अलावा जमीनी स्तर पर कोई उल्लेखनीय काम हुआ हो, लगता नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण इस विभाग और अकादमी की मूल संकल्पना के विरुद्ध उदासीनता रहा है। राजनीतिक व व्यक्तिगत संबंधों के चलते विभाग और अकादमी में नियमों-सिद्धांतों को दरकिनार कर जिस तरह से कुर्सी की दौड़ चल रही है, वह निश्चय ही इन दोनों संकायों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। हाल ही में अकादमी की पुस्तक खरीद योजना पुरस्कारों हेतु चयन समिति के नियमों आदि में किए गए बदलावों ने  साहित्यकारों के अधिकारों पर कुठाराघात किया है, वह निंदनीय तो है ही यह भी स्पष्ट करता है कि जिन लोगों ने हिमाचल के हिंदी अथवा स्थानीय बोलियों में रचे जा रहे साहित्य को ऊंचाइयों तक पहुंचाया, उनके अधिकार पर चाटुकारिता भारी पड़ गई। चहेते लोगों को पुरस्कार देने के लिए नियमों में किया गया बदलाव तथा कला के क्षेत्र में शिखर पर पहुंचे लोगों के बदले राष्ट्रीय स्तर की अकादमी में नामित न कर कला पारखियों का भी भरोसा तोड़ा है।

विभाग में नए-नए पदों के सृजन पर जोर दिया जा रहा है। लेकिन मेरी जानकारी में भाषा विभाग की एकमात्र पत्रिका ‘विपाशा’ में अभी तक स्थायी संपादक तक का पद अभी भरा नहीं जा सकता है। ऐसा ही खेल अकादमी में चल रहा है। स्वतंत्र चिंतन व स्वतंत्र लेखन के क्षेत्र से जुड़े लोग हमेशा ही राजनीति के शिकार रहे हैं। खेमे वालों ने प्रदेश की राजनीति का हमेशा फायदा उठाया है। यह कुछ ऐसा ही है जैसे किसी आढ़ती को किसानों या बागबानों की किसी समिति का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया जाए, जिन्होंने कभी दो पंक्तियां नहीं लिखी या इधर-उधर से जुटाई सामग्री को अपने नाम से छाप दिया शीर्षक बदल कर। एक ही कहानी कविता या फीचर को कई-कई बार कई-कई पत्रिकाओं आदि में छपवा दिया, राजनीतिक पहुंच के होते शीर्षस्थ बने रहे। ऐसे भी लोग हैं, जब वे अध्यक्ष या विशिष्ट अतिथि बनकर किसी समारोह में भाषण देने खड़े होते हैं, तो उनके भाषण की अगली पंक्ति सुनने वाला पहले बोल देता है, इसे क्या कहेंगे? अब प्रश्न यह उठता कि विभाग अथवा अकादमी हिंदी-पहाड़ी, उर्दू साहित्य, लोक संस्कृति और लोक भाषा को लेकर कितने लोगों को जोड़ पाई?  इसमें संदेह नहीं कि क्षेत्रीय स्तर के अधिकारी या कर्मचारी वर्ग में जमीनी स्तर पर काम किया। लेकिन विभाग के उच्च पदस्थ कई अधिकारियों की अनेदखी ने उनके काम को शायद वह पहचान नहीं दी जो उन्हें मिलनी चाहिए थी। ऐसे समारोह भी हुए, जिसमें कुछ अधिकारी स्वयं ही मुख्यातिथि बन कर शाल टोपियां बटोरते रहे। साहित्य के नाम पर बनी अपनी ही संस्थाओं (एनजीओ) का महिमा मंडन करते रहे। वरिष्ठ एवं सक्रिय साहित्यकारों, कलाकारों की उपेक्षा तो आम बात हो गई है। प्रश्न यह भी कि पुरस्कार की यह राजनीति तथा कला संस्थाओं में राजनीतिक आधार पर नामित करने की परंपरा प्रदेश की कला, भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के संरक्षण संवर्द्धन में कितनी सहायक सिद्ध होगी?

-अपने प्रसिद्ध नाटक ‘दहलीज रोती है’ के लिए आकाशवाणी द्वारा प्रथम पुरस्कार  से नवाजे गए  अरुण भारती कथाकार और कवि हैं।


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