हिमाचल की आदिम जाति माने जाते हैं कुलिंद

By: Apr 26th, 2017 12:05 am

कुनिंदों के साहित्यिक और पुरातात्विक संदर्भों में स्पष्ट हो जाता है कि हिमाचल क्षेत्र की आदिम जाति रही है। महाभारत काल से लेकर तो इनका लगातार नाम और संदर्भ आता है, वैदिक युग में भी उन्होंने दस्यु के नाम से आर्यों के साथ संघर्ष किया है…

गणराज्य व्यवस्था

कुछ विद्वान वृक्ष को बोधिवृक्ष समझ कर कुनिंदों को बौद्ध धर्म का अनुयायी मानते हैं। कुछ अन्य विद्वान इसे देवदारू वृक्ष मानकर इन्हें पहाड़ों के गणराज्य के सिद्धांत को समर्थित करते हैं। जेएन बैनर्जी ऋग्वेद के श्रीसूक्त का संदर्भ देते हुए मृग को लक्ष्मी का पशुरूपी चिन्ह मानते हैं। कुनिंदों के साहित्यिक और पुरातात्विक संदर्भों में स्पष्ट हो जाता है कि हिमाचल क्षेत्र की आदिम जाति रही है। महाभारत काल से लेकर तो इनका लगातार नाम और संदर्भ आता है, वैदिक युग में भी उन्होंने दस्यु के नाम से आर्यों के साथ संघर्ष किया है। कांगड़ा, मंडी, कुल्लू, शिमला और  सिरमौर आदि उनके प्राचीन क्षेत्र रहे हैं। सहारनपुर, अंबाला, होशियारपुर और पठानकोट (आदिकालीन प्रतिष्ठान) इस क्षेत्र के लिए व्यापार के मुख्य द्वार अथवा केंद्र रहे हैं और इन क्षेत्रों में उनके अधिक सिक्के मिलने का मुख्य कारण यही है कि व्यापारी उन्हें इन प्रमुख व्यापारिक केंद्रों तक सामान के  क्रय-विक्रय के लिए ले जाते रहे हैं। कुनिंदों के तांबे और चांदी दोनों धातुओं  के सिक्के उपलब्ध हुए हैं और विद्वानों का मत है कि कुनिंदों  ने अपने राज्य में आपसी लेन-देन के लिए तो तांबे के सिक्के चलाए थे, परंतु ब्राह्नी और खरोष्ठी लिपियों में अंकित लेखों सहित चांदी के सिक्के  हेमीदिरम (यूनान की चांदी की मुद्राएं) की भांति अपने क्षेत्र में व्यापार के लिए मुद्रित किए गए थे। सिक्कों के आकार-प्रकार से यह भी स्पष्ट होता है कि अमोघभूति अंकित सिक्के एक लंबे समय के दौरान एक से अधिक शासकों द्वारा जारी किए गए हैं और इस कारण विद्वानों का मत है कि अमोघभूति  किसी एक शासक का नाम न होकर कुनिंद जनपद की प्रशासनिक उपाधि रही है। कुनिंदों के ऊपर कथित दोनों श्रेणियों के सिक्कों में विशेष प्रकार की समानता लक्षित होती है। हालांकि कुछ सिक्कों में सामान्य लेख और चिन्हों के अतिरिक्त कुछ  अन्य चिन्ह भी देखने में आते हैं।  इनमें एक सर्प जैसी आकृति भी है, जिसे कुछ विद्वान  श्रीवत्स का नाम देते हैं और कुछ अन्य इसे नाग समझते हैं। इसी तरह एक पहाड़ का दृश्य है जिसे कुछ विद्वान बौद्धधर्म का चैत्य चिन्ह मानते हैं। इसी तरह इंद्रध्वज या जयध्वज को कुछ विद्वान बोधिवृक्ष और कुछ देवदार वृक्ष की संज्ञा देते हैं। चैत्य चिन्ह और बोधि वृक्ष के समर्थक कुनिंदों को बौद्ध धर्म का अनुयायी मानते हैं और इन सिक्कों को उस काल का मानते हैं, जब बौद्ध धर्म के आरंभिक युग में भगवान बुद्ध की पूजा और उपासना की प्रथा शुरू नहीं हुई थी तथा चैत्य, बोधि वृक्ष और हिरण आदि प्रतीकों का प्रयोग होता था। परंतु मुद्राओं  के सहायक चिन्हों से कुनिंदोंं  को बौद्ध धर्म का अनुयायी मानना अधिक उचित नहीं है।


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