अच्‍छे प्रयोजन का पशुपालन

By: May 17th, 2017 12:08 am

ग्रामीण इलाकों में भी  रोजगार के कई ऐसे क्षेत्र हैं, जिन्हें अपनाकर बेरोजगारी के जाल से निकला जा सकता है। पशुपालन ऐसा ही एक क्षेत्र है, जिसे आज शहरों के पढ़े-लिखे बेरोजगार युवक भी अपनाकर मोटी कमाई कर रहे हैं…

cereerबेरोजगारी देश की एक बड़ी समस्या है और बेरोजगारी के जाल में ग्रामीण युवक कुछ ज्यादा ही उलझे हुए हैं। सीमित संसाधन और रोजगारोन्मुखी शिक्षा के अभाव में उनके पास रोजगार के सीमित विकल्प ही होते हैं। लेकिन ग्रामीण इलाकों में भी रोजगार के कई ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें अपनाकर बेरोजगारी के जाल से निकला जा सकता है। पशुपालन एक ऐसा ही  क्षेत्र है, जिसे आज शहरों के पढ़े-लिखे बेरोजगार युवक भी अपना कर मोटी कमाई कर रहे हैं। पहले पशुपालन को ग्रामीण क्षेत्र का व्यवसाय ही माना जाता था, पर आज इस व्यवसाय को शहर के रहने वाले लोग भी अपना रहे हैं। गांवों के साथ-साथ अब पशुपालन का व्यवसाय शहरों में भी बड़े पैमाने पर अपने पांव पसार रहा है। पशुपालन में केवल गाय-भैंस पालना ही नहीं है, बल्कि इसका कार्यक्षेत्र अब बहुत ही विस्तृत हो गया है। मुर्गीपालन और यहां तक कि मत्स्य पालन भी पशुपालन के ही दायरे में आते हैं। इस  क्षेत्र की खास विशेषता यह है कि इसमें कम लागत में भी काम शुरू कर के बड़े स्तर का कारोबार खड़ा किया जा सकता है। स्वरोजगार का तो यह बड़ा क्षेत्र माना जाता है। युवा इस क्षेत्र को चुनकर अपना भविष्य संवार सकते हैं।

परिभाषा

पशुपालन कृषि विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अंतर्गत पालतू  पशुओं के विभिन्न पक्षों जैसे भोजन, आश्रय, स्वास्थ्य और प्रजनन आदि का अध्ययन किया जाता है। पशुपालन का पठन-पाठन विश्व  के विभिन्न विश्वविद्यालयों में  एक  महत्त्वपूर्ण विषय के रूप में  किया जा रहा है।

क्यों अपनाएं यह कैरियर

दरअसल पशुपालन के व्यवसाय के तौर पर उभरने के कई कारण हैं। लोगों में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता आने से आज सिर्फ  शहरी क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि ग्रामीण इलाकों में भी दुग्ध उत्पादों की मांग बढ़ी है। तेजी से आगे बढ़ रहे इस कारोबार को ऊपर उठाने की एक वजह दुग्ध उत्पादों की कीमतों का बढ़ना है। इसके अलावा इस धंधे में तरक्की की काफी संभावनाएं हैं। प्राकृतिक आपदा छोड़कर इस कारोबार को हमेशा फायदा ही मिलता है।

स्वरोजगार का साधन

पशुपालन सभ्यता के विकास के साथ ही शुरू हो गया था। ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह शुरू से ही कृषि का पूरक रहा है, लेकिन आज यह एक अलग व्यवसाय का रूप ले चुका है और इसे न सिर्फ  ग्रामीण क्षेत्रों में बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी बेहतर कारोबार के तौर पर अपनाया जा रहा है। पशुपालन विकसित होने से लोगों की जहां कृषि पर निर्भरता घटी है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारों को स्वरोजगार का एक बेहतर विकल्प मिला है।

प्रशिक्षण और नई तकनीक

पशुपालन को फायदेमंद बनाने के लिए वैज्ञानिकों ने भी कई तरीके ईजाद किए हैं। आज पारंपरिक पशुओं के बजाय उन्नत प्रजाति के पशु पाले जा रहे हैं। यह पारंपरिक पशुओं के मुकाबले काफी ज्यादा दूध देते हैं। आजकल पशुओं की प्रजातियों से लेकर उनके लिए रेडीमेड आहार तक सब वैज्ञानिक पद्धति के जरिए तैयार किए जाते हैं। इस व्यवसाय के लिए प्रशिक्षण बहुत जरूरी है।

वेतनमान

इस क्षेत्र में आरंभिक आय निजी व सरकारी संस्थानों में अलग-अलग है। आमतौर पर यह 25 हजार से 30 हजार तक होती है। निजी क्षेत्र में वेतनमान योग्यता और अनुभव के आधार पर बढ़ता है।

अवसर कहां-कहां

रोजगार के लिहाज से पशुपालन का दायरा बहुत ही विस्तृत है। पशुपालन विभाग, रिमाउंट वैटरिनरी कोर(सेना), पैरा मिलिट्री फोर्सेस, फार्मास्यूटिकल कंपनीज, डेयरी एंड मीट इंडस्ट्री,पेंटरी इंडस्ट्री, विश्वविद्यालय में शोध और अध्यापन आदि क्षेत्रों में रोजगार की अपार संभावनाएं हैं। स्वरोजगार अपनाकर भी इस क्षेत्र में अच्छी आमदनी अर्जित की जा सकती है।

शैक्षणिक योग्यता

दस जमा दो में साइंस संकाय (मेडिकल) के साथ 50 प्रतिशत अंक होना अनिवार्य है। उसके बाद पशुपालन में उच्च डिग्रियां हासिल की जा सकती हैं।

प्रमुख शिक्षण संस्थान

 कृषि  विश्वविद्यालय पालमपुर, हिमाचल प्रदेश

 गुरु अंगददेव वैटरिनरी एंड एनिमल साइंस यूनिवर्सिटी, लुधियाना (पंजाब)

 शेर-ए-कश्मीर एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, जम्मू-कश्मीर

 गोविंद बल्लभ पंत एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, पंतनगर(उत्तराखंड)

 राजस्थान एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, बीकानेर (राजस्थान)

 लाला लाजपत राय वैटरिनरी एंड एनिमल साइंस  यूनिवर्सिटी, हिसार(हरियाणा)

 तमिलनाडु वैटरिनरी एंड फिशरीज यूनिवर्सिटी

हिमाचल में पशुपालन

हिमाचल प्रदेश में पशुपालन दो रूपों में महत्त्वपूर्ण है। यह इस पहाड़ी अंचल की भूमि संबंधी आर्थिक व्यवस्था का मूल आधार है। पहाड़ों की ऊंचाइयों में तथा पहाड़ों से घिरे छोटे गांवों में बसने वाले लोगों के लिए पशुपालन अधिक आय का भी साधन है। किन्नौर, लाहुल-स्पीति, पांगी, भरमौर,भंगाल और उनके साथ लगे क्षेत्रों में चरवाहे, गद्दी और गुज्जर लोग पशुपालन से जीवन निर्वाह करते हैं। भेड़-बकरियों के ऊन से तथा घोड़े-खच्चरों पर दुर्गम स्थानों में माल पहुंचाकर ये लोग अपना गुजारा करते हैं। बढ़ती जनसंख्या के कारण अधिक कृषि भूमि पर खेती होने लगी है। गांव के समीप चरागाहें कम होती जा रही हैं। इसलिए इन ऊंच-ऊंचे पहाड़ों से उतर कर चरवाहे, ग्वाले अपनी भेड़ें, गउएं और भैंसें लेकर शीतकाल प्रारंभ होने पर निचली भूमि की चरागाहों और जंगलों की ओर चल पड़ते हैं तथा गर्मी शुरू होने पर वे वापस अपने गांव चले आते हैं। इन चरवाहों की परंपरागत चरागाहों को थाच, धार या गोट कहते हैं। ये चरागाह विभिन्न ऊंचाइयों पर हिमाचल के इन पहाड़ों और वनों में 2700 मीटर की ऊंचाई से ऊपर मिलती हैं। काफी समय से प्रदेश में भेड़-बकरी की संख्या में अधिक बढ़ोतरी नहीं हुई है।

आर्थिकी की रीढ़

भारतीय अर्थव्यवस्था में पशुपालन का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि एवं पशुपालन पर निर्भर है।  इसमें 30 प्रतिशत कृषक खेतीबाड़ी व्यवसाय व 70 प्रतिशत कृषक पशुपालन व्यवसाय से जुड़े हैं, जिनके पास कुल पशुधन का 80 प्रतिशत भाग मौजूद है। भारत 121.8 मिलियन टन दुग्ध उत्पादन के साथ विश्व में प्रथम, अंडा उत्पादन में 53200 करोड़ के साथ विश्व में तृतीय तथा मांस उत्पादन में सातवें स्थान पर है। यही कारण है कि कृषि क्षेत्र में जहां हम मात्र 1.2 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर प्राप्त कर रहे हैं, वहीं पशुपालन से यह वृद्धि दर 4.5 प्रतिशत है।

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