अब की बार, औरतों को अधिकार

By: May 19th, 2017 12:01 am

3 तलाक पर संविधान पीठ ने कुछ संकेत दिए हैं कि इस कुरीति में सुधार जरूरी हैं। फैसला क्या होगा,अभी मुकम्मल तौर पर नहीं कहा जा सकता,लेकिन संविधान पीठ ने एक सुझाव के तौर पर कहा है कि 3 तलाक में मुस्लिम औरतों को विकल्प का अधिकार दिया जाना चाहिए। निकाहनामे में ही यह प्रावधान भी जोड़ देना चाहिए कि औरत 3 तलाक से इनकार कर सकती है। न्यायिक पीठ ने यह भी पूछा है कि क्या सभी काजियों से निकाह के वक्त इस शर्त को शामिल करने का प्रस्ताव पारित किया जा सकता है? इसी संदर्भ में दारुल उलूम देवबंद ने फतवा जारी कर कहा है कि कोई भी शौहर तीन तलाक अपनी पत्नी की मर्जी के बगैर नहीं दे सकता। ये संकेत कानून का रूप धारण कर सकेंगे या नहीं, लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के वकील कपिल सिब्बल ने आशंका जताई है कि ऐसे फैसले पर मुसलमानों में उल्टी प्रतिक्रिया भी हो सकती है। यानी वे पलटवार पर उतारू होते हुए हिंसक भी हो सकते हैं। मुसलमानों को लगेगा कि उनका कुछ छीना जा रहा है। सिब्बल की यह आशंका दूसरे मायनों में धमकी और ब्लैकमेल है। वह संविधान पीठ को सचेत कर रहे हैं कि 3 तलाक पर कोर्ट, संविधान या सरकार कोई संशोधन करने का दुस्साहस न करें। सिब्बल पर्सनल लॉ का पक्ष रखते हुए 3 तलाक को भी इस्लामी आस्था मान रहे हैं, जबकि जीनत शौकत अली और रहमानी सरीखे इस्लाम के कई जानकार 3 तलाक को एक गुनाह और इस्लामी बर्बरता करार देते हैं। 3 तलाक को पवित्र कुरान का हिस्सा भी नहीं मानते हैं, लेकिन मुस्लिम मौलवी और मुफ्ती 1400 साल पुरानी कुप्रथा पर अब भी गुर्रा रहे हैं। वे संविधान पीठ का फैसला मानने तक को तैयार नहीं हैं। वे 3 तलाक को संविधान का हिस्सा तक नहीं मानते और न ही अनुच्छेद 13 की परिधि में रखने को सहमत हैं। यह भी हास्यास्पद और विडंबनापूर्ण है कि कपिल सिब्बल ने 3 तलाक की आस्था को भगवान राम के प्रति हिंदुओं की आस्था के समान रखा है। भगवान राम या हिंदू प्रथाओं से 3 तलाक की तुलना कैसे की जा सकती है? सिब्बल ने तो यहां तक दलील दी है कि संविधान पीठ को 3 तलाक सरीखे मुद्दों को सुनना ही नहीं चाहिए, क्योंकि ये मजहबी परंपरा है, धर्म का ही हिस्सा है। बहरहाल भगवान राम के साथ तुलना तो एक फूहड़ और घिनौना विचार है। अलबत्ता प्रधान न्यायाधीश जस्टिस  खेहर ने साफ  किया है कि 1957 के एक्ट के तहत सरकार के दायित्व और कार्य तय हैं। पहले हिंदुओं में बहुविवाह प्रथा थी, जो खत्म की गई। हिंदुओं में तलाक का कानूनी प्रावधान भी तय किया गया। पर्सनल लॉ शरीयत कानून 1937 पर आधारित है। उसकी धारा 2 के तहत कानूनी तरीके से तलाक का प्रावधान है। फिर आप कोर्ट में तलाक लेने क्यों नहीं जा सकते? जस्टिस नरीमन का कहना था-3 तलाक संविधान में संरक्षित नहीं है, लेकिन यह एक प्रथा है और इसपर कोर्ट सुनवाई कर सकती है। भारत सरकार के एटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने यकीन दिलाया है कि यदि कोर्ट 3 तलाक को खत्म करती है, तो सरकार कानून लाएगी, लेकिन संसद में क्या होगा,उसकी गारंटी नहीं दी जा सकती। उन्होंने यह भी कहा है कि 3 तलाक वैकल्पिक हिस्सा है, जो धर्म का अभिन्न हिस्सा नहीं है। लिहाजा यह अनुच्छेद 25 की परिधि में आएगा। बहरहाल संविधान पीठ के आखिरी फैसले तक हमें इंतजार करना पड़ेगा,लेकिन इसे बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक का रंग देना बिलकुल सियासत है। सिब्बल कोर्ट में भी कांग्रेस की राजनीति करते लग रहे हैं। वह मुसलमानों के वोट बैंक को नए सिरे से लामबंद करना चाहते हैं। सवाल यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची औरतें भी मुस्लिम हैं और इस देश की बराबर की नागरिक हैं। यह मुस्लिम औरत के अधिकार का मुद्दा है। हिंदू कानूनों में भी बहुत सी कुरीतियां थीं। मसलन-सती प्रथा, देवदासी, छुआछूत आदि। कोई भी परंपरा या रूढि़ संविधान के  सिद्धांतों के खिलाफ नहीं हो सकती, लिहाजा संविधान पीठ का निर्णय मान्य होना चाहिए। संविधान के सामने किसी की भी कोई हैसियत नहीं है। चाहे वह हिंदू, मुसलमान या किसी भी धर्म, समुदाय से हो। धर्मनिरपेक्ष देश, लिहाजा मजहब से नहीं,कानून से चलता है। देश में एक ही कानून होना चाहिए,जो संविधान के जरिए,संसद तय करेगी। यह दुष्प्रचार नहीं करना चाहिए कि इस देश में मुसलमान ‘चिडि़या’ हैं और कोई ‘गिद्ध’ उसे खाने को निगाहें गड़ाए बैठा है।।

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