एकल शासन के नियंत्रण को चाहिए राष्ट्रपति प्रणाली

By: May 31st, 2017 12:05 am

भानु धमीजा

सीएमडी, ‘दिव्य हिमाचल’

लेखक, चर्चित किताब ‘व्हाई इंडिया नीड्ज दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ के रचनाकार हैं

इसके अतिरिक्त, वास्तविक  नियंत्रण एवं संतुलन केवल तभी संभव हैं जब शक्तियां सरकार के विभिन्न केंद्रों में बांट दी जाएं। शक्ति का एकल केंद्र होने से असली नियंत्रण बेमतलब हो जाते हैं। भारत में निर्णयों पर सवाल उठाने या उनकी सार्वजनिक जांच के लिए कोई स्वतंत्र शक्ति केंद्र ही नहीं है। भारत की कई सबसे ऐतिहासिक भूलों के पीछे यह अकेला सबसे बड़ा कारण रहा है। नेहरू की कश्मीर व चीन संबंधी नीतियों को लागू करने से पहले उन पर संसद या किसी अन्य सार्वजनिक मंच पर न कभी बहस हुई न ही सवाल उठाए गए…

एक बार फिर भारत एक-पार्टी और एक-व्यक्ति के शासन की ओर बढ़ रहा है। बीजेपी नई कांग्रेस बन गई  है और नरेंद्र मोदी हमारे नए जवाहरलाल नेहरू। कांग्रेस के शिखर के समय की ही तरह भाजपा अब राष्ट्रव्यापी पार्टी है और केंद्र सहित 17 राज्य सरकारों पर नियंत्रण बना चुकी है। और जैसा कि नेहरू के साथ था, मोदी पार्टी के भीतर सुप्रीम हैं व जनता में उनकी लोकप्रियता का कोई सानी नहीं है। भारत ने यही स्थितियां इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के समय में भी देखी हैं। उस समय भी देश के सभी बड़े निर्णय एक ही व्यक्ति द्वारा लिए जाते थे। और हर समय में कई अहम निर्णय गलत होते रहे हैं। भारत को एक व्यक्ति की सूझबूझ पर निर्भर यह व्यवस्था छोड़नी होगी और इसके स्थान पर शासन के मजबूत इंस्टीट्यूशन बनाने होंगे। समय आ गया है कि भारत सभी शक्तियां एक ही व्यक्ति में केंद्रित करने के स्थान पर शासन की ऐसी प्रणाली अपनाए जो समझदारी से तैयार की गई सरकार की संस्थाओं को मजबूत बनाए।

अमरीका से सबक

अमरीका की राष्ट्रपति प्रणाली वास्तव में इसी उद्देश्य के लिए बनाई गई है। उनकी प्रणाली एकल-व्यक्ति के शासन से विपरीत है। उस प्रणाली में राष्ट्रपति सरकार की केवल कार्यकारी शाखा को ही नियंत्रित करता है। वह न कानून बना सकता है, न ही उनमें बदलाव कर सकता है। उसका देश की विधायी सभाओं पर कोई नियंत्रण नहीं होता। वह संसद या विधानमंडल को भंग नहीं कर सकता, और न ही इसके किसी नेता को नियुक्त कर सकता है। उसकी वीटो की शक्ति को दो-तिहाई बहुमत से नकारा जा सकता है। उनके राष्ट्रपति का राज्य सरकारों पर भी कोई अधिकार नहीं होता। वह उन्हें भंग नहीं कर सकता, न ही उनके गवर्नरों या विधायिका सदस्यों अथवा राज्य न्यायपालिकाओं को वश में कर सकता है। यहां तक कि उनके संघीय सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति के लिए न्यायाधीशों का नामित करने का उसका अधिकार भी सीमित है। नामांकन पर वे न्यायाधीश विधायिका द्वारा अनुमोदित होने आवश्यक हैं। अमरीकी राष्ट्रपति का अपनी पार्टी पर भी नियंत्रण नहीं होता है। वह इसके पदाधिकारी नियुक्त नहीं कर सकता और न ही इसका एजेंडा तय कर सकता है। चुनाव कब होंगे, यह तय करने में उसकी कोई भूमिका नहीं होती। यहां तक कि वह स्वयं अपनी ही कैबिनेट नियुक्त नहीं कर सकता। उसके नामांकन विधायिका द्वारा अनुमोदित किए जाने आवश्यक हैं। राष्ट्रपति का देश की सेना पर या देश के बजट पर भी निरंकुश नियंत्रण नहीं होता। उसकी शक्तियों की सीमाएं, दरअसल, यहां गिनाने के लिए काफी अधिक हैं। अमरीका के निर्माताओं में से एक, थॉमस जेफरसन, ने शायद सबसे बेहतर कहा हैः ‘‘एक अच्छी, और जनता के लिए सेफ, सरकार का अर्थ एक ही व्यक्ति को समस्त भरोसा सौंपना नहीं, बल्कि इसे कइयों में बांट देना है।’’

विकेंद्रीकरण का आदर्श

एक विशाल और विविध राष्ट्र के लिए विकेंद्रीकरण पर आधारित यह प्रणाली ही प्रभावशाली सरकार पाने का एकमात्र रास्ता है। जब शासन की प्रत्येक संस्था – स्थानीय से केंद्रीय तक – प्रत्यक्ष चुनावों और उत्तरदायित्वों की स्पष्ट जिम्मेदारी के माध्यम से सशक्त बनाई जाती है, तो उनमें से प्रत्येक अधिक जवाबदेह बन जाती है। इसके अतिरिक्त, वास्तविक नियंत्रण एवं संतुलन केवल तभी संभव हैं जब शक्तियां सरकार के विभिन्न केंद्रों में बांट दी जाएं। शक्ति का एकल केंद्र होने से असली नियंत्रण बेमतलब हो जाते हैं। भारत में निर्णयों पर सवाल उठाने या उनकी सार्वजनिक जांच के लिए कोई स्वतंत्र शक्ति केंद्र ही नहीं है। भारत की कई सबसे ऐतिहासिक भूलों के पीछे यह अकेला सबसे बड़ा कारण रहा है। नेहरू की कश्मीर व चीन संबंधी नीतियों को लागू करने से पहले उन पर संसद या किसी अन्य सार्वजनिक मंच पर न कभी बहस हुई न ही सवाल उठाए गए। इंदिरा गांधी का आपातकाल और राजीव गांधी के दलबदल विरोधी कानून भी एक व्यक्ति या एक कोटरी द्वारा लिए गए निर्णय थे जिन्होंने देश का भला नहीं किया। मोदी शायद भूलों की इस सूची में पहले ही योगदान कर चुके हैं। उनकी विमुद्रीकरण और कश्मीर नीतियों को न अनुमोदन के लिए रखा गया और न ही सरकार की किसी अन्य शाखा या उनकी अपनी ही कैबिनेट के मंत्रियों ने चर्चा की।

राष्ट्रपति प्रणाली की ओर

ये कुछ कारण हैं कि भारत के कई विचारकों ने राष्ट्रपति प्रणाली की सरकार अपनाने के पक्ष में तर्क दिए हैं। इस जानकार समूह की नवीनतम आवाज शशि थरूर हैं। मेरी नई पुस्तक ‘भारत में राष्ट्रपति प्रणालीः कितनी जरूरी, कितनी बेहतर’ के लोकार्पण पर थरूर ने स्पष्ट कहा कि ‘‘एकल-व्यक्ति के शासन पर नियंत्रण के लिए राष्ट्रपति प्रणाली की सरकार ही कारगर है।’’ भाजपा मार्गदर्शक मंडल के सदस्य, पूर्व मुख्यमंत्री एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री शांता कुमार ने भी सहमति जताई। उन्होंने कहा, ‘‘मौजूदा प्रणाली पूरी तरह विफल है और इसे बदला जाना चाहिए।’’ संवैधानिक विद्वान पद्मभूषण डा. सुभाष कश्यप भी सहमत थेः ‘‘हमारी मौजूदा शासन प्रणाली में बदलाव न होने देने में राजनेताओं के निहित स्वार्थ हैं। परंतु राष्ट्रपति प्रणाली पर अवश्य विचार होना चाहिए।’’ भारत की कई सर्वाधिक प्रख्यात हस्तियां राष्ट्रपति प्रणाली के पक्ष में तर्क प्रस्तुत कर चुकी हैं। यहां तक कि हमारे संविधान के मुख्य वास्तुकार बीआर अंबेडकर स्वयं इसके समर्थक थे। उन्होंने अमरीकी प्रणाली की कई विशेषताओं का उपयोग करते हुए संविधान सभा को ‘संयुक्त राज्य भारत’ की एक योजना भी सौंपी थी। संविधान सभा के एक अन्य सदस्य केएम मुंशी ने 1960 के दशक में कहा थाः ‘‘यदि मुझे एक बार फिर चुनना हो तो मैं राष्ट्रपति प्रणाली के पक्ष में वोट दूंगा।’’ प्रधानमंत्री वाजपेयी ने वर्ष 1998 में कहा था कि ‘‘हमें राष्ट्रपति प्रणाली की खूबियों पर चर्चा करनी चाहिए।’’ जेआरडी टाटा, नानी पालकीवाला, खुशवंत सिंह, पूर्व राष्ट्रपति आर वेंकटरमण, अरुण शौरी, रामकृष्ण हेगड़े – ये  सभी सरकार की इस प्रणाली के समर्थक रहे हैं।

भ्रांतियों का पर्दाफाश

एकल-व्यक्ति के शासन के खिलाफ राष्ट्रपति प्रणाली सर्वोत्तम सुरक्षा है, यह बात अमरीका के नए राष्ट्रपति डोनाल्ड टं्रप के जरिए लगातार स्पष्ट हो रही है। उनके पद ग्रहण करने के दो सप्ताह के भीतर ही एक राज्य की न्यायपालिका ने उनके तानाशाही तरीकों पर रोक लगा दी, जब उनके द्वारा कुछ मुस्लिम राष्ट्रों पर लगाए गए यात्रा प्रतिबंधों को अवैध घोषित कर दिया गया। यह केवल इसलिए संभव हुआ क्योंकि अमरीका की राज्य सरकारें और उनकी न्यायपालिकाएं सही अर्थों में स्वतंत्र हैं। इसी प्रकार उनकी अपनी कैबिनेट में ट्रंप की कई पसंदीदा नियुक्तियां वापस ले ली गईं या अस्वीकृत हो गईं, क्योंकि अनुमोदन की शक्तियां अमरीकी सीनेट के पास हैं। जब ओबामाकेयर को निरस्त करने का उनका वचन संसद में पास नहीं हो पाया, तो हमने देखा कि एक राष्ट्रपति की विधायी महत्त्वकांक्षाएं भी कैसे नाकाम की जा सकती हैं। अमरीकी राष्ट्रपति के ‘दुनिया का सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति’ होने के आम चित्रण ने उस सरकार की प्रणाली के बारे में मिथक पैदा कर दिया है। अमरीकी प्रणाली एकल-व्यक्ति को कार्यकारी शक्ति उसे हर अधिकार देने के लिए नहीं, बल्कि कानून के क्रियान्वयन के समस्त उत्तरदायित्व सौंपने के लिए  देती है। यही समय है कि भारत भी शक्तियों के ऐसे पृथ्थकरण वाली सरकार की प्रणाली अपनाए। यह हमारे कानूनों की गुणवत्ता बढ़ाएगा। हमारे सबसे अच्छे, सर्वाधिक दूरदर्शी उम्मीदवारों को सफल होने और उभरने का अवसर देगा। धरातल पर हमारे शासन की दक्षता को बढ़ाएगा। और, शायद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण, हमारी सरकार के सभी स्तरों पर भ्रष्टाचार पर लगाम लगाएगा।

साभार : दि क्विंट

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