कसूरवार तो केजरीवाल भी हैं

By: May 11th, 2017 12:05 am

पीके खुरानापीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

अरविंद केजरीवाल को जनता का विश्वास मिला था, लेकिन मोदी ने उपराज्यपाल के माध्यम से जनमत को रौंद डाला। यह अलग बात है कि खुद अरविंद केजरीवाल ने भी अपनी राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षाओं के कारण जनता के विश्वास को बरकरार रखने के बजाय घिसे हुए भ्रष्ट राजनीतिज्ञों की तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया और उनका ग्राफ गिरता चला गया। इसमें कोई दो राय नहीं है कि केजरीवाल ने भी अपने कारनामों से लोकतंत्र का मजाक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी…

सन् 2014 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने ऐतिहासिक जीत दर्ज करते हुए बहुमत हासिल किया और इस स्थिति में आ गई कि खुद अपने ही दम पर सरकार बना सके। परंतु मोदी अनुभवी ही नहीं, दूरंदेश भी हैं। भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अपना दल, शिरोमणि अकाली दल और शिव सेना को केंद्र सरकार में स्थान दिया। मोदी जानते थे कि अभी बहुत से राज्यों में कांग्रेस की सरकार है, राज्य सभा में भी भाजपा का बहुमत नहीं है। ऐसे में अपनी नीतियों को लागू करने और महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु उन्हें सहयोगियों की आवश्यकता रहेगी। शुरुआत में लंबे समय तक उन्होंने अध्यादेशों के माध्यम से शासन किया। इस स्थिति से उबरने के लिए मोदी और उनके सर्वाधिक विश्वस्त सहयोगी अमित शाह भविष्य की तैयारियों में जुटे रहे। मोदी के प्रयत्नों से परिवर्तन की लहर ऐसी चली कि हर ओर मोदी-मोदी होने लगा। लेकिन मोदी के सपने को थोड़ा सा झटका महाराष्ट्र में लगा, जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में शिवसेना ने सीटों के बंटवारे को लेकर भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ डाला और अकेले चुनाव लडऩे की घोषणा की।

मोदी को दूसरा झटका तब लगा, जब भाजपा को महाराष्ट्र में बहुमत नहीं मिल सका। सौदेबाजी की शुरुआत वहां से हुई और अंतत: भाजपा और शिवसेना की गठबंधन सरकार अस्तित्व में आई, जबकि पहले खुद मोदी ने शिवसेना को हफ्ता वसूली दल की संज्ञा दी थी। यह छोटी बात थी, क्योंकि केंद्र में दोनों दल पहले से ही सरकार में शामिल थे। मोदी को बड़ा झटका दिल्ली में लगा, जहां विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल ने चमत्कार ही किया और 67 सीटें जीत कर भाजपा का विजय रथ रोका। अगली चोट बिहार में लगी, जहां भाजपा को फिर से हार का सामना करना पड़ा और नीतीश कुमार शान से मुख्यमंत्री बने। यहां लोकतंत्र का मजाक नीतीश ने बनाया, क्योंकि लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल ने नीतीश कुमार के जनता दल (यूनाइटेड) से भी ज्यादा सीटें जीतकर नीतीश को लालू प्रसाद यादव के हाथों की कठपुतली बनने पर विवश कर दिया और उन्होंने लालू प्रसाद यादव के लगभग अनपढ़ बेटे को अपना उप मुख्यमंत्री बना दिया। बिहार के बाद अगला मोर्चा जम्मू-कश्मीर में लगा, लेकिन सारी कोशिशों के बावजूद वहां भाजपा बहुमत नहीं पा सकी। अंतत: अलगाववादियों की भाषा बोलने वाली मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ गठबंधन मोदी की विवशता हो गई। भाजपा ने मुफ्ती के नेतृत्व में सरकार में भागीदारी मंजूर की और उनके देहावसान के बाद महबूबा मुफ्ती का साथ लिया। इससे भी ज्यादा गड़बड़ तब हुई, जब मनोहर परिकर के दिल्ली चले जाने के कारण गोवा भी हाथ से निकलने के कगार पर पहुंच गया। सौदेबाजी यहां भी चली और अंतत: मनोहर पर्रिकर के नेतृत्व में भाजपा की गठबंधन सरकार ने सत्ता संभाल ली। दिल्ली मोदी की आंख की किरकिरी बन गई और 67 सीटों की बड़ी जीत के बावजूद केजरीवाल को बार-बार अपमान का घूंट पीना पड़ा क्योंकि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त नहीं है। संवैधानिक स्थिति यह है कि दिल्ली के उपराज्यपाल वहां के सुपर मुख्यमंत्री की तरह काम कर सकते हैं। मोदी ने संविधान की इस खामी का खूब फायदा उठाया और भाजपा के सिर्फ तीन विधायकों की जीत के बावजूद केजरीवाल को मात्र एक प्यादा बना कर रख दिया।

अरविंद केजरीवाल को जनता का विश्वास मिला था, लेकिन मोदी ने उपराज्यपाल के माध्यम से जनमत को रौंद डाला। यह अलग बात है कि खुद अरविंद केजरीवाल ने भी अपनी राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षाओं के कारण जनता के विश्वास को बरकरार रखने के बजाय घिसे हुए भ्रष्ट राजनीतिज्ञों की तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया और उनका ग्राफ गिरता चला गया। इसमें कोई दो राय नहीं है कि केजरीवाल ने भी अपने कारनामों से लोकतंत्र का मजाक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन यह सच अपनी जगह है कि उपराज्यपाल के माध्यम से मोदी ने दिल्ली पर राज करना शुरू कर दिया। यह लोकतंत्र का बहुत बड़ा मजाक था, पर कहानी यहां ही खत्म नहीं होती। आम आदमी पार्टी के उन 20 विधायकों के बारे में चुनाव आयोग का फैसला आना बाकी है, जिन्हें अरविंद केजरीवाल ने संसदीय सचिव बना दिया था। लेकिन सच यह है कि यदि चुनाव आयोग आम आदमी पार्टी के हक में फैसला न दे और वे 20 विधायक अपनी सीट गंवा दें और सब की सब सीटों पर भाजपा जीत जाए तो भी दिल्ली में आम आदमी पार्टी का बहुमत बरकरार रहेगा और अपनी शेष 46 सीटों के दम पर वह सत्ता में बनी रहेगी। दिल्ली से राज्यसभा की तीन सीटें खाली होने वाली हैं और डा. कर्ण सिंह, जनार्दन द्विवेदी तथा परवेज हाशमी 27 जनवरी, 2018 को रिटायर हो जाएंगे। राज्यसभा में अपनी शक्ति बढ़ाना मोदी का अहम लक्ष्य है और वह नहीं चाहते कि आम आदमी पार्टी इन तीनों सीटों पर जीत जाए। यदि वर्तमान दिल्ली विधानसभा की वर्तमान स्थिति कायम रहे तो राज्यसभा में खाली होने वाली इन तीनों सीटों पर आम आदमी पार्टी की विजय निश्चित है। लोकसभा में आम आदमी पार्टी का प्रतिनिधित्व है और यदि उसने राज्यसभा की ये तीन सीटें भी जीत लीं, तो राज्यसभा में भी उसे प्रतिनिधित्व मिल जाएगा। मोदी ऐसा कतई नहीं चाहते अत: वे आम आदमी पार्टी में टूट के लिए जी-तोड़ कोशिशों में जुटे हैं। असली सवाल यह है कि मोदी को ऐसा क्यों करना पड़ रहा है।

प्रधानमंत्री को सत्ता में बने रहने के लिए संसद में बहुमत की आवश्यकता है, लेकिन अपनी नीतियों को लागू करने की मंशा से कानूनों में परिवर्तन के लिए अथवा नए कानून बनाने के लिए संसद के दोनों सदनों में बहुमत की आवश्यकता है और कई कानून बनाने के लिए तो संसद के दोनों सदनों में बहुमत के अलावा राज्यों में भी अपनी पार्टी की सरकार की आवश्यकता है। यही नहीं, केंद्र में सत्ता में होने के बावजूद राज्यसभा में बहुमत पाने के लिए भी राज्यों में अपनी पार्टी की सरकार होना आवश्यक है। ऐसे में दोनों सदनों में बहुमत बनाने के लिए प्रधानमंत्री को राज्यों में भी जोड़-तोड़ करना पड़ेगा। यह सवाल बार-बार उठा कि मोदी को राज्यों में बहुमत पाने के लिए विभिन्न राज्यों की गलियों की खाक छाननी पड़ी, जो कि असल में प्रधानमंत्री का काम नहीं है। प्रधानमंत्री के इस रवैये पर सवाल उठते रहे हैं लेकिन जवाब न आने से वह थक कर मरते रहे हैं। दरअसल, इन सवालों का जवाब यह है कि हमारी व्यवस्था ही गलत है जो हर सत्तासीन व्यक्ति को भ्रष्ट होने के लिए विवश करती है। अत: यदि हम चाहते हैं कि देश से भ्रष्टाचार का सफाया हो, तो पहले हमें अपनी व्यवस्था को सुधारना होगा, हमें देश का मुखिया ऐसा बनाना होगा, जो अपनी कुर्सी के लिए संसद के बहुमत पर निर्भर न हो, जिसे अपना मंत्रिमंडल संसद के सदस्यों में से ही चुनने की विवशता न हो और यह तभी संभव हो सकता है जब हम अपने संविधान में वांछित संशोधन करें। शुरुआत में इसे स्थानीय स्तर पर आजमाया जा सकता है यानी नगर निगम के मेयर का चुनाव सीधे जनता द्वारा हो, कानून बनाने में उसकी भूमिका न हो, कानून बनाने का काम पार्षदों का हो और शासन के इन दोनों अंगों का एक-दूसरे पर सीमित नियंत्रण भी हो। अब समय है कि बीमारी का अस्थायी इलाज करने के बजाय बीमारी के कारण को दूर करें, ताकि हमारा लोकतंत्र मजबूत भी हो और सफल भी, वरना हम सिर्फ सवाल उठाते रहेंगे, जवाब नदारद रहेंगे और थक-हार कर सवाल

मरते रहेंगे।

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