तलाक तलाक पर ‘सुप्रीम’ बहस

By: May 13th, 2017 12:01 am

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड मुसलमानों की प्रतिनिधि संस्था नहीं है या तीन तलाक सरीखे मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सामने बहस शुरू हो सकी है,तो उसका बुनियादी श्रेय प्रधानमंत्री मोदी को जाना चाहिए। अलबत्ता जब से देश आजाद हुआ है, उससे पहले से ही यह कुप्रथा जारी रही है। चूंकि कांग्रेस समेत ज्यादातर दल इसे ‘मजहबी मामला’ मानते हुए दखलंदाजी नहीं करना चाहते थे,लिहाजा मुस्लिम औरतों पर ज़ुल्म और अत्याचार के सिलसिले जारी रहे। प्रधानमंत्री मोदी के कुछ आह्वानों ने तीन तलाक से पीडि़त महिलाओं को लामबंद होने का मौका मुहैया कराया और उन औरतों ने सर्वोच्च अदालत की चौखट खटखटाई। बेशक प्रधानमंत्री की इन कोशिशों में सियासत निहित थी, लेकिन उनका मकसद सामाजिक और राष्ट्रीय था। वह तीन तलाक जैसी कुरीति को जड़ से खत्म करने पर आमादा थे, लिहाजा हलफनामे के जरिए केंद्र सरकार का रुख भी सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। इस मामले में सियासत कोई पाप नहीं है, क्योंकि यह इनसानियत का तकाजा था। बेशक प्रधानमंत्री मोदी मुस्लिम औरतों की समानता को व्यावहारिक मायनों में तय करना चाहते थे। लिहाजा मोदी सरकार ने संविधान पीठ से यह सवाल भी पूछा है कि समानता के अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार और गरिमा से जीने के मौलिक अधिकार में से प्राथमिकता किसे दी जाए? प्रधानमंत्री मोदी की कोशिशों ने तीन तलाक पर सामाजिक कलंक चिपका दिया, उसे सामाजिक कुरीति साबित किया और उसे मुस्लिम औरतों के मानवाधिकारों के सरोकार से जोड़ा। हालांकि मुस्लिम समाज का एक तबका, मौलाना और मुफ्ती आज भी दोगली जुबान बोल रहे हैं। एक तरफ वे बयान देते हैं कि तीन तलाक के दोषियों को कड़ी सजा दी जाए, कोड़े मारे जाएं या फांसी-सूली पर लटका दिया जाए, लेकिन अब भी वे मुस्लिम कठमुल्ले सरकार और अदालत का दखल नहीं चाहते। कुरान और इस्लाम में तलाक की क्या प्रक्रिया है, उसकी व्याख्या मैं नहीं कर सकता, लेकिन इतना एहसास है कि तीन तलाक ने कुरान और इस्लाम को अपमानित किया है। जो इस्लाम और शरियत में हराम है, जिस जमीन पर तलाक होता है, वह भी हराम और दोजख समान है, तो आज तक मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तीन तलाक की समीक्षा तक क्यों नहीं की? आज पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कुछ सवाल जरूर उठाए हैं। यह पीठ भी अद्भुत है, जिसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और पारसी न्यायाधीश हैं। यानी पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष…! न्यायिक पीठ जानना चाहती है कि क्या तीन तलाक इस्लाम धर्म का मूल हिस्सा है या नहीं? क्या तीन तलाक मुस्लिम औरतों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है? क्या तीन तलाक को भी पवित्र माना जा सकता है? जिन देशों में तीन तलाक पर पाबंदी है, क्या वे इस्लामिक देश नहीं हैं? इस्लाम के लिहाज से अच्छे देश नहीं हैं? क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ भी शरियत का मामला है? केंद्र सरकार ने भी संविधान पीठ के सामने कुछ सवाल रखे हैं। दरअसल संविधान पीठ तीन तलाक के मुद्दे को संविधान और कानून के संदर्भ में हल करना चाहती है। मुसलमानों के मजहब में जरा-सी भी दखलंदाजी के पक्ष में संविधान पीठ नहीं है। लिहाजा यह ‘सुप्रीम बहस’ लंबी चलेगी और उम्मीद करनी चाहिए कि मुस्लिम औरतों को एक ही बार में तीन तलाक की कुरीति से निजात मिलेगी। संविधान पीठ इस मुद्दे को लैंगिक समानता के संदर्भ में भी ग्रहण करेगी। दरअसल तीन तलाक मुस्लिम मर्दों की हैवानियत और हवस का  एक जरिया भी है। अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने संविधान पीठ के सामने अपना पक्ष यूं रखा है-सभी पर्सनल लॉ मौलिक अधिकारों से बाहर नहीं हो सकते। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, सभी कानूनों को संवैधानिक अधिकारों के मुताबिक ही होना चाहिए। क्या ऐसा है कि जहां पर्सनल और फैमिली लॉ शुरू हो जाए, तो वहां संविधान को रुक जाना चाहिए? तीन तलाक एकतरफा है और गैर न्यायिक भी। यह महिलाओं के लिए ‘सिविल डेथ’ सरीखा है। गौरतलब यह है कि 1937 में अंग्रेजों ने जो मुस्लिम कानून बनाया था, उसमें औरतों को भी तलाक देने का अधिकार था और वह धारा 5 के तहत शौहर से तलाक ले सकती थीं, लेकिन 1939 में इस धारा को खत्म कर दिया गया। आज भी इस्लाम में औरतों की बराबरी की कितनी भी दलीलें दी जाती रहें, लेकिन तलाकशुदा मुस्लिम औरत बेसहारा है, लावारिस है, अनाथ और सड़कों पर धक्के खाने को विवश है। मुसलमान अपनी औसत औरतों को बुद्धिहीन मानते हैं, लिहाजा वे सवाल उठा रहे हैं कि जो औरतें तहसील तक नहीं जा सकती थीं,वे सुप्रीम कोर्ट कैसे पहुंच गईं? इसी बिंदु पर वे संघ और भाजपा को कोसने लगते हैं। केंद्र सरकार ने पूरा ब्यौरा दिया है कि जिन 22 देशों में तीन तलाक नहीं है,वहां कानून कैसे काम करता है। मुसलमानों में शिया समुदाय भी तीन तलाक को नहीं मानता। यह सिर्फ  सुन्नी हनाफी समुदाय में ही है। बहरहाल संविधान पीठ के सामने अभी बहस शुरू हुई है। पीठ फिलहाल तीन तलाक पर ही फोकस करेगी, निकाह, हलाला और बहुविवाह सरीखे मुद्दों को पीछे छोड़ दिया गया है। ऐसे स्वर बुलंद हैं कि तीन तलाक देने वाले मर्द को कड़ी सजा दी जाए। वह औरत को न सिर्फ गुजारा भत्ता दे,बल्कि जायदाद में से आधा हिस्सा भी दे। फेसबुक, व्हाट्स ऐप, फोन आदि संचार माध्यमों पर तलाक के संदर्भ में पाबंदी लगाई जाए। यानी ऐसे तलाक मान्य नहीं होंगे, लेकिन मोदी सरकार तीन तलाक को जड़ से ही खत्म कराना चाहती है। लिहाजा हमें संविधान पीठ की मौजूदा बहस पर गौर करते रहना पड़ेगा।

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