तीन तलाक पर हलफनामा

By: May 24th, 2017 12:05 am

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को बाध्य किया है कि अब वह तीन तलाक पर यू-टर्न ले रहा है। पर्सनल लॉ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट में 13 पन्नों का हलफनामा देकर संविधान पीठ को आश्वस्त करने की कोशिश की है कि काजियों और इमामों को ‘एडवाइजरी’ जारी की जाएगी कि निकाहनामे में तीन तलाक के लिए ‘इनकार’ का विकल्प रखा जाए। काज़ी निकाह से पहले दूल्हे को समझाए कि वह मतभेद पैदा होने पर तीन तलाक कहने से बचें। यह भी सलाह दी जाएगी कि दूल्हा और दुल्हन निकाहनामे में यह शर्त रखें कि पति एक बार में तीन तलाक का प्रयोग नहीं करेगा। काजी और इमाम तीन तलाक से बचकर रहें और इसके खिलाफ मुसलमानों को जागृत करें। काजी और इमाम निकाहनामे में बदलाव कर सकते हैं। एक तरह से बोर्ड को ‘मुंह की खानी’ पड़ी है। दरअसल वह संविधान पीठ के रुख को भांप गया था,क्योंकि पीठ ने सवाल-जवाब के बाद तय किया था कि तीन तलाक इस्लाम का मूलभूत हिस्सा नहीं है। जब इसे निकाहनामे में नहीं रखा जा सकता,तो यह पवित्र कैसे हो सकता है? लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कुछ बुनियादी सवालों को हलफनामे में छोड़ दिया है। मसलन-तीन तलाक इस्लाम धर्म का एक अहमं हिस्सा है या नहीं? क्या तीन तलाक भी मुसलमानों की आस्था का विषय है? हलफनामे में यह क्यों कहा गया है कि कोर्ट इस मुद्दे पर दखल न दे? यदि संविधान पीठ तीन तलाक को रद्द करती है और केंद्र सरकार को वैकल्पिक कानून बनाने का निर्देश देती है,तो क्या मुसलमान देश में हिंसक पलटवार कर सकते हैं? बोर्ड के वकील कपिल सिब्बल ने बहस के दौरान यह आशंका जताई थी और आग्रह किया था कि संविधान पीठ इस मुद्दे पर सुनवाई ही न करे। बहरहाल तीन तलाक पाप है,गुनाह है,इस्लामी बर्बरता है,कानून और मानवाधिकार का मसला है या मुसलमानों की धार्मिक प्रथा है? हलफनामा इन सवालों पर मौन है। हलफनामे के जरिए मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने यह यकीन क्यों नहीं दिलाया कि अब मुस्लिम औरत को भी ‘न’ कहने का अधिकार मिलना तय है। यदि काजी और इमाम में से कोई भी पर्सनल लॉ बोर्ड की ‘सलाह’ को मानने या लागू कराने से इनकार कर देते हैं,मजबूरी बयां करते हैं,तो उस स्थिति में बोर्ड का फैसला क्या होगा? सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक का विरोध करने वाली अधिवक्ता फराह फैज का कहना है कि बोर्ड काजियों को परामर्श या दूल्हों को ऐसी सलाह देने वाला कोई पक्ष नहीं है। यह एक पंजीकृत एनजीओ है,जो काजियों को न तो संचालित करता है और न ही उन्हें नौकरी पर रखता है। यह केवल मुसलमानों के बीच भ्रम पैदा करने की कवायद है। दरअसल पर्सनल लॉ बोर्ड को ऐसा परामर्श देने का कोई कानूनी या धार्मिक अधिकार नहीं है,क्योंकि इसका काम सिर्फ सामाजिक सुधार का है,देश के मुसलमानों पर शासन करना नहीं है। लिहाजा हलफनामा ही बुनियादी तौर पर झूठ का पुलिंदा है। बोर्ड अनधिकार चेष्टा कर रहा है और संविधान पीठ को भ्रमित करने की कोशिश कर रहा है। यह परोक्ष रूप से एक अपराध है। सवाल यह भी उठ रहा है कि बोर्ड ने हलफनामे में यह विश्वास क्यों नहीं दिलाया कि तीन तलाक का सहारा लेने वालों का सामाजिक बहिष्कार किया जाएगा। बहरहाल इस मुद्दे पर बहस समाप्त हो चुकी है। सुनवाई के बाद संविधान पीठ का फैसला सुरक्षित रखा गया है। यह कभी भी सुनाया जा सकता है। संविधान पीठ ने ही यह सुझाव दिया था कि तीन तलाक में मुस्लिम औरतों को विकल्प का अधिकार दिया जाना चाहिए। निकाहनामे में ही यह प्रावधान जोड़ देना चाहिए कि औरत तलाक से इनकार कर सकती है। तब बोर्ड ने ‘एडवाइजरी’ की बात कही थी,लेकिन वह यह भी चाहता है कि तीन तलाक पर कोर्ट,सरकार या संविधान कोई संशोधन न दें। मुस्लिम मौलवी,मौलाना,मुफ्ती 1400 साल पुरानी इस कुप्रथा पर अब भी गुर्रा रहे हैं। वे संविधान पीठ का फैसला मानने तक तैयार नहीं हैं। ऐसे में पर्सनल लॉ बोर्ड के हलफनामे का औचित्य क्या माना जाए।

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