नर्मदा की इतिहास-यात्रा

By: May 29th, 2017 12:05 am

युद्ध में दुर्गावती साक्षात दुर्गा की तरह लड़ी और मुगल सेना हतप्रभ रह गई। प्रकृति ने भी दुर्गावती का साथ नहीं दिया। गोंड सेना के पीछे गौर नदी में बाढ़ आ गई और रानी नदी और मुगल सेना की बाढ़ के मध्य फंस गई। एक तीर रानी की आंख में लगा और जब उसने उसे खींचकर निकाला तो उसकी नोंक टूटकर आंख के भीतर रह गई। इसी बीच एक तीर गले में लगा और पुत्र वीर नारायण की मृत्यु का समाचार भी मिला। गोंड सेना तितर-बितर होने लगी तो महावत ने पीछे लौटने का आदेश मांगा। रानी ने पीछे हटने से मना कर दिया और कटार अपने कलेजे में घोंप कर वीरगति प्राप्त की…

गहरी और चौड़े पाट वाली नर्मदा और उसके आसपास तटरक्षक की तरह खड़े विराट विंध्याचल और सतपुड़ा भौगोलिक विभाजन रेखा बने रहे हैं। इसी रेखा पर उत्तर और दक्षिण के मिलन और संघर्ष को अनेक ऐतिहासिक घटनाएं घटीं। नर्मदा घाटी के आदिमानव ने समाज, सभ्यता, संस्कृति और राज्य व्यवस्था के निर्माण की एक लंबी और संघर्ष भरी यात्रा तय की।  जीवाश्मों और गुफा चित्रों से इनका अनुमान लगता है, परंतु नर्मदा घाटी में सर्वप्रथम जिस साम्राज्य के विस्तार का प्रमाण मिलता है, वह है सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य। उसका पौत्र अशोक मगध के सिंहासन पर बैठने से पूर्व उज्जैन का प्रतिनिधि शासक था। जबलपुर जिला के रूपनाथ में मिले शिलालेख में लिखित अशोक की राजाज्ञा और सीहोर जिला के पानगुराडि़या में मिला अशोक का शिलालेख नर्मदा घाटी में लंबे समय तक मौर्यों का शासन रहने को प्रमाणित करते हैं। ईसा पूर्व 184 में मौर्य शासन समाप्त हुआ। पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र इतना प्रभावकारी शुंग शासक था कि कालिदास ने अपना नाटक ‘मालविकाग्निमित्रम’ अग्निमित्र और मालविका के प्रणय को आधार बनाकर लिखा। यद्यपि उसकी राजधानी बेसनगर (विदिशा) में थी, किंतु उसने नर्मदा नदी के किनारे एक दुर्ग बनवाया था और नर्मदा पार कर विदर्भ नरेश को पराजित किया था। चौथी से छठी शती तक मालवा सहित नर्मदा घाटी पर मगध को अपने अधीन कर लिया था। विंध्याचल और नर्मदा के उत्तर में आटविक राज्य था और दक्षिण में महाकांतार का विस्तार। हर्षवर्धन (606-642 ईस्वी) ने हिमालय से लेकर विंध्याचल तक समस्त राजाओं पर विजय प्राप्त की और उत्तर भारत का एक छत्र सम्राट बन गया। उधर, नर्मदा के दूसरी ओर सतपुड़ा से धुर दक्षिण तक चालुक्यवंशी नरेश पुलकेशिन द्वितीय (610-642 ईस्वी) दक्षिण भारत का सम्राट बन गया। हर्षवर्धन की इच्छा पुलकेशियन ने कभी पूरी नहीं होने दी। नर्मदा तट पर हुए भीषण युद्धों के बाद नर्मदा को ही दोनों ने अपने-अपने साम्राज्यों की सीमा रेखा मान लिया।

वैसे तो माहिष्ममी और त्रिपुरी (वर्तमान में जबलपुर के निकट का तेवर) नर्मदा घाटी के प्रसिद्ध प्राचीन जनपद रहे हैं, मगर कलचुरियों के शासन में इनकी ख्याति और बढ़ी। माहिष्मती का प्रथम कलचुरी शासक कृष्ण राज (550 से 575 ईस्वी) था। ईसा पश्चात सातवीं सदी के अंत में जन्में वामराजदेव ने हर्षवर्र्धन के निधन से उत्पन्न परिस्थितियों का लाभ उठाया और नर्मदा के उत्तर तक अपने राज्य का विस्तार किया। त्रिपुरी में कलचुरी राज्य का संस्थापक यही वामराजदेव माना जाता है। कलचुरी वंश का गांगेयदेव (1015 ईस्वी) बहुत प्रतापी राजा हुआ, किंतु उसका पुत्र कर्ण (1041 ईस्वी से 1072 ईस्वी ) उसमें भी अधिक तेजस्वी और पराक्रमी सिद्ध हुआ, जिसने बंगाल तक अपने राज्य का विस्तार किया। प्रतापी होने के साथ वह धार्मिक और दानी भी था। वाराणसी और प्रयाग में गंगा पर घाट बनवाने के अलावा उसने कई मंदिरों का निर्माण भी कराया। अमरकंटक का कर्ण मंदिर आज भी दर्शनीय स्थिति में है और कलचुरी कला एवं संस्कृति का ध्वजवाहक बना हुआ है। जय और पराजय, उत्थान और पतन की लहरों पर सवार कलचुरी साम्राज्य लगभग एक सहस्राब्दी तक अपनी पताका फहराता हुआ तब इतिहास बन गया जब चंदेल नरेश तैलौक्य वर्मा ने त्रिपुरी और नर्मदा के आसपास के विस्तृत भू-भाग पर अपना अधिकार कर लिया। गुर्जर प्रतिहार वंश के राजा महिपाल (913 ईस्वी से 942 ईस्वी) ने नर्मदा उद्गम के आसपास रहने वाली मुरल जाति के छोटे-छोटे राज्यों को पहले ही जीतकर अपने राज्य में शामिल कर लिया था। परमार वंश के प्रतापी राजा सिंधुराज और उसके विद्वान, कला प्रेमी तथा योद्धा पुत्र भोज ने भी नर्मदा के तटवर्ती क्षेत्रों पर विजय प्राप्त कर यहां राज किया। नर्मदा घाटी में अपनी धरती, संस्कृति और स्वाभिमान की रक्षा हेतु गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की भावना का उदय और विकास गोंड राजवंश के शासनकाल में प्रेरणास्पद रूप में हुआ। यद्यपि गोंड राजवंश का उदय खेरला (बैतूल) में हुआ, किंतु  664 ईस्वी के लगभग गढ़ा मंडला में गोंड शासन स्थापित होने के बाद इसकी कीर्ति में बहुत वृद्धि हुई। नरसिंह राय (1398 ईस्वी) का शासन नर्मदा घाटी में मंडला से मांधाता तक था तो संग्राम शाह (1480 ईस्वी) 52 गढ़ों का स्वामी था। गोंड इतिहास के भाल पर अपनी भूमि की रक्षार्थ आत्म बलिदान का जो गौरव तिलक दुर्गावती ने लगाया, उसकी कीर्ति आज भी देशभर में व्याप्त है। विवाह के चार वर्ष के भीतर ही वैधव्य का भीषण ताप सहने वाली यह रानी अद्भुत इच्छाशक्ति, अदम्य साहस, अनुपम शौर्य और विलक्षण प्रशासन प्रतिभा से संपन्न थी। अपने अल्प वयस्क पुत्र वीरनारायण की ओर से उसने पंद्रह वर्ष शासन किया और मालवा के नवाब बाज बहादुर को कई बार पराजित कर उसने राज्य की सीमा से बाहर खदेड़ा। उस स्वाभिमानी रानी ने जब अकबर का प्रभुत्व मानने से इनकार कर दिया तो मुगल सेना ने  विधवा रानी के राज्य पर आक्रमण कर दिया। दुर्गावती चाहती तो अकबर का प्रभुत्व स्वीकार कर अपना राज्य बचा सकती थी, किंतु उसने विदेशियों के आगे झुकने से बेहतर स्वाभिमान की खातिर युद्ध करना स्वीकार किया। दुर्गावती जानती थी कि तोपधारी विराट मुगलसेना से तलवार और तीर कमानधारी उसकी छोटी सी सेना द्वारा मुकाबला करना कितना कठिन है, किंतु शरणागति की तुलना में वीरगति का वरण करना वीरांगना ने श्रेयस्कर समझा।

युद्ध में दुर्गावती साक्षात दुर्गा की तरह लड़ी और मुगल सेना हतप्रभ रह गई। प्रकृति ने भी दुर्गावती का साथ नहीं दिया। गोंड सेना के पीछे गौर नदी में बाढ़ आ गई और रानी नदी और मुगल सेना की बाढ़ के मध्य फंस गई। एक तीर रानी की आंख में लगा और जब उसने उसे खींचकर निकाला तो उसकी नोंक टूटकर आंख के भीतर रह गई। इसी बीच एक तीर गले में लगा और पुत्र वीर नारायण की मृत्यु का समाचार भी मिला। गोंड सेना तितर-बितर होने लगी तो महावत ने पीछे लौटने का आदेश मांगा। रानी ने पीछे हटने से मना कर दिया और कटार अपने कलेजे में घोंप कर वीरगति प्राप्त की। विश्व इतिहास में देशभक्ति और स्वाभिमान के लिए आत्मबलिदान की ऐसी महान घटनाएं बिरली ही हुई हैं।

-महेश श्रीवास्तव

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