रस्म बनकर रह गया है मजदूर दिवस

By: May 1st, 2017 12:02 am

दुनिया भर में प्रतिवर्ष पहली मई को मजदूर दिवस अथवा अंतरराष्ट्रीय श्रम दिवस के रूप में मनाया जाता है। मई दिवस समाज के उस वर्ग के नाम किया गया है, जिसके कंधों पर सही मायनों में विश्व की उन्नति का दारोमदार है। इसमें कोई दो राय नहीं कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति एवं राष्ट्रीय हितों को पूरा करने का प्रमुख भार इसी वर्ग के कंधों पर होता है। यह मजदूर वर्ग ही है, जो हाड़ तोड़ मेहनत के बलबूते राष्ट्र के प्रगति चक्र को तेजी से घुमाता है, लेकिन कर्म को ही पूजा समझने वाला श्रमिक वर्ग श्रम कल्याण सुविधाओं के लिए आज भी तरस रहा है। मजदूर दिवस के अवसर पर देश भर में बड़ी-बड़ी सभाएं होती हैं, बड़े-बड़े सेमिनार आयोजित किए जाते हैं, जिनमें मजदूरों के हितों की बड़ी-बड़ी योजनाएं बनती हैं और ढेर सारे लुभावने वादे किए जाते हैं। सरकारी समाचार पत्रों में मजदूरों के हित की योजनाओं के बड़े-बड़े विज्ञापन जारी करती है, जिन्हें देख-सुनकर एक बार तो यही लगता है कि मजदूरों के लिए अब कोई समस्या ही बाकी नहीं रहेगी। लोग इन खोखली घोषणाओं पर तालियां पीटकर अपने घर लौट जाते हैं, परंतु अगले ही दिन मजदूरों को पुनः उसी माहौल से रू-ब-रू होना पड़ता है, फिर वही शोषण, अपमान व जिल्लत भरा जीवन जीने के लिए अभिशप्त होना पड़ता है। मजदूरों के आत्म सम्मान का दिवस कहे जाने वाले इस दिन को लेकर के इस तबके में कोई खास उत्साह, जोश और जुनून नहीं रह गया है। बढ़ती महंगाई और पारिवारिक जिम्मेदारियों ने भी मजदूरों को उत्साह से दूर कर दिया है। मसलन अब मजदूर दिवस इनके लिए सिर्फ रस्म बनकर रह गया है। आलम यह है कि दो जून की रोटी, एक अदद छत और बच्चों के सुनहरे भविष्य के सपने संजोकर पराए प्रदेश में आकर हाड़ तोड़ मेहनत करने के बावजूद तिल-तिल सिसकती जिंदगी जी रहे इन मेहनतकश मजदूरों के लिए अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस जैसे आयोजन कोई मायने नहीं रखते। मेहनतकश मजदूरों को उचित पारिश्रमिक दिलाने और उनके आर्थिक, सामाजिक हक दिलाने व उनके योगदान को मान्यता देने के लिए पूरी दुनिया में हर साल पहली मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाता है, लेकिन वैश्वीकरण और मुनाफे की अंधी दौड़ में मजदूरों का शोषण आज भी जारी है। प्रतिदिन आठ घंटे और सप्ताह में 40 घंटे कामकाज, उचित पारिश्रमिक और बेहतर माहौल जैसी मांगों को लेकर शुरू हुआ मजूदरों का संघर्ष आज भी जारी है। यही वजह रही है कि मजदूर दिवस जैसे आयोजन अब इस तबके को बेमानी से लगने लगे हैं। यह तबका जानता है कि इस दिन हर साल की तरह मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए दावे किए जाएंगे और दलीलें दी जाएंगी, लेकिन साल भर जब यह तबका नौकरी के लिए संघर्ष करता है या नौकरी मिल जाए तो पगार लेने के लिए जद्दोजहद और फिर कम पगार में घर चलाने की चुनौतियों से जूझता है, तो कोई भी संगठन सही मायने में इनके लिए आगे नहीं आता। यहां का मजदूर एक अदद छत, उचित वेतन व अन्य मूलभूत सुविधाओं के अभाव में गुजर बसर करने को मजबूर है। मजदूर दिवस यानी मजदूरों का दिन। कहने और सुनने में कितना सुकून देता है ये शब्द, लेकिन इस शब्द के मायने, शायद उन मजदूरों के लिए कुछ भी नहीं जिनके नाम पर इसे दुनिया में मनाया जा रहा है। वे बेचारे तो इस दिन भी अपनी रोजी-रोटी के लिए कमर तोड़ रहे होते हैं। पसीना बहा रहे होते हैं। यदि नहीं बहाएंगे, तो रात को उनका परिवार भूखा ही सोएगा। फिर कैसा मजदूर दिवस, किसका मजदूर दिवस। दिन रात रोजी-रोटी के जुगाड़ में जद्दोजहद करने वाले मजदूर के लिए पेट और परिवार की मजबूरी में हर दिवस छोटा होता है। उसे तो दो जून की रोटी मिल जाए, मानों सब कुछ मिल गया। आजादी के इतने साल में भले ही बहुत कुछ बदला हो, लेकिन मजदूरों के हालात नहीं बदले तो फिर यह वर्ग कैसे मनाए मजदूर दिवस। मजदूरों का न सामाजिक स्तर बदला, न शिक्षा का स्तर बदला, जिंदगी कल और आज इसी ढर्रे पर चल रही है। डाक्टर का बेटा डाक्टर, वकील का बेटा वकील, सिपाही का बेटा सिपाही तो क्या मजदूर के बच्चे मजदूर ही रहेंगे। रोटी, कपड़ा और मकान के लिए जूझते इस श्रमिक वर्ग के लिए इस मजदूर दिवस की कितनी उपयोगिता है, इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है और यह भी स्पष्ट है कि पूंजीवादी बाजार और सत्ता इस मजदूर दिवस को कितना महत्त्व देते हैं। देश का शायद ही ऐसा कोई हिस्सा हो, जहां मजदूरों का खुलेआम शोषण न होता हो। आज भी स्वतंत्र भारत में बंधुआ मजदूरों की बहुत बड़ी तादाद है। कोई ऐसे मजदूरों से पूछकर देखे कि उनके लिए देश की आजादी के क्या मायने हैं, जिन्हें अपनी मर्जी से अपना जीवन जीने का ही अधिकार न हो। जो दिन भर की हाड़ तोड़ मेहनत के बाद भी अपने परिवार का पेट भरने में सक्षम न हो पाते हों, उनके लिए क्या आजादी और क्या गुलामी? ऐसा नहीं है कि हमारे दर्शन में मजदूरों के लिए कोई संदेश नहीं है, पर उसमें मनुष्य में वर्गवाद के वे मंत्र नहीं हैं, जो समाज में संघर्ष को प्रेरित करते हैं। हमारे आध्यात्मिक दर्शन द्वारा प्रवर्तित जीवनशैली पर दृष्टिपात करें, तो उसमें पूंजीपति, मजदूर और गरीब-अमीर को आपस में सामंजस्य स्थापित करने का संदेश है। भारत में एक समय संगठित और अनुशासित समाज था जो कालांतर में बिखर गया। इस समाज में अमीर और गरीब में कोई सामाजिक तौर से कोई अंतर नहीं था। आज पुनः व्यावहारिक तौर पर उसी व्यवस्था को समाज में अपनाने की जरूरत शिद्दत के साथ महसूस होने लगी है।

रमेश सर्राफ लेखक, स्वतंत्र पत्रकार हैं

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