लोक संगीत में सबसे बड़ा सुर सहगल

By: May 10th, 2017 12:07 am

CEREERडा. केएल सहगल ने पहली बार वर्ष 1971 में ऑल इंडिया रेडियो शिमला में अपना पहला गाना गाया। उन्हें अपनी रिकार्डिंग को लेकर बड़ा उत्साह था। 1976 में सुगम संगीत की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। केंद्र सरकार के एमएबी म्यूजिक ऑडिट बोर्ड से उच्च श्रेणी कलाकार घोषित हैं। डा. सहगल की करीब सात लोक संगीत की कैसेट व दो गजल की कैसेट ‘तलाश’ व ‘इत्तफाक’ मार्केट में तहलका मचा चुकी है…

संगीत की बुलंदियों पर हिमाचली लोक संगीत को पहुंचाने वाले प्रदेश के जाने- माने लोक कलाकार व गजल गायक डा. केएल सहगल भले ही हिमाचल गौरव पुरस्कार से इतने प्रोत्साहित नहीं हों, परंतु उन्हें इस बात की खुशी है कि कहीं तो कलाकारों की भी कद्र है। भले ही इसमें देरी हो, परंतु सम्मान जरूर मिलता है। डा. केएल सहगल आज हिमाचल प्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे उत्तर भारत में किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनके खून के हर कतरे में हिमाचली लोक संगीत मानों ठूंस-ठूंस कर भरा है। डा. सहगल इस बात से लंबे समय से आहत हैं कि युवा पीढ़ी के कलाकार हिमाचली लोक संगीत को तवज्जो नहीं देते हैं, परंतु सहगल ने एक नई शुरुआत हिमाचल में शास्त्रीय संगीत को सिखाने में की, जिसमें उन्होंने संगीत में रुचि रखने वाले प्रदेश के युवाओं को लोक संगीत के माध्यम से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा दी। डा. सहगल ने बताया कि यदि गहराई से हिमाचली लोक संगीत को समझा जाए, तो लोक संगीत में भी गहरे राग छिपे हैं। केंद्र सरकार द्वारा गजल व लोक संगीत में उच्च श्रेणी के कलाकार घोषित डा. केएल सहगल कहते हैं कि लोक संगीत में किसी भी प्रकार की मिक्सिंग नहीं होनी चाहिए। उनका कहना है कि जब उनके लिए 15 अप्रैल, 2017 को हिमाचल गौरव के पुरस्कार की सूचना मिली, तो उन्हें इस बात से खुशी हुई कि आखिरकार एक कलाकार की भी इवैल्यूएशन हुई है। उन्होंने कहा कि यह पुरस्कार वह सिरमौर के लोगों को समर्पित करते हैं, क्योंकि डा. सहगल की पहचान सिरमौर जिला से है। मूल रूप से जिला सिरमौर के राजगढ़ क्षेत्र के गांव भूईरा निवासी डा. केएल सहगल की प्रारंभिक शिक्षा प्राथमिक पाठशाला भूईरा में हुई। उसके बाद उन्होंने राजकीय पाठशाला राजगढ़ से दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। डा. सहगल ने प्राथमिक पाठशाला के दौरान जो बाल सभाएं होती थीं, उस दौरान सुबह की सभा के दौरान प्रार्थना व प्रत्येक शनिवार को होने वाली बाल सभाओं में अपनी गायकी की शुरुआत की। उन्होंने ‘दिव्य हिमाचल’ से विशेष बातचीत में बताया कि उन्हें शिक्षकों का प्रोत्साहन मिला कि उनकी आवाज बेहतर है। राजगढ़ में उच्च विद्यालय के दौरान उन्हें गायन के साथ-साथ एक सहयोगी दोस्त वैद्य सूरत सिंह चौहान के पुत्र जय प्रकाश चौहान मिले, जिनका तबला वादन में उन्हें सहयोग मिला। उन्होंने प्राइवेट पढ़ाई कर स्नात्तक व स्नातकोत्तर की शिक्षा ग्रहण की। उसके बाद उन्होंने एमफिल की पढ़ाई हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से नियमित पूरी की। डा. सहगल की पहली नियुक्ति बतौर म्यूजिक टीचर केंद्रीय विद्यालय पालमपुर में 1980 में हुई थी। उसके बाद वह केंद्रीय विद्यालय सपाटू, जाखू आदि जगहों पर रहे। डा. सहगल ने वर्ष 1988 में हिमाचल प्रदेश के उच्च शिक्षा विभाग में रामपुर कालेज में बतौर म्यूजिक प्रोफेसर सेवाएं दीं। उसके बाद वह प्रदेश के कई कालेजों में बतौर म्यूजिक प्रोफेसर सेवाएं देते रहे। वह राजकीय महाविद्यालय करसोग से सेवानिवृत्त हुए।

– सूरत पुंडीर, नाहन

CEREERजब रू-ब-रू हुए…

लोक संगीत में हिमाचली भाषा का उद्गम…

आपको क्यों लगता है कि युवा पीढ़ी लोक-संगीत को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं सुन रही?

क्योंकि वर्तमान युवा पीढ़ी संगीत की समृद्ध परंपरा से अनभिज्ञ है इसलिए लोक संगीत को सही ढंग से सुनने तथा प्रस्तुत करने में विसंगति होना स्वाभाभिक है।

हिमाचली गायक कसूरवार हैं या साहित्य की ऊर्जा लोक संगीत को नहीं मिल रही?

लोक साहित्य तथा लोक संगीत स्वतः ऊर्जावान हैं। वर्तमान लोक गायकों के पास समय नहीं कि वे लोक गीतों के साहित्यक परिप्रेक्ष्य का अवलोकन करने की चेष्टा करें। इस दिशा में हमें अपनी मिट्टी से जुड़ा होना आवश्यक समझा जा सकता है।

 हिमाचली शिक्षण संस्थानों में गीत-संगीत के प्रति उत्साह क्यों हाशिए पर है?

हिमाचल प्रदेश के शिक्षण संस्थानों में संगीत शिक्षण को मूलभूत सुविधाएं पर्याप्त नहीं हैं। जहां सुविधाएं हैं, वहां विद्यार्थी अवश्य प्रगतिशील तो हैं परंतु संख्या बहुत कम है।

क्या आप नहीं समझते कि समाज की तालियां, सरकारी प्रश्रय या पुरस्कारों से कहीं ज्यादा प्रोत्साहन दे सकती हैं?

अवश्य समाज किसी भी कलाकार को प्रोत्साहित करने में उसका उत्साहवर्द्धन करता है। तालियों की गड़गड़ाहट से सदैव हौसला बुलंद हो जाता है, परंतु कला का सही मूल्यांकन करने के लिए तालियां व सीटियां मिलना पर्याप्त नहीं हैं। पारखी एवं कला मर्मज्ञ तथा कुशल मार्गदर्शक एक कलाकार की कसौटी को परखने में महत्त्वपूर्ण आकलन कर सकता है।

इस दिशा में आकाशवाणी की भूमिका को आप कैसे रेखांकित करेंगे?

लोक संगीत के प्रचार एवं प्रसार के लिए आकाशवाणी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। रेडियो के माध्यम से घर-घर में अनेक कार्यक्रम सुनने से लाभ हुआ है। जहां तक लोक संगीत की बात है इस विषय में कहा जा सकता है कि हरेक जनपद का लोक संगीत सुनने को मिला है, परंतु लोक गीतों की पृष्ठभूमि में व्यवस्थित संगीत में कमी दिखाई देती है।

क्या हिमाचली लोक संगीत की विविधता से हिमाचली भाषा का संगम ढूंढना आसान नहीं, तो फिर ऐसे प्रयास की रुकावट कहं है?

निश्चय ही हिमाचली संगीत में विविधता है। यह कार्य मेरे विचार से हिमाचल भाषा कला संस्कृति विभाग से जुड़ा है। मुझे लगता है कि संगीत के माध्यम से इस पहाड़ी प्रदेश की बोलियों में एकरूपता में पिरोना आसान नहीं, तो असंभव भी नहीं है।

आपके अनुभव से हिमाचली लोक संगीत को जिन कलाकारों ने पूजा और संरक्षण दिया?

यहां मैं अपने अनुभव के आधार पर कुछ गायकों के नाम उजागर कर रहा हूं, जिन्होंने लोक संगीत के क्षेत्र में अपना योगदान दिया है। इनमें चंबा से प्रेम सिंह व साथी, कांगड़ा से प्रताप चंद शर्मा, मंडी से ज्वाला प्रसाद शर्मा व अच्छर सिंह परमार, कुल्लू से भगवती देवी व हेतराम भारद्वाज, सिरमौर से डा. कृष्ण सिंह, लेखराम शर्मा, उदय राम बाऊनली व साथी, महासुवी कलाकारों में रोशनी देवी तथा हेतराम तंवर मुख्य रूप से नामी कलाकार रहे हैं। इसके अलावा प्रोफेसर अन्नंत राम चौधरी, जो कि मेरे पारंपरिक गुरु रहे हैं, के अलावा वर्तमान गुरु प्रोफेसर सोमदत्त भट्टू ने हमेशा मेरा मार्गदर्शन किया है।

हिमाचली लोक संगीत का भविष्य किन बातों पर टिका है और इस दिशा में किसको क्या भूमिका निभानी होगी?

हिमाचल की सुंदर वादियों में संगीत सरिता अविलंब गति से प्रवाहमान है। आवश्यकता इसके संरक्षण की है। इस संबंध में संगीत संगोष्ठियां तथा सेमिनार का आयोजन किया जाना अनिवार्य है। सरकार को इस धरोहर को बचाने के लिए आगे आना होगा।

विभिन्न सांस्कृतिक समारोहों के बावजूद लोक कलाकार का रुतबा क्यों नहीं बढ़ रहा?

मेरे विचार में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन मनोरंजनात्मक तथ्यों की ओर झुका रहता है। ऐसे आयोजनों में संस्कृति की झलक अवश्य देखी जा सकती है, परंतु अच्छे कलाकारों का मूल्यांकन नहीं हो पाता। बेहतरीन कलाकारों को उचित मानदेय भी नहीं मिल रहा है, जिसके चलते बेहतर कलाकार आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं।

इन समारोहों की रूपरेखा को किस तरह प्रादेशिक कलाकारों से जोड़ा जा सकता है?

समाचार पत्रों के माध्यम से कई बार देखने- पढ़ने से ज्ञात हुआ कि समारोह में कलाकारों की छंटनी की जा रही है। चयनित कलाकारों को प्रदर्शन के लिए मात्र पांच से सात मिनट का समय निर्धारित किया जाता है। कलाकारों की संख्या पहले से तय की जानी चाहिए। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि प्रस्तुतकर्ता पारंपरिक वेशभूषा व वाद्य यंत्रों के साथ प्रस्तुति दें। स्थानीय कलाकारों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

जीवन के किसी बड़े लक्ष्य में अब तक आपकी उपलब्धि और अरमानों की इस डोर का अगला किनारा कहां देखते हैं?

बचपन से संगीत से जुड़ा हूं। मेरा लक्ष्य लोक संगीत को जन-जन तक पहुंचाना है। संगीत शिक्षण के माध्यम से अनेक संगीत प्रेमी विद्यार्थियां तथा नवोदित कलाकरों से जुड़ा हूं, जिन्हें प्रदेश की संस्कृति के संरक्षण के प्रति जागरूक करता रहा हूं। इस संबंध में संतोषजनक परिणाम प्राप्त कर स्वयं को सौभाग्यशाली मानता रहा हूं। भविष्य में इस मिशन को जारी रखने जा रहा हूं।

लोक संगीत में आप सबसे अधिक किस गायक के दीवाने रहे या जिसे बार-बार गुनगुनाना चाहते हैं?

संगीत में जब से होश संभाला है, तब से लेकर आयोजनों में अनेक लोक संगीत कलाकारों को सुनने का अवसर प्राप्त होता रहा। सभी में कुछ न कुछ अच्छा लगा, परंतु मैं किसी विशेष गायक का दिवाना कभी नहीं रहा। मेरी गायकी में उन सभी गुणी लोगों के गायन का मिश्रण है, जिसे मैंने व्यवस्थित रूप से अपनाने में प्रदेशवासियों से आशीर्वाद प्राप्त किया।

हिमाचली लोक संगीत की रुहानियत को आप कैसे देखते हैं?

हिमाचली संगीत में जो मिठास है, वह अन्यत्र शायद कहीं भी दिखाई नहीं देती है। यह पहाड़ी प्रदेश अनेक जनपदों में विभाजित है। किसी भी क्षेत्र में जाएं, वहां का संगीत आपको मंत्रमुग्ध कर देता है।  यहां के लोक संगीत स्वर लहरियों में लोक मानस आनंदमय जीवन व्यतीत कर रहा है। हिमाचली संगीत यहां के जन-जन में बसा है।

पहली बार एक हिमाचली फिल्म ‘सांझ’ सिनेमाघरों में उतरी, ऐसे में गीत-संगीत के माधुर्य का बाजार या व्यापार देखते हैं या इस विधा का मूल्य केवल सरकारी प्रश्रय से ही संभव ?

 मैं इस हिमाचली फिल्म ‘सांझ’ को नहीं देख पाया हूं। इसके बारे में कोई टिप्पणी नहीं कर पा रहा हूं।

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