वैमनस्य फैलाने की राजनीतिक लत

By: May 25th, 2017 12:05 am

पीके खुरानापीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

हमें ऐसे नेताओं की आवश्यकता है जो किसी जाति, धर्म अथवा संप्रदाय विशेष के  प्रवक्ता न होकर, समूचे राष्ट्र के  प्रवक्ता हों। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, लोकनायक जय प्रकाश नारायण ऐसे ही महान व्यक्ति थे, जिन पर पूरा समाज भरोसा करता था। बहुत  पुरानी बात नहीं है जब समाजसेवी बाबा अन्ना हजारे को  पूरे देश का समर्थन मिला। यह अलग बात है कि उनके आंदोलन को अरविंद केजरीवाल ले उड़े और केजरीवाल तो दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए लेकिन अन्ना हजारे अप्रासंगिक हो गए। लेकिन यह भी सच है कि चुनौतियां ही नए अवसर  प्रदान करती है…

सहारनपुर में स्थिति तनाव पूर्ण है, दलितों और राजपूतों में  परस्पर अविश्वास की भावना है। एक हत्या हो चुकी है और कई लोग घायल हैं। दोनों वर्ग एक-दूसरे  पर आरोप  लगा रहे हैं और यह भी तब हुआ है जब इससे पूर्व कभी भी स्थिति ऐसी विस्फोटक नहीं रही है। असहमतियां और छोटी-मोटी नाराजगियां  पहले भी रही हैं, लेकिन सहारनपुर के गांव शब्बीरपुर में हिंसा का ऐसा नंगा नाच हालिया घटना है और इसे नजरअंदाज करने का एक ही  परिणाम होगा कि समाज और बंटेगा, हिंसा फिर-फिर होती रहेगी और जान-माल का नुकसान होता रहेगा। सच तो यह है कि एक दूसरों  पर निर्भरता शायद वो वजह थी जिसकी वजह से गांव में इस तरह का कोई हिंसक विवाद पहले नहीं हुआ था, लेकिन महाराणा प्रताप जयंती समारोह के दौरान  पास के गांवों और अन्य राज्यों से आए बहुसंख्य लोगों की गांव के लोगों से जान-पहचान न होना वह एक बड़ा कारण था, जिसने हिंसा की  पहली चिंगारी भड़काई। सालों से एक-दूसरे के साथ रह रहे लोगों में जो रिश्ता बन जाता है वह बाहर से आए लोगों की भीड़ की बहुतायत में छिन्न-भिन्न हो जाता है और किसी भी एक ओर से जरा भी कड़वी बात कहने भर से हिंसा का माहौल बन सकता है, शब्बीरपुर में भी यही हुआ।

अलग-अलग राज्यों में हिंदू-मुसलमानों अथवा हिंदु-ईसाइयों के बीच भी हिंसक झड़पें होती रही हैं और हर बार  परिणाम सिर्फ जान-माल के नुकसान तथा आपसी अविश्वास के रूप में ही सामने आया है। इस सबके बावजूद समस्या का समाधान करने में कोई योगदान देने के बजाय राजनीतिज्ञों का सियासी दंगल जारी है। सामाजिक गैर बराबरी और आर्थिक असमानता ने कभी डाकुओं को जन्म दिया तो कभी आतंकवाद का कारण बने। उत्तर-पूर्र्व की नगा समस्या हो, कश्मीर घाटी का मुस्लिम असंतोष हो, कई राज्यों में फैला नक्सली आंदोलन हो या बीते जमाने का पंजाब का आतंकवाद, इन सबकी जड़ में भी कहीं न कहीं सामाजिक और आर्थिक असमानता की भूमिका रही है। क्या स्वतंत्रता के छः दशकों के बाद भी हम इसी सवाल  पर अटके रहें कि विभिन्न क्षेत्रों, धर्मों और जातियों में बंटा भारतीय समाज एक राष्ट्र की शक्ल कैसे लेगा और आर्थिक और सामाजिक गैर बराबरी के रहते वह राष्ट्र के रूप  में अपने अस्तित्व की रक्षा कैसे कर पाएगा?

यह एक ऐसी समस्या है, जिस  पर गहन चिंतन की आवश्यकता है। यह खेद का विषय है कि हमारा बुद्धिजीवी समाज, मीडिया और राजनेता इस मामले  पर भीष्म-पितामह सी चुप्पी साधे हुए हैं।  आज हमारे सामने भविष्य का सवाल है और यह भी कि क्या हम अपने इतिहास से कुछ सीख सकते हैं। केपीएस गिल के नाम से ज्यादा जाने वाले पंजाब के तत्कालीन  पुलिस महानिदेशक कंवर  पाल सिंह गिल को  पंजाब में आतंकवाद  पर नियंत्रण का श्रेय जाता है तो तिरुचिरापल्ली में  पुलिस कमिश्नर रहे 1985 बैच के आईपीएस अधिकारी जेके त्रिपाठी को त्रिची की विस्फोटक सांप्र्रदायिक स्थिति को हमेशा के लिए बदल देने के लिए जाना जाता है। उन्होंने न केवल नागरिकों की सोच को बदला बल्कि अत्यंत भ्रष्ट और जनता की दुश्मन मानी जाने वाली  पुलिस का चरित्र भी बदल डाला। उन्हें स्थानीय समुदायों से ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर  पर भी  प्रसिद्धि और  प्रशंसा मिली। वह  पहले ऐसे  पुलिस अधिकारी हैं, जिन्हें दो-दो अंतरराष्ट्रीय  पुरस्कार मिले। आइए, यह समझने की कोशिश करें कि उलझी लगने वाली इस समस्या का समाधान उन्होंने कैसे किया। त्रिची में स्थिति अजीब थी। यहां का समाज तीन बराबर हिस्सों में बंटा था जहां लगभग 33  प्रतिशत हिंदू, 33 प्रतिशत मुसलमान और 33  प्रतिशत ईसाइयों की आबादी थी और समाज के तीनों वर्ग एक-दूसरे के दुश्मन थे। त्रिपाठी जानते थे कि अपराध का जन्म  प्रशासन के विभिन्न संस्थानों की अकर्मण्यता के कारण भी हो सकता है। किसी कस्बे में एक मोहल्ले की लड़कियों को अगर बस पकड़ने के लिए दूसरे मोहल्ले के बस स्टाप पर जाना पड़े तो वहां के लड़के उनके साथ दुर्व्यवहार कर सकते हैं, कोई कच्ची और अंधेरी सड़क अपराध या नशीले  पदार्थों की बिक्री का साधन बन सकती है, स्ट्रीट लाइट न हो तो प्लंबर या इलेक्ट्रीशियन बनकर अपराधी घरों में घुस कर अपराध कर सकते हैं।

ऐसे में अधिक फोर्स मांगने से कुछ नहीं होगा, आदेश भर देने से कुछ नहीं होगा, जनता में भाषण देने से कुछ नहीं होगा, अतः उन्होंने अपने लोगों में से 50 ऐसे कांस्टेबल छांटे जो रिश्वतखोर नहीं थे और उन्हें आदेश दिया कि वे वर्दी  पहनना छोड़ दें, थाने में हाजिरी बजाना छोड़ दें और अपने मोहल्ले और आसपास नजर रखें, लोगों की गपशप पर ध्यान दें, जहां चार लोग इकट्ठे होते हों वहां जाएं और उनकी बातें सुनें। इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें सूचना के नए और पक्के स्रोत मिले, फिर उन्होंने विभिन्न वर्गों के नेताओं के साथ बैठक की, उनके सुझाव लिए, इससे जनता में विश्वास  पनपा, वर्गों में समन्वय होना आरंभ हुआ और सांप्रदायिक सद्भाव का माहौल बना। आज हमें फिर से अविश्वास की भावना को दूर करना है वरना पीडि़त लोग उस ढांचे को ही ध्वस्त कर देंगे, जिसे हमारी संविधान सभा ने इतनी मेहनत से बनाया था। हमें समझना होगा कि अपनी मांगें मनवाने के लिए संविधानेत्तर आंदोलनों से  परहेज आवश्यक है वरना अराजकता की राह  पर चलना शुरू करने के बाद कहीं कोई अंत नहीं है। वह अंत, जीवन के अंत के साथ ही आता है। अब समय है जब हमारी संवैधानिक संस्थाएं वंचित लोगों के लिए अवसरों का रास्ता खोलें और जनता के हर वर्ग को लोकतंत्र में हिस्सेदार बनाएं। हमें याद रखना चाहिए कि हमारी संविधान सभा सिर्फ संविधान लिख सकती थी, इसकी कामयाबी उन लोगों  पर निर्भर है जो अब देश चला रहे हैं। हमें ऐसे नेताओं की आवश्यकता है जो किसी जाति, धर्म अथवा संप्रदाय विशेष के  प्रवक्ता न होकर, समूचे राष्ट्र के  प्रवक्ता हों।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, लोकनायक जय प्रकाश नारायण ऐसे ही महान व्यक्ति थे, जिन पर पूरा समाज भरोसा करता था। बहुत  पुरानी बात नहीं है जब समाजसेवी बाबा अन्ना हजारे को  पूरे देश का समर्थन मिला। यह अलग बात है कि उनके आंदोलन को अरविंद केजरीवाल ले उड़े और केजरीवाल तो दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए लेकिन अन्ना हजारे अप्रासंगिक हो गए। लेकिन यह भी सच है कि चुनौतियां ही नए अवसर  प्रदान करती हैं। ऐसे में यदि बाबा अन्ना हजारे या कोई भी अन्य नेता सूझबूझ से काम लेकर सहारनपुर क्षेत्र में सांप्रदायिक सद्भाव के लिए काम करें, तो न केवल यह सामाजिक वैमनस्य दूर होगा, जान-माल का खतरा समाप्त होगा, बल्कि उस नेता को भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिल सकती है। मैं नहीं जानता कि ऐसा तुरंत संभव हो पाएगा या नहीं, हमारे नेता सांप्रदायिक सद्भाव के लिए काम करेंगे या फिर राजनीति की रोटियां सेकेंगे, बुद्धिजीवी वर्ग क्या भूमिका निभाएगा और मीडिया का रुख क्या होगा। मैं उम्मीद ही कर सकता हूं कि यह स्थिति लंबे समय तक नहीं चलेगी और इस समस्या के समाधान के लिए शीघ्र ही कोई स्थायी हल निकाला जाएगा ताकि समाज में शांति हो, सद्भाव हो, सुरक्षा हो और उन्नति हो। बवाल के सवाल का जवाब सिर्फ यही है।

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