सवालों की सलाखों के पीछे

By: May 13th, 2017 12:02 am

सवालों की सलाखों के पीछे विवाद को समझना आसान होता, तो राजनीति अपने काले सायों को छिपा लेती, इसलिए हिमाचल में भी नरमुंडे प्रश्न खूंखार होते जा रहे हैं। कहां तो कांग्रेस के दामन में हमीरपुर भाजपा का एक नेता सिमट गया और कहां प्रश्न यह उठता है कि बिलासपुर का विधायक अपनी ही पार्टी के पूर्व मंत्री को क्यों कोसता है। कांग्रेस और कांग्रेस सरकार के बीच अंतर ढूंढने पर यह पता नहीं चल रहा कि किसके पत्ते कौन फेंट रहा है। बहरहाल जितना गुस्सा मुख्यमंत्री दिखा सकते हैं, उससे कहीं अधिक बिलासपुर भिड़ंत पर वीरभद्र सिंह बोले, लेकिन सरकार की नाव पर इस कद्र उन्माद क्यों सवार है। दूसरी ओर सवारी बनकर कुछ नेता राजनीति के गहरे जलाशय के उसपार जाना चाहते हैं। हमीरपुर इसका गवाह बना, तो कांग्रेस में शरीक होते कदमों की ताकत और दिशा का अंदाजा लगाया जाएगा। सवाल शामिल होने पर उठेगा, तो भाजपा से मोहभंग होने का कारण भी तो पूछा जाएगा। ऐसे ही प्रश्नों के दर्शन में सोलन के दर्शनार्थी यह नहीं समझ रहे कि आखिर एक बाबा के करामाती होने का सबब क्या है। राम मंदिर बनाने पर तुली भाजपा के लिए बाबा अमरदेव का ‘राम लोक’ अगर सही संसार नहीं है, तो कांग्रेसी सत्ता में प्रश्रय पर सवाल तो बहुतेरे उठेंगे। एक बाबा ने सचमुच साबित कर दिया कि जिस भगवा पर भाजपा का पेटेंट है, वह इस बार कांग्रेसी नेताओं पर असरदार है। इस पूरे प्रकरण से उभर कर एक ही प्रश्न उठता है कि क्या वाकई बाबा लोग व बाबा लोक अब सियासी संपत्ति बन गए हैं। धर्मार्थ और परमार्थ के मार्ग पर कई हिमाचली संपत्तियां पूरी तरह दरबान की तरह दिखती हैं और यहां से गुजरते नेता इनके प्रति आस्था को प्रकाशमान कर देते हैं। बाबा अमरदेव को पीटने का हक कानून किसी को नहीं देता, भले ही देवभूमि का उल्लंघन करती परंपराएं पैदा हो रही हैं। खास बात यह भी कि ऐसे कई अन्य बाबाओं  की शक्ति का परिचय हमें तब मिलता है, जब शक्तिशाली नेता और प्रभावशाली अधिकारी उनके दरबारी होते हैं। विरोध के बावजूद बाबाओं का तिलिस्म बरकरार है, तो क्या हम यह भूल जाएं कि राजनीतिक इच्छाशक्ति इनके खिलाफ एकत्रित नहीं हो सकती है। प्रश्न घूरते हैं, लेकिन पूछते नहीं कि सामान्य नागरिक से अव्वल बाबा क्यों हो जाते हैं और यह भी कि इनकी संख्या में नेताओं के समर्थन का अनुपात छात्र-शिक्षक से बेहतर कैसे हो रहा है। खैर अब तो प्रशनों की खेती हिमाचली खेतों से कहीं अधिक और बंदर की उछलकूद से कहीं आगे निकलकर होगी और तब हर प्रश्न अपने आप में एक चुनाव होगा। इसलिए शिमला नगर निगम के चुनाव का मूड हलाल हो गया तो सवाल और यह सब क्यों हुआ, सबसे बड़ा प्रश्न बन गया। विपक्ष के लिए हर मुद्दे को जुबान देना, उस कठघरे की तरह है जो केवल सुनता है फिर भी खोमाश रहता है। इसलिए शिमला शहर की आबरू में नगर निगम चुनावों की पड़ताल खूब होगी और आशाएं उस समुद्र की तरह, जो दिल्ली में ‘आप’ को डुबो सकती हैं तो फिर हिमाचल में भी बादल फटकर, आपदा की तरह ही बरसेंगे। हिमाचल में राजनीतिक आपदा का खतरा अगर मंडरा नहीं रहा होता, तो बंबर बनाम राम लाल किस्सा न होता या नगर निगम के चुनाव का टलना विवादित भी न होता। प्रश्नों से आहत हिमाचल और अपने सवालों से जूझती जनता के लिए राजनीति खुद एक बड़ा प्रश्न बनकर खड़ी है। मोदी लहर की भाजपा में हिमाचल के प्रश्न मिट जाएंगे या वीरभद्र सरकार सवालों की सूली पर चलकर भी न घायल होगी और न ही परेशान रहेगी। चुनाव आते-आते प्रदेश का मुकद्दर किन सवालों के उत्तर ढंूढ पाएगा, इसी कसौटी में हर आरोप के पीछे एक बड़ी संभावना और क्षमता का सवाल भी तो नत्थी है।

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