स्मृतियों के हाशिए पर जोरावर सिंह

By: May 8th, 2017 12:05 am

10 दिसंबर, 1841 को तिब्बती सेना ने तकलाकोट से चार किमी पहले तोयो नामक स्थान पर जोरावर सिंह व उसकी सेना को घेर लिया। तीन दिनों तक भयंकर युद्ध होता रहा। 12 दिसंबर, 1841 को डोगरा सेनापति जोरावर सिंह के कंधे पर गोली लगी और वह घोड़े से गिर गए। अब वह तलवार लेकर एक हाथ से लड़ता रहा। अंततः वीरगति को प्राप्त हुआ। जोरावर सिंह के अवशेषों को तोयो के पास एक स्तूप में रख दिया गया, जिसका नाम सिंह छोरतन (समाधि) रखा गया। विश्व के इतिहास में एक अनोखी घटना है कि विजेताओं ने बहादुर शत्रु सेनानायक की समाधि बनाई हो। सेनानायक की शहादत के बाद डोगरा सेना पीछे हटने लगी…

…बाल्टीस्तान के अभियान में जोरावर सिंह की सेना को भारी कष्ट उठाने पड़े। कई दिनों के उपरांत महता बस्तीराम ने सिंधु नदी पर वाको दर्रे के पास बर्फ  का पुल बनाया। महता बस्तीराम सहित 40 आदमियों ने पुल को पार किया व बाल्टी सेना को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। अब डोगरा सेना ने भी नदी को पार कर लिया। 13 फरवरी, 1840 को थामो खोन नामक स्थान पर निर्णायक युद्ध में बाल्टी सेनापति वजीर गुलाम हुसैन मारा गया व सेना बुरी तरह से पराजित हुई। अब जोरावर सिंह स्कर्दू की ओर बढ़ा। कुर्रस के राजा ने अधीनता स्वीकार कर ली व स्कर्दू अभियान के लिए जोरावर सिंह के साथ चल पड़ा। जोरावर सिंह ने 1000 फुट ऊंची चट्टान पर बने स्कर्दू के किले को अपनी अधीन कर लिया। थोमो खोन व स्कर्दू की विजय से सारा बाल्टीस्तान जोरावर सिंह के अधीन हो गया। जोरावर सिंह ने स्कर्दू के राजा अमहदशाह को गद्दी से उतार कर उसके बेटे मोहम्मद शाह को राजा बनाया। मोहम्मद शाह ने 7000 रुपए वार्षिक कर देना स्वीकार किया। जोरावर सिंह अब वापस लद्दाख की ओर बढ़ा। रास्ते में डोगरा सेना में चेचक रोग फैल गया, जिसके कारण बहुत सारे सैनिक मारे गए व बुढ़ा ग्यालपो भी स्वर्ग सिधार गया। अब जोरावर सिंह ने ग्यालपो के पोते जिगस्मद को लद्दाख का शासक नियुक्त किया।

तिब्बत अभियान

जोरावर सिंह ने लद्दाख पहुंचने के बाद तिब्बत की ओर अभियान करने की योजना बनाई। जोरावर सिंह ने रूडोक प्रांत के गर्वनर से मांग की कि वह केवल लद्दाख से शाल-वूल का व्यापार करे व वार्षिक कर अदा करे। संतोषजनक उत्तर न मिलने पर जून, 1841 ई. में जोरावर सिंह ने पश्चिम तिब्बत की सीमांत चौकियों पर आक्रमण किया। एएच फ्रैंके के अनुसार जोरावर सिंह की सेना में छह हजार डोगरे तथा 3000 लद्दाखी व बाल्टी सैनिक थे। जोरावर सिंह ने बाल्टी सेनापति गुलाम खां व लद्दाखी सेनापति नोनो सोडनम के साथ आगे बढ़ने की योजना बनाई। जोरावर सिंह ने यहां पर अपनी सेना की तीन टुकडि़यां बनाईं। बाल्टी सेनापति गुलाब खां के नेतृत्व में पहली टुकड़ी रुपशु के रास्ते भेजी। यह टुकड़ी चूरिट, चमूरती, शपरंग व डावा पर अधिकार करते हुए गढ़टोक में जोरावर सिंह के साथ मिली। लद्दाखी सेनापति नोनो सोडनम के नेतृत्व में दूसरी टुकड़ी सिंधु नदी के किनारे से आगे बढ़ी व ताशीगोंग को अपने अधीन करके मुख्य सेना से जा मिली। तीसरी टुकड़ी वजीर के अधीन पैगांग झील की ओर से आगे बढ़ी। 5 जून, 1841 को जोरावर सिंह ने रुडोक को विजित करके गारफोन (किलेदार) को कैद कर लिया। वजीर, रुडोक मंे थानेदार मगना के अधीन फौज छोड़ कर आगे की ओर बढ़ गए। 7 अगस्त, 1841 गढ़टोक पर अधिकार करके तीर्थपुरी में डेरा डाला। चीनी रेजीडेंट मेंग पो  ने तिब्बती सेनानायक पी-हसी को विशाल सेना लेकर डोगरा सेना का मुकाबला करने का आदेश दिया। पी-हसी ने करदंग नामक स्थान पर डेरा डाल लिया। सितंबर महीने में घमासान युद्ध हुआ। चीनी व तिब्बती सेना की बुरी तरह पराजय हुई। जोरावर सिंह ने तिब्बतियों से मानतलाई का झंडा छीन लिया, जिस पर एक खूंखार चीते की तस्वीर बनी रहती थी। यह झंडा आज भी भारतीय सेना के पास उस विजय की यादगार में मौजूद है। जोरावर सिंह ने महता बस्ती राम को पुरंग प्रांत के दगलाखर या तकलाकोट के ऊपर अधिकार करने के लिए भेजा। इर्द-गिर्द के इलाकों की विजित करने के उपरांत अक्तूबर महीने में जोरावर सिंह ने तीर्थपुरी में डेरा डाला। दस हजार चीनी तिब्बती-सेना जनरल छात्रा के नेतृत्व में मात्संग के रास्ते से आकर डोगरा सेना को चारों ओर से तीर्थपुरी में घेर लिया। 7 नवंबर, 1841 को जोरावर सिंह को दुश्मन सेना के आने की सूचना मिली। उनको रोकने के लिए जोरावर सिंह ने दो टुकडि़यां आगे भेजीं, परंतु वे पूर्णतः असफल रहीं। जोरावर सिंह ने स्थिति को भांपते हुए तीर्थपुरी से तकलाकोट के लिए महता बस्तीराम से योजना बनाने के लिए आगे बढ़ाया। 10 दिसंबर, 1841 को तिब्बती सेना ने तकलाकोट से चार किमी पहले तोयो नामक स्थान पर जोरावर सिंह व उसकी सेना को घेर लिया। तीन दिनों तक भयंकर युद्ध होता रहा। 12 दिसंबर, 1841 को डोगरा सेनापति जोरावर सिंह के कंधे पर गोली लगी और वह घोड़े से गिर गया। अब वह तलवार लेकर एक हाथ से लड़ता रहा। अंततः वीरगति को प्राप्त हुआ। जोरावर सिंह के अवशेषों को तोयो के पास एक स्तूप में रख दिया गया, जिसका नाम सिंह छोरतन (समाधि) रखा गया। विश्व के इतिहास में एक अनोखी घटना है कि विजेताओं ने बहादुर शत्रु सेनानायक की समाधि बनाई हो। सेनानायक की शहादत के बाद डोगरा सेना पीछे हटने लगी। तिब्बती सैनिकों ने डोगरा सैनिकों का पीछा किया, जिसमें बहुत सारे सैनिकों को मौत की घाट उतार दिया व बंदी बनाया। भारतीय सेना के इतिहास में आयुधजीवी जोरावर सिंह को सदा महान सेनानायक, दूरदर्शी सैनिक एवं दूरदर्शी व महान योद्धा के रूप में याद किया जाता रहेगा। इस हिमाचली वीर ने अपने सैन्य जीवन में जो भी महान सफलताएं अर्जित कीं, उन्हें देखते हुए इस वीर की तुलना चंद्रगुप्त विक्रमादित्य से की जा सकती है, जिसने मध्य एशिया में हिंदुकुश पर्वत शृंखला पार कर बल्ख के कबाइलियों को पराजित किया। आज आवश्यकता है कि हम भारत के इस वीर सपूत के साहसिक कार्यों की गाथा को प्रत्येक भारतवासी तक पहुंचाएं, ताकि राष्ट्रभक्तों एवं वीरों की परंपरा सदैव ज्वलंत रहे।

— राकेश कुमार शर्मा, रिसर्च फैलो भारतीय इतिहास, अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली

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