अति राजनीति में हिमाचल

By: Jun 28th, 2017 12:05 am

सोच का प्रवाह, प्रशासन की राह, विपक्ष की चाह और जनता की परवाह जैसे फैक्टर मिलकर प्रदेश का राजनीतिक तापमान बढ़ा रहे हैं। यहां सियासत का हर मुहूर्त और अदायगी एक कर्म के मानिंद हाजिर है, जबकि प्रदेश अपने कूचे में सरोकारों की प्रतीक्षा में सब देख रहा है। इस दौरान राजनीतिक शास्त्र ने हर क्षेत्र को आने और समझाने की इत्तला दी है, इसलिए मुकाबलों के घोड़े चारों ओर दौड़ रहे हैं, जबकि चाहत के चाबुक से प्रदेश परेशान है। हम बारिश से पहले मोजे उतार कर मौजूं बता रहे, जबकि चुनाव की अदाएं कब हड्डियां तुडवां लें, मालूम नहीं। समाजशास्त्र की मजबूरी में निजी अभिलाषा के पैबंद इतने लंबे हो गए कि अपने ही सायों से बाहर निकल कर कुछ नए चेहरे राजनीति के नीम-हकीम बनने का तजुर्बा हासिल कर रहे हैं। कुछ अप्रवासी टाइप के हिमाचली खुद की समाजसेवा में सियासी अलख ढूंढ रहे हैं, जबकि रौनक-ए-बहार में मीडिया के कुछ अंश इसे भी प्रचार बना सकते हैं। समाजसेवा की दरख्वास्तों में सिफारिश यह कि अखबारें उन्हें जगह दें ताकि यह तबका प्रदेश के सामने अपनी दान की मुद्रा में वोट बटोर सके। कमोबेश हर जिला में समाजसेवा के मसीहा बढ़ गए, जबकि हकीकत में ये सियासत के फकीर हैं। ‘दिव्य हिमाचल’ के पास कांग्रेस और भाजपा के कई मंडलों ने ऐसे समाजसेवियों के खिलाफ शिकायत भेजकर बाकायदा यह हिदायत दे डाली कि हम पत्रकारिता की कड़छी को उनकी खिचड़ी में न डालें। कुछ दरियादिली युवाओं की ओर भी बढ़ी है और इसलिए दानवीरों का राजनीतिक समाज पैंतरे बदल कर महान भाव से खेल प्रोत्साहन में जुट गया है। खेल में सियासत का हवाला अब एक स्वीकार्य अंग की तरह है, लेकिन खेल-खेल में राजनीति की दरकार बढ़ जाएगी तो चुनाव का अपना खेल क्या होगा। बहरहाल जीत का दस्तूर भी यही है कि बंदा हर बंदिश में आगे रहे, इसलिए हिमाचल का राजनीतिक भविष्य हर पांच साल बाद जब पुनर्जन्म लेता है, तो इसके हकदार भी भरोसे को परोसते हैं। क्योंकि राजनीतिक भरोसे की अपनी शर्तें होती हैं, लिहाजा हर तरह के संगठन अपनी तान छेड़ते हैं और सियासत खूब नाचती है। कुछ इसी तर्ज पर सामाजिक व जातिगत संस्थाएं भी राजनीतिक पड़ाव में डेरा डाल कर जो मांग सकती हैं, उसका दौर शुरू है। सरकार की बुनियाद पर आरक्षण, क्षेत्ररक्षण और अनशन के डमरू बजाती भीड़ बताती है कि राजनीति कितना बड़ा व्यवसाय बनती जा रही है। गरीबों (?) को आशा है कि प्रलोभनों और संबोधनों से मालामाल रहेंगे, जबकि नए कार्यकर्ता या यूं कहें कि समर्थकों का इस ताक में होना स्वाभाविक है कि आगे के राजनीतिक समीकरण उन्हें ठेकेदारी का द्वार या सरकार का रोजगार उपलब्ध कराएंगे। इस दौरान स्वाभाविक मुद्दों के बजाय राजनीति खुद अपने मुद्दे परोसेगी और परोस भी चुकी है, ताकि संघर्ष व बगावती मूड बना रहे। राजनीति अपने फायदे के लिए किसी कार्यालय, संस्थान या मुकाम को मुद्दा बना सकती है। इसलिए केंद्रीय विश्वविद्यालय के अस्तित्व की जमीन पर सियासत के डेरे लगे हैं। राजनीतिक प्रशंसा और अवरोध अपनी-अपनी तरह के मुद्दे हैं। एक ओर हिमाचल सरकार ने अगले दशक की घोषणाओं को मुद्दों की तालीम दी, तो दूसरी ओर मोदी सरकार के मील पत्थर सजाए जा रहे हैं। जनता धन्य होना चाहती है, इसलिए राजनीति खुद अपना स्वयंवर रचाती है और यह आम मतदाता के लिए पता नहीं कैसी खबर है, फिर भी हर खास और आम फैसले की तरह सियासत का मंचन भी यही दरख्वास्त करता है। राजनीति बारूद की तरह फटने का खौफ है, तो लोकतांत्रिक सदमे के बीच नूर है। हर बार राजनीति अपने भ्रम में जीतती या हारती है या मतदान अनाथ होता है, यह कोई नहीं जानता, लेकिन सत्य तो अब हिमाचली नागरिक की फिसलती जुबान भी नहीं बताती। नागरिक के हित में राजनीति एक बरसात की तरह बहती है, तो मतदाता के रूप में वह भी अपनी किश्तियां उतार देता है। सियासत अब समाज की आदत है, इसलिए हिमाचली जागरूकता के आगे बीन बजाती राजनीति को भी मालूम नहीं कि अंततः चुनाव की संवेदना होगी क्या?

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