अमरीका के बिन जलवायु मुहिम

By: Jun 5th, 2017 12:05 am

आज विश्व पर्यावरण दिवस है। पर्यावरण के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण की भी याद आती है। बेशक जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक चुनौती और मानवीय परिस्थिति से जुड़ा भीषण खतरा है। यदि हमारी धरती यूं ही तपती-जलती रही, तो मानव और जीव की प्रकृति पर ही नकारात्मक असर पडे़ंगे। बढ़ते तापमान से आम आदमी का गुस्सा बढ़ेगा, चिड़चिड़ापन उग्र होगा और वह ज्यादा हिंसक होता जाएगा। इनसानों में एलर्जी की समस्या भी बढ़ेगी। चींटियां पारिस्थितिकी संतुलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वे खेतों में कीड़े-मकौड़े चट कर जाती हैं और फसलों के पोषक तत्त्वों को बचाए रखती हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन से चींटियों का व्यवहार भी बदलेगा। दुनिया में ज्वालामुखी ज्यादा सक्रिय होंगे, आकाश में बिजली की कड़कड़ाहट बढ़ेगी, जिससे जंगली आग की समस्या भी बढ़ेगी, समुद्रों में अंधेरा बढ़ेगा और पशुओं का आकार घटने लगेगा। जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान के और भी भयावह खतरे हो सकते हैं। भारत में ही प्रदूषण से औसतन प्रति मिनट में 2 मौतें होती हैं, तो पूरे विश्व स्तर की कल्पना हमें कंपा सकती है। ऐसे में अमरीकी राष्ट्रपति टं्रप ने जलवायु परिवर्तन के पेरिस समझौते से अमरीका को अलग करने की घोषणा की है, तो उनके विवेक, ज्ञान, राष्ट्रीय प्रतिबद्धता आदि पर तरस आता है। दुनिया की आबोहवा बिगाड़ने में अमरीका की करीब 21 फीसदी हिस्सेदारी है। अभी वह दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा प्रदूषक देश है। प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के मामले में तो अमरीका पहले स्थान पर है। बेशक कार्बन उत्सर्जन के लिहाज से चीन सबसे आगे है, लेकिन अमरीका जब तक उत्सर्जन थामने के लिए अपने हिस्से की जिम्मेदारी नहीं निभाएगा, तब तक बाकी देश पेरिस समझौते के मूल लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकेंगे। पेरिस समझौते से अलग होने की ट्रंप की दलील अर्थव्यवस्था से जुड़ी है कि अमरीका में 2025 तक 27 लाख नौकरियां खत्म हो सकती हैं। यदि ऐसा ही सच होता, तो अमरीका में ही गूगल, फेसबुक, एप्पल, माइक्रोसॉफ्ट, इंटेल, एचपी और मॉर्गन स्टेनले आदि कई बड़ी कंपनियों ने राष्ट्रपति टं्रप को खुला पत्र लिखकर पेरिस समझौते में बने रहने का अनुरोध क्यों किया? जिन 195 देशों ने समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, उनमें अमरीका भी शामिल था। सवाल है कि अमरीका में राष्ट्रपति बदलते ही क्या राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय रवैया तथा सोच भी बदल जाते हैं? टं्रप ने पेरिस समझौते से अलग होने का बहाना चीन, भारत और यूरोप को होने वाले फायदे में तलाशा है। हकीकत यह है कि भारत को पेरिस करार के तहत अभी तक जो 19,976 करोड़ रुपए का अनुदान मिला है, उसमें अमरीकी योगदान सिर्फ  644.40 करोड़ रुपए का है। दरअसल भारत के लिए जो लक्ष्य तय किया गया था, वह उसमें करीब 8 साल आगे है। समझौते की डेडलाइन के वर्ष 2020 के दो साल बाद ही भारत 40 फीसदी बिजली गैर-पारंपरिक स्रोतों से पैदा करने लगेगा। 2030 में भारत, 2005 की तुलना में, कार्बन उत्सर्जन 35 फीसदी तक कम करने लगेगा। यह है पर्यावरण के प्रति भारत की चिंता और प्रयासों की एक बानगी। चीन ने भी इसी साल 100 से अधिक कोयला संयंत्रों का निर्माण रद्द करने की घोषणा की है। अमरीका अपने गिरेबां में झांक कर तो देखे! उसे 2025 तक उत्सर्जन 26-28 फीसदी कम करना था, लेकिन 2005 के स्तर पर जो आकलन सामने आए हैं, उनके मुताबिक यह 13-15 फीसदी तक ही घटा है। तो विश्व में ज्यादा प्रदूषण फैलाने का ‘खलनायक’ कौन है? दरअसल पेरिस समझौते के तहत तय हुआ था कि विकसित देशों को विकासशील और गरीब देशों को आर्थिक और तकनीकी मदद करनी थी। उन्हें 2020 से कम से कम 100 अरब डॉलर का अनुदान देना था। साफ  है कि अमरीका के पांव खींचने से जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए जरूरी इस आर्थिक मदद में अब कमी आएगी। कई देशों ने तो इसी मदद की उम्मीद में पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। दरअसल अमरीका को लगता है कि ऐसी मदद भारत, चीन जैसे देशों को भी मिलेगी, जिससे उन्हें फायदा होगा। वैसे भी यह टं्रप का चुनावी वादा था कि वह राष्ट्रपति बने, तो अमरीका को पेरिस समझौते से अलग करेंगे। आखिर टं्रप ने वह कर ही दिखाया है। भारत, चीन का तो बहाना है। अब जलवायु परिवर्तन का पूरा अभियान अमरीका के बिना ही चलाना पड़ेगा। अधिकतर देशों ने स्वच्छ पर्यावरण के प्रति अपनी निष्ठा जताते हुए घोषणा की है कि वे पेरिस समझौते के तय लक्ष्यों को हासिल करके दिखाएंगे। भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने रूस में इंटरनेशनल इकॉनोमिक फोरम के मंच से साफ  कर दिया है कि भारत तो 5000 सालों से पर्यावरण की रक्षा करता आया है। उसे अमीर देशों के ‘अरबों रुपयों’ की दरकार बिलकुल भी नहीं है। यह भारत की आत्मा की आवाज है कि प्रकृति से खिलवाड़ नहीं किया जाना चाहिए। भारत, चीन से लेकर यूरोपीय संघ और वेटिकन के पोप तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने ट्रंप के फैसले की थू-थू की है, लेकिन महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि शताब्दी के अंत तक 2 डिग्री सेल्सियस तापमान कम करने का जो लक्ष्य तय किया गया था, क्या उसके आसपास भी दुनिया पहुंच पाएगी?

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