अमरीकी दंभ की बलि चढ़ता पृथ्वी का भविष्य

By: Jun 7th, 2017 12:05 am

( एन के सोमानी लेखक, गंगानगर से हैं )

एन के सोमानी कार्बन उत्सर्जन में कटौती का असर भारत जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं पर सबसे अधिक पड़ेगा। साल 2030 तक भारत ने अपनी कार्बन उत्सर्जन की गति को 2005 के मुकाबले 33-35 फीसदी तक कम करने का लक्ष्य रखा है। इसके अलावा यूएनईपी की उत्सर्जन अंतराल संबंधी रिपोर्ट भी ट्रंप के आरोप को झूठा साबित करने के लिए काफी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जी-20 देशों में से जो उत्सर्जन के अधिकांश हिस्से के लिए जिम्मेदार है, केवल यूरोपिय संघ, भारत और चीन ही लक्ष्यों के अनुरूप चल रहे हैं…

अमरीका को दोबारा महान बनाने के लिए राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा शुरू की गई मुहिम ने पेरिस जलवायु समझौते को संकट में डाल दिया है। इस समझौते पर भारत सहित दुनिया के 200 देशों ने हस्ताक्षर कर विश्व का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस तक कम करने का संकल्प लिया है। दिसंबर 2015 में कई दिनों की गहन बातचीत के बाद पेरिस जलवायु समझौते की नींव रखी गई थी।

पर्यावरण सुरक्षा और भावी पीढि़यों को एक सुंदर संसार प्रदान करने के उद्देश्य से अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इस समझौते को लागू करवाया था। नंवबर 2016 में समझौते के लागू होने के बाद इसके परिणाम आते, उससे पहले ही वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमरीकी हितों की दुहाई देकर समझौते से हाथ पीछे खींच लिए। निसंदेह अमरीका के इस कदम ने पर्यावरणविदों को सकते में डाल दिया है। हालांकि दुनिया के दूसरे नंबर के कार्बन उत्सर्जक देश चीन का रुख सकारात्मक है । चीन ने स्पष्ट कहा है कि वह अन्य देशों के साथ मिलकर समझौते को आगे बढ़ाएगा। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि अमरीका के हटने के बाद अब समझौते का भविष्य क्या होगा? क्या कार्बन उत्सर्जन करने वाले दूसरे देश जिन्होंने धरती पर पर्यावरण संतुलन बनाए रखने का संकल्प लेते हुए समझौते के मसोदे पर हस्ताक्षर किए थे, वे अब राष्ट्र हित के नाम पर समझौते से अलग होने की कोशिश नहीं करेंगे। इसके अलावा जिस तरह से ट्रंप ने अमरीकी हितों के अनुरूप समझौते के प्रावधानों में परिर्वतन की बात कही है उससे साफ है कि अमरीका अपनी शर्तों पर ही समझौते में बने रहना चाहता है। ट्रंप का मानना है कि पेरिस समझौता अमरीका पर आर्थिक बोझ डालता है, इस लिए समझौते में कुछ उचित परिवर्तन किए जाएं जिससे अमरीका के औद्योगिक हितों की रक्षा हो सके। ऐसी स्थिति में क्या गांरटी है कि नए प्रावधानों पर दूसरे देश सहमत हो सकेंगे? अमरीका के नक्शे कदम पर चलते हुए बाकी सदस्य भी अपने- अपने देशों के लिए रियायती प्रावधानों की मांग करने लगेंगे, तो समझौते का स्वरूप व उद्देश्य क्या रह जाएगा, यह भी विचारणीय बिंदू है। हालांकि राष्ट्रपति ट्रंप के इस निर्णय की दुनियाभर में आलोचना हो रही है। अमरीका के भीतर भी उनको आलोचना का सामना करना पड़ रहा है।

क्या है पेरिस समझौताः पृथ्वी को जलवायु परिवर्तन के खतरे से बचाने और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को निश्चित सीमा तक बनाए रखने के उद्देश्य को लेकर सन् 1992 में रियो-डी-जेनेरियो में पृथ्वी सम्मेलन के अवसर पर पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (यूएनसीईडी) में ’ दी यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क  कन्वेंशन आन क्लाइमेट चेंज’ (यूएनएफसीसीसी) नामक एक अंतरराष्ट्रीय संधि की गई। 1994 में निर्मित इस संधि का उद्देश्य तेज गति से बढ़ रहे वैश्विक तापमान में कमी लाने के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना था। यूएनएफसीसीसी में शामिल सदस्य देशों का सम्मेलन कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी) कहलाता है। वर्ष 1995 से सीओपी के सदस्य देश प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले शिखर सम्मेलन में मिलते हैं। पिछले वर्ष दिसंबर में पेरिस में आयोजित सीओपी की 21 वीं र्बैठक में कार्बन उत्सर्जन में कटौती के जरिये वैश्विक तापमान में होने वाली वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने और 1.5 डिग्री सेल्सियस के आर्दश लक्ष्य को लेकर एक व्यापक सहमति बनी थी। इस बैठक के बाद सामने आए 18 पन्नों के दस्तावेज को सीओपी-21 समझौता या पेरिस समझौता कहा जाता है। अक्तूबर, 2016 तक 191 देश इस समझौते पर हस्ताक्षर कर चुके थे। पेरिस समझौते के पहले ही दिन 177 सदस्यों ने इस पर हस्ताक्षर कर दिए थे।

समझौते के लागू होने के लिए 2020 को आधार वर्ष माना गया है, लेकिन सदस्य देशों के बीच समझौते के प्रावधानों पर सहमति हो जाने पर इसे पहले भी लागू किए जा सकने का प्रावधान किया गया है। भारत ने 2 अक्तूबर व यूरोपीय संघ ने 5 अक्तूबर 2016 को हस्ताक्षर कर इसके प्रावधानों को स्वीकार कर लिया है। 4 नवंबर, 2016 को पेरिस जलवायु समझौता औपचारिक रूप से अस्तित्व में आ गया। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सितंबर 2016 में इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, तब उन्होंने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 28 प्रतिशत की कमी लाने का निश्चय किया था । समझौते के तहत अमरीका ने गरीब  देशों को तीन बिलियन डालर सहायता राशि देने के लिए हामी भरी थी। चीन ने भी अगस्त 2016 में समझौते को स्वीकार कर लिया था।

पेरिस समझौते से अमरीका के हाथ खींच लेने से साल 2030 तक विश्वभर में 3 अरब टन ज्यादा  कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होने लगेगा, क्योंकि दुनिया के कुल कार्बन उत्सर्जन में करीब 15 फीसदी हिस्सेदारी अकेले अमरीका का  है। ऐसे में अगर अमरीका समझौते से हटता है तो निसंदेह जलवायु परिवर्तन को कम करने की दिशा में किए जा रहे प्रयासों को झटका लगेगा। कोई शक नहीं है कि पेरिस समझौते से ट्रंप के हाथ खींच लेने से इस समझौते के लक्ष्यों को पाना मुश्किल हो जाएगा।

ट्रंप आरंभ से ही पेरिस समझौते के आलोचक रहे हैं। वह अनेक दफा इस बात को दोहरा चुके हैं कि अमरीका ने पेरिस में ’सही सौदा’ नहीं किया है। उनका कहना है कि पेरिस समझौते से अमरीका के औद्योगिक हित प्रभावित होंगे। उनका यह भी आरोप है कि इस समझौते में भारत और चीन के लिए सख्त प्रावधान नहीं किए गए हैं। इससे पहले 31 मई को टं्रप ने भारत, रूस और चीन पर आरोप लगाते हुए कहा था कि ये देश प्रदूषण रोकने के लिए कुछ नहीं कर रहे हैं, जबकि इसके लिए अमरीका करोड़ों डॉलर दे रहा है। सच्चाई इसके विपरीत है। भारत भी जलवायु परिवर्तन के खतरों से प्रभावित होने वाले देशों में से एक है। कार्बन उत्सर्जन में कटौती का असर भारत जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं पर सबसे अधिक पड़ेगा। साल 2030 तक भारत ने अपनी कार्बन उत्सर्जन की गति को 2005 के मुकाबले 33-35 फीसदी तक कम करने का लक्ष्य रखा है। इसके अलावा यूएनईपी की उत्सर्जन अंतराल संबंधी रिपोर्ट भी ट्रंप के आरोप को झूठा साबित करने के लिए काफी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जी-20 देशों में से जो उत्सर्जन के अधिकांश हिस्से के लिए जिम्मेदार है, केवल यूरोपिय संघ, भारत और चीन ही लक्ष्यों के अनुरूप चल रहे हैं। सच तो यह है कि ट्रंप ने अपने चुनावी एजेंडे में अमरीका को पेरिस जलवायु समझौते से अलग करने का मुद्दा शामिल किया था, ऐसे में उनके इस कदम को चुनावी वादे को पूरा करने के तौर पर भी देखा जा रहा है। कुल मिलाकर हमें यह समझना होगा कि कार्बन उत्सर्जन में कमी के लिए जताई गई प्रतिबद्धता से मुंह मोड़ना विनाशकारी साबित हो सकता है। अगर इस महाविनाश से मानव सभयता को बचना है तो पेरिस समझौते के पवित्र प्रावधानों को सभी के लिए मानना जरूरी होगा, फिर वो चाहे अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ही क्यों न हों।

ई-मेल : snehsomani28@gmail.com     

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