गीता रहस्य
स्वामी रामस्वरूप
श्रीकृष्ण महाराज ने यहां ‘योगामाया’ कहा है। ‘योग’ का अर्थ है जुड़ना और ‘माया’ का अर्थ संसार की संपूर्ण रचना है। ईश्वरीय चेतन शक्ति एवं प्रकृति के रज, तम, सत्व इन तीन गुणों के योग के द्वारा जो संसार की रचना है, वह ‘योगमाया’ है, जिससे ईश्वर छिपा है। सृष्टि की रचना जब प्रारंभ होती है तब जो रज, तम एवं सत्व गुण से पहला तत्त्व बनता है। वह ‘महत’ है अर्थात बुद्धि है…
इस प्रकृति के रज, तम, सत्व तीन गुण जिनमें विषय-विकार आलस्य एवं अहंकार आद विषय होते हैं। यहीं से काम, क्रोध, मद, लोभ, अहंकार आदि अनेक विषयों की उत्पत्ति होती है। अतः सृष्टि रचना के लिए जब परमेश्वर की चेतना शक्ति प्रकृति रूप उपादान कारण में कार्य करती है, तब यह जो समस्त विश्व और विश्व के पदार्थ जो रचे जाते हैं और हमें जो स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। इसी रचना को वेद एवं शास्त्रों ने माया कहा और यहां योगमाया है। इस प्रकार यह सृष्टि रचना का क्रम अनादि एवं शाश्वत है। जैसा कि ऋग्वेद मंत्र 6/20/4 में तथा ऋग्वेद मंत्र 10/99/2 में ‘माया’ पद का अर्थ बुद्धि भी कहा गया है। ऋग्वेद मंत्र 6/44/22 का तो स्पष्ट अर्थ ही यही है कि वेदों का ज्ञाता गुरु (अशिवस्य) अमंगल करने वाली (मायाः) बुद्धियों का (अमुष्णात) नाश करता है। अतः प्रकृति से रचना-मन, बुद्धि चित्त और ये ज्ञानेंद्रियां एवं कर्मेंद्रियां सभी माया है अर्थात नाशवान वा छल-कपट है। जीव इस माया से घिरा रहता है और इस माया के छलावे में आकर केवल धन-संपदा आदि में प्रवृत्त रहकर वेदों का सच्चा मार्ग त्याग देता है और सदा दुखी रहता है। वेद-विरुद्ध, मनगढ़ंत भक्ति में तो वह पूर्णतः ही दुखों के सागर में लगता है। इसी माया पर विजय प्राप्त करके मोक्ष का सुख पाने के लिए परमेश्वर ने हमें यह मनुष्य शरीर जो माया (प्रकृति) रचित है, शरीर प्रदान किया है। यजुर्वेद मंत्र 40/17 का भाव है कि ईश्वर ही प्रकृति के ढके हुए मुख के समान उत्तम अंग का विकास करता है। अर्थात उपादान कारण प्रकृति से संसार की रचना करता है। भाव यह है कि जैसे किसी घड़े का मुंह बंद है तो उसके अंदर रखे पदार्थों का ज्ञान नहीं होता। जब घड़े का मुंह खुल जाता है तब उसमें रखे पदार्थों का ज्ञान होता है। इसी प्रकार प्रकृति में समस्त संसार बंद पड़ा है। मानो परमेश्वर प्रकृति में अपनी शक्ति का योग करके प्रकृति का मुख खोल देता है और बंद संसार उसमें से निकलकर प्रत्यक्ष हो जाता है। अतः यह जो माया रूप रचना है इसे मिथ्या-झूठ भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ईश्वर की शक्ति एवं जड़ प्रकृति के परस्पर संबंध से यह रचना होती है। ईश्वर की प्रकृति भी सत्य है, परंतु क्योंकि प्रकृति भी सत्य है, परंतु क्योंकि प्रकृति के तीनों गुणों में विषय-विकार, रुपया, चमक-दमक, आकर्षण है, जिसके उदाहरण हैं शारीरिक सुंदरता, सोना-चांदी, रुपया-पैसा, विषय-विकार, मकान-दुकान, धन संपदा का लालच, जवानी के भोग-विलास और इसी प्रकार के असंख्य आकर्षण युक्त विषय आदि। अतः इस रचना को माया अर्थात छल-कपट इत्यादि से पूर्ण जीव इसी माया रूप रचना से आकर्षित होकर धन-संपदा, जवानी का नशा एवं सांसारिक चमक-दमक से लगाव कर बैठता है और पुनः कभी भी मानसिक सुख शांति अथवा शारीरिक सुख, निरोगता आदि प्राप्त नहीं कर पाता। भाव यह है कि इसी रचना को श्रीकृष्ण महाराज ने यहां ‘योगामाया’ कहा है। ‘योग’ का अर्थ है जुड़ना और ‘माया’ का अर्थ संसार की संपूर्ण रचना है। ईश्वरीय चेतन शक्ति एवं प्रकृति के रज, तम, सत्व इन तीन गुणों के योग के द्वारा जो संसार की रचना है, वह ‘योगमाया’ है, जिससे ईश्वर छिपा है। सृष्टि की रचना जब प्रारंभ होती है तब जो रज,तम एवं सत्व गुण से पहला तत्त्व बनता है। वह ‘महत’ है अर्थात बुद्धि है। उसके पश्चात सांख्य शास्त्र सूत्र 1/26 के अनुसार अहंकार, मन,बुद्धि पंचतंमात्राएं एवं पांच भूत और उसके पश्चात सूर्य, चंद्रमा, मानव एवं पशु-पक्षी के शरीर एवं संसार के समस्त पदार्थ रचे जाते हैं। अतः यह रचना सब माया ही है। अतः ‘योग-माया’ शब्द का अर्थ किसी प्रकार से भी और कहीं भी अनिर्वचनीय शब्द का अर्थ कहा जाता है कि जिसको जड़ व चेतन, सत्य व असत्य नहीं कह सकते, परंतु यदि हम गहराई से विचार करें तो परमेश्वर को, जीवन को चेतन तथा प्रकृति व प्रकृति से रचे समस्त संसार के पदार्थों को जड़ कहा जाता है। अतः अनिर्वचनीय नामक कोई उपाधि अथवा पदार्थ नहीं हो सकता। श्लोक 7/25 में श्रीकृष्ण महाराज यह कह रहे हैं कि ‘योग-माया’ के कारण ईश्वर छिप गया है अर्थात संसार की जो रचना माया है उसकी ओर आकर्षित हुआ जीव अपने ही अंदर रहने वाले ईश्वर की ओर नहीं देख पाता, क्योंकि जीव माया की ओर आकर्षित होकर माया को ही सत्य जानकर माया में लीन जीव जो हैं ईश्वर उन सबके लिए प्रत्यक्ष नहीं होते। आगे कहा जो इस माया को योगाभ्यास, वेदाध्ययन द्वारा समाप्त कर देता है, उनके लिए ईश्वर प्रत्यक्ष हो जाता है।
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