जीवंत परंपराओं का प्रतीक ‘शांत महायज्ञ’
‘शांत महायज्ञ’ तीन दिनों तक मनाया जाने वाला महायज्ञ है। पहले दिन मेजबान देवता द्वारा आमंत्रित देवता अपने-अपने क्षेत्रों से पालकी में अपने-अपने खूंदो एवं ग्रामवासियों के साथ अस्त्र-शस्त्रों (तलवारें, दराट, लाठियां, भाले, खुरपी एवं बंदूकों) से सुसज्जित होकर मेजबान देवता के गांव पहुंचते हैं और देवता के मंदिर परिसर में इकट्ठे होते हैं। इस दिन को स्थानीय भाषा में संघेडा यानी इकट्ठा होना कहा जाता है। दूसरे दिन मेजबान देवता के मंदिर का शिखर पूजन (छत का ऊपरी भाग) होता है। जबकि तीसरे दिन दूरदराज से आए देवता एवं अन्य मेहमान मेजबान से अपने-अपने क्षेत्रों को लौटने की अनुमति मांगते हैं। इस दिन को स्थानीय भाषा में ‘उछड़-पाछड़’ कहा जाता है।
‘शांत’ पहाड़ी लोगों के लिए कुंभ के बराबर का महत्त्व रखती है। इसकी तैयारियां मेजबान देवता के मंदिर परिसर में सात या नौ दिनों पहले से ‘हवन’ के रूप में हो जाती है। सात या नौ दिनों के पूरा होते ही मंदिर परिसर में ‘रास मंडल’ बनाने की तैयारियां की जाती हैं, लेकिन उससे पहले जगह की शुद्धि के लिए देवता परशुराम जी को बुलाया जाता है। देवता के आते ही ब्राह्मणों द्वारा स्थान की शुद्धि के लिए पूजन किया जाता है इसी पूजन के दौरान एक अखंड ज्योति भी प्रज्वलित की जाती है और यही ज्योति ‘शांत महायज्ञ’ के अंतिम दिन तक निर्विघ्न जलती रहती है। जगह की शुद्धि होने पर ‘रास मंडल’ का निर्माण किया जाता है। ‘रास मंडल’ का निर्माण पूर्ण रूप से गुप्त विधान से होता है। इस कारण इसको वही ब्राह्मण बना सकते हैं, जिन्हें तांत्रिक विद्या का ज्ञान हो। इनकी संख्या तीन से नौ या फिर उससे भी अधिक हो सकती है। इस मंडल को बनाने के लिए जिस सामग्री का प्रयोग होता है, उसे भी गुप्त रखा जाता है, लेकिन जो प्रत्यक्ष रूप में सामग्री देखने में आती है- सात प्रकार की बाड़ (झाड़ी), आटा, चावल, रंग और पूजन की अन्य सामग्री। इस रास मंडल की एक खास विशेषता यह भी है कि मेजबान देवता के आमंत्रण पर आने वाले देवताओं का उनकी श्रेष्ठता के आधार पर अलग-अलग स्थान बनाया जाता है, ताकि उन्हें उनके स्थानों पर उनकी श्रेष्ठता के आधार पर बैठाया जा सके, जबकि सबसे ऊंचा स्थान महिषासुरमर्दिनी माता हाटेश्वरी को समर्पित किया जाता है। जब यह जानने का प्रयास किया गया कि ‘शांत महायज्ञ’ में मां हाटकेश्वरी की ही भूमिका अहम क्यों है तो मां के भंडारी ईश्वर चंद्र शर्मा जी ने कहा कि इसके दो मूल कारण है- माता हाटकेश्वरी (हाटकोटी) का महाकाली रूप होना और इसी रूप को यानी रौद्र रूप को शांत करने के लिए इस महायज्ञ का आयोजन करना। दूसरा यह कि देवताओं की प्रार्थना पर महाशक्ति के द्वार महिषासुर का इस स्थान पर वध करना। इसलिए इस स्थान का महत्त्व अन्य स्थानों से अधिक है। माता हाटकेश्वरी का महत्त्व इस बात से भी प्रमाणित होता है कि, ‘शांत महायज्ञ’ में शामिल होने के लिए मेजबान देवता द्वारा दो या तीन पहले गांव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को मां के पावन स्थान ‘हाटकोटी’ भेजा जाता है, ताकि देवी महिषासुर मर्दिनी की पूजा-अर्चना कर उन्हें ‘महायज्ञ’ में चलने को राजी किया जा सके।
मां की आज्ञा मिलते ही गांववासी चलने की तैयारियां करते हैं। दूसरे या तीसरे दिन गांववासी मंदिर परिसर में इकट्ठे होते हैं और उनके प्रतीक (चिन्ह) छड़ी एवं ब्राह्मण परशुराम (कलश) को मंदिर का पुजारी या फिर ‘गूर’ सिर पर धारण किए हुए गांववासियों के साथ मेजबान देवता के गांव चल पड़ते हैं। पैदल यात्रा करते हुए जब मां अपने भक्तों के साथ गांव पहुंचती है, जो मेजबान देवता के ग्रामीणों द्वारा उनका भव्य स्वागत किया जाता है। तत्पश्चात उनके प्रतीक परशुराम को ग्राम देवता की देहरी (निवास स्थान) में पहुंचाया जाता है। मां के आते ही ‘शांत महायज्ञ’ का आयोजन आरंभ हो जाता है।
इन्दु वैद्य, रावत भवन, सरस्वती नगर, हाटकोटी, जुब्बल, शिमला-171206
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