जीवंत परंपराओं का प्रतीक ‘शांत महायज्ञ’
महिषासुर का वध करने के बाद महाशक्ति का रूप इतना विकराल हो गया कि उनके उस रूप के आगे मानव तो क्या देवगण भी ठहर नहीं पा रहे थे। मां की रक्त पिपासा इतनी अधिक बढ़ गई थी कि उन्होंने सृष्टि का नाश करना आरंभ कर दिया। चारों ओर हाहाकार मच गया…
पश्चिमी हिमालय के हृदय में बसे होने के कारण न केवल हिमाचल भारत के देवाधिदेव शिव का ही ससुराल है, बल्कि इसका देश के भूगोल, इतिहास और कला में भी अपना एक विशिष्ट स्थान है। यहां के प्राचीन मंदिर और उनसे जुड़ी देवगाथाएं जहां मध्यकालीन इतिहास की कडि़यों को जोड़ने में सक्षम है, वहीं यहां मनाए जाने वाले पर्व हमारी सांस्कृतिक प्रदर्शनियां हैं। इस सुंदर पहाड़ी प्रांत में यूं तो अनेकों त्योहार मनाए जाते हैं, लेकिन वर्षों उपरांत मनाए जाने वाले ‘शांत’ और ‘भुंडा’ जैसे पर्वों का अपना अलग ही महत्त्व एवं स्थान है। ‘शांत’ या ‘शांद’ का साहित्यिक अर्थ यूं तो शांति और समृद्धि से लिया जाता है, लेकिन दूसरी ओर कुछ लोग ‘शांत महायज्ञ’ का अर्थ ‘महाकाली’ के विकराल रूप को ‘शांत’ करने से लेते हैं। क्षेत्र में प्रचलित लोकगाथा के अनुसार- ‘रभीगढ़’ (वर्तमान में रांवीगढ़) के राजा रंभ ने अग्नि देवता को अपनी घोर तपस्या के बल पर प्रसन्न कर ऐसे पुत्र का वर मांगा, जिसको सुर, असुर और मानव कोई भी पराजित न कर सकें। उसने अग्निदेव की कृपा से पुनर्जीवन भी प्राप्त कर लिया था, किंतु ‘अग्निदेव’ से वरदान मांगते वक्त नारी को शक्तिहीन समझने की भूल कर गया। राजा रंभ ने अग्निदेवता की कृपा से महिषासुर नामक शक्तिशाली पुत्र प्राप्त किया। जिसने आगे चलकर पिता की ही भांति घोर तपस्या के बल पर महादेव को प्रसन्न कर अतुलनीय बल प्राप्त किया। अपने इसी बल पर उसने तीनों लोकों में अपना अधिकार स्थापित कर लिया और इंद्र सहित सभी देवी-देवताओं को स्वर्ग से निष्कासित कर दिया। स्वर्ग से निष्कासन के बाद देवी-देवताओं ने पब्बर नदी के आसपास दुर्गम स्थानों में शरण ली। देवता इससे बेहद दुखी थे। इसलिए वे सभी विष्णु के बास सहायता मांगने गए। तब भगवान विष्णु के कहने पर उन्होंने ‘महामाया’ का आह्वान किया।
समस्त देवों के तेज पुजों से तब ‘शक्ति’का प्रादुर्भाव हुआ। देवताओं ने देवी के शृंगार हेतु अपने-अपने दिव्यास्त्र भेंट किए। तदोपरांत देवी शक्ति ने युद्ध के लिए हुंकार भरी। हुंकार भरते ही देवी ने महिषासुर को युद्ध करने के लिए ललकारा। देवी की ललकार में इतनी गर्जना थी कि चारों दिशाएं कांप उठी, लेकिन अहंकारी महिषासुर ने शक्ति को शक्तिहीन नारी समझने की भूल की और अपने शक्तिशाली योद्धाओं को पहले देवी के साथ युद्ध करने के लिए भेजा। देवी ने उन सभी योद्धाओं का युद्ध में अंत कर दिया। तब महिषासुर स्वयं अपनी संपूर्ण शक्तियों के साथ देवी से युद्ध करने आया। मायावी राक्षस ने अपने कई रूपों को धारण कर देवी के साथ युद्ध करने लगा। दोनों में युद्ध कई दिनों तक चलता रहा और अंत में महाशक्ति ने शक्तिशाली मायावी महिषासुर का वध कर दिया। उसके वध करने के बाद देवी महिषासुरमर्दिनी कहलाई। नारी को शक्तिहीन मानने वाले पिता रंभ की भूल शक्तिशाली बेटे महिषासुर की मृत्यु का कारण बनी। महिषासुर का वध करने के बाद महाशक्ति का रूप इतना विकराल हो गया कि उनके उस रूप के आगे मानव तो क्या देवगण भी ठहर नहीं पा रहे थे। मां की रक्त पिपासा इतनी अधिक बढ़ गई थी कि उन्होंने सृष्टि का नाश करना आरंभ कर दिया। चारों ओर हाहाकार मच गया। सृष्टि का विनाश होता देख देवता-ऋषि सहायता हेतु महादेव के पास गए और देवी के विकराल रूप को शांत करने की प्रार्थना करने लगे। तब महाकाल शिव ने उनकी प्रार्थना सुन शक्ति के विनाशकारी रूप से मिलने का निश्चय किया।
देवों के देव महादेव मां के विकराल रूप को शांत करने के लिए उनके रास्ते पर लेट गए। देवी जब उधर से गुजरी तो अनजाने में ही उनका एक पांव शिव की छाती पर पड़ गया। महाशक्ति ने जब यह दृश्य देखा तो उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ और उन्होंने अपनी इस भूल की महेश से क्षमा मांगी। कहा जाता है कि इस घटना के तुरंत बाद मां का भयंकर रूप एक दम से शांत हो गया। महाशक्ति का शांत स्वरूप देख शिव ने उनसे कहा- ‘देवी! आपके इस शांत एवं सौम्य रूप को शांत बनाए रखने के लिए भविष्य में देवताओं, ऋषियों एवं मानवों के द्वारा ‘शांत महायज्ञ’ किया जाएगा, जिसमें सर्वप्रथम तुम्हारी ही पूजा न केवल मानवों द्वारा बल्कि देवताओं और ऋषियों द्वारा भी की जाएगी’ इतना कहने के बाद महादेव अंतर्ध्यान हो गए और तभी से इस शांत महायज्ञ का आयोजन किया जाने लगा। ‘शांत महायज्ञ’ का आयोजन ‘भुंडे’ की भांति कई वर्षों के बाद किया जाता है, जिसका संचालन ‘खूंद’ (खश जाति की एक बहादुर शाखा) के हाथों सौंपा जाता है। इस विशेष जाति को या तो राजा द्वारा चुना जाता था या फिर देवता स्वयं ही इनका चुनाव करता था, लेकिन वर्तमान में अब देवता ही इनके चुनाव की प्रक्रिया को निभाता है। जबकि इस जाति का प्रमुख कार्य- गांववासियों की सुरक्षा करना, ग्राम देवता के द्वारा बुलाए गए मेहमानों की सुरक्षा करना और पुरोहितों द्वारा बनाए गए ‘राम मंडल’ की सुरक्षा करना होता था। इस जाति की प्रमुख विशेषता यही थी कि यह मरने-मारने से नहीं डरते थे। शायद यही कारण है कि आज भी इन्हें विशेष अवसरों पर विशेष कार्यों को सौंपने की परंपरा कायम है।
– इन्दु वैद्य
रावत भवन, सरस्वती नगर, हाटकोटी, जुब्बल, शिमला-171206
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