धर्म का आदर्श

By: Jun 24th, 2017 12:05 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

ये सब ही केंद्र भगवान की ओर ले जाने वाले विभिन्न मार्ग हैं। वास्तव में, धर्म मतों की विभिन्नता लाभदायक है, क्योंकि मनुष्य को धार्मिक जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा वे सभी देते हैं और इस कारण सभी अच्छे हैं। जितने ही अधिक संप्रदाय होते हैं, मनुष्य की भगवदभावना को सफलतापूर्वक जाग्रत करने के उतने ही अधिक सुयोग मिलते हैं। तुम प्रत्येक क्षण कहते हो, ‘तेरी इच्छा पूर्ण हो,’ पर तुम्हारा वास्तविक मंतव्य होता है, ‘हे ईश्वर, मेरी इच्छा पूर्ण हो,’ असीम भगवान अपनी योजना के अनुसार कार्य कर रहा है। उसने भी गलतियां की हैं और तुम तथा मैं उनकी गलतियों को सुधारने जा रहे हैं। ब्रह्मांड के विधाता को बढ़ई शिक्षा देंगे। उसने संसार को गंदा छोड़ दिया है और तुम उसे एक सुंदर स्थल बनाने जा रहे हो। इस सबका उद्देश्य क्या है? क्या कभी इंद्रियां लक्ष्य हो सकती हैं? क्या कभी सुखोपभोग इसका लक्ष्य हो सकता है? क्या कभी यह जीवन आत्मा का लक्ष्य हो सकता है। यदि ऐसा है तो इसी क्षण मर जाना अच्छा है, इस जीवन का मोह त्यागो। यदि मनुष्य का भाग्य यही है कि वह केवल एक पूर्ण मशीन बनने जा रहा है, तो इसका अर्थ बस यह होगा कि हम वृक्ष और पत्थर तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुएं बनने के लिए पीछे लौटें। क्या तुमने कभी गऊ को झूठ बोलते सुना है अथवा वृक्ष को चोरी करते देखा है? वे पूर्ण मशीनें हैं। वे भूल नहीं करते। वे ऐसे संसार में रहते हैं, जहां सब कुछ पूर्ण है। यदि वह व्यावहारिक (धर्म) नहीं हो सकता और यह निश्चय ही नहीं हो सकता, तो धर्म का आदर्श क्या है? हम यहां किसलिए आए हैं। हम यहां मुक्ति के लिए, ज्ञान के लिए आए हैं। हम अपने को मुक्त करने के लिए ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। हमारा जीवन है मुक्ति के लिए एक विश्व व्याप्त चीत्कार। क्या कारण है कि पौधा बीज से उगता है, धरती को चीरता है और अपने को आकाश में उठाता है? सूर्य पृथ्वी को क्या भेंट देता है? तुम्हारा जीवन क्या है? मुक्ति के लिए वही संघर्ष। प्रकृति चारों और हमें दमित करने का प्रयत्न कर रहा है और आत्मा अपने को अभिव्यक्त करना चाहती है। प्रकृति के साथ संघर्ष चल रहा है। मुक्ति के लिए इस संघर्ष में बहुत सी वस्तुएं कुचल जाएंगे और टूट जाएंगी। यही तुम्हारा वास्तविक दुख है? युद्धक्षेत्र में बहुत सी धूल और गर्द उठेगी। प्रकृति कहती है, ‘मैं विजयी होऊंगी।’ आत्मा कहती है, ‘विजयी मुझे होना है।’ प्रकृति कहती है, ‘ठहरो! मैं तुम्हें चुप रखने के लिए थोड़ा सुखभोग दूंगी।’ आत्मा को थोड़ा मजा आता है, क्षण भर के लिए वह धोखे में पड़ जाती है, पर दूसरे ही क्षण वह फिर (मुक्ति के लिए चीत्कार कर उठती है)। क्या तुमन युगों से प्रत्येक हृदय में उठते इस अविराम चीत्कार की ओर ध्यान दिया है? हम दरिद्रता से देखते हैं।

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