नक्सल समस्या के समाधान की राह

By: Jun 1st, 2017 12:05 am

पीके खुरानापीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह और प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव की राजनीतिक इच्छाशक्ति तथा केपीएस गिल का दृढ़ निश्चय पंजाब में आतंकवाद के खात्मे का कारण बने। बेअंत सिंह सन् 1992 में पंजाब के मुख्यमंत्री बने और उन्होंने शुरू से ही आतंकवाद को कानून और व्यवस्था की समस्या माना और उसे उसी तरह से निपटाया भी। उन्होंने केपीएस गिल को आतंकवाद के खात्मे के लिए पूरा समर्थन दिया और मीडिया तथा मानवाधिकार संगठनों की बहुत सी आलोचनाओं के बावजूद यह समर्थन जारी रखा…

सुपर कॉप माने जाने वाले पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक केपीएस गिल नहीं रहे। केपीएस गिल सन् 1958 में पुलिस सेवा में शामिल हुए और उन्हें उत्तर-पूर्व के दो राज्यों असम और मेघालय में सेवा का मौका मिला। उत्तर-पूर्व में सेवा के 28 साल बाद गिल असम के पुलिस महानिदेशक पद से मुक्त हुए और सन् 1984 में अपने गृह राज्य पंजाब वापस आ गए। गिल को पंजाब में आतंकवाद के खात्मे का श्रेय दिया जाता है। तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह और प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव की राजनीतिक इच्छाशक्ति तथा केपीएस गिल का दृढ़ निश्चय पंजाब में आतंकवाद के खात्मे का कारण बने। बेअंत सिंह सन् 1992 में पंजाब के मुख्यमंत्री बने और उन्होंने शुरू से ही आतंकवाद को कानून और व्यवस्था की समस्या माना और उसे उसी तरह से निपटाया भी। उन्होंने केपीएस गिल को आतंकवाद के खात्मे के लिए पूरा समर्थन दिया और मीडिया तथा मानवाधिकार संगठनों की बहुत सी आलोचनाओं के बावजूद यह समर्थन जारी रखा। हालांकि आतंकवादियों ने बाद में उनसे बदला लेने के लिए 31 अगस्त, 1995 को एक बम धमाके में उनकी हत्या कर दी। बेअंत सिंह जब मुख्यमंत्री थे, तो सुरेंद्र नाथ पंजाब के राज्यपाल थे। वह अगस्त 1991 में पंजाब के राज्यपाल बनाए गए थे।

नवंबर 1993 में उन्हें हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल का अतिरिक्त कार्यभार सौंपा गया। जुलाई 1994 में हिमाचल प्रदेश जाते समय उनका हेलिकाप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया और वह इस हादसे में मारे गए। कहा जाता है कि राज्यपाल सुरेंद्र नाथ के आकस्मिक स्वर्गवास के बाद राजभवन में उनके कमरों में अकूत नकद धनराशि पाई गई। उल्लेखनीय है कि वह सन् 1991 में राज्यपाल बने थे और तब पंजाब में कोई चुनी हुई सरकार नहीं थी क्योंकि जून 1987 से ही राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू था, जो 25 फरवरी, 1992 तक चला। इस दौरान सुरेंद्र नाथ ही राज्य के सर्वेसर्वा थे। कहा जाता है कि उनके कमरों में जो पैसा मिला वह उन्हें राज्य के मुखिया के रूप में आतंकवाद से निपटने के लिए दिया जाता रहा था, जिसका कोई हिसाब किताब नहीं मांगा जाता था। इस प्रकरण की चर्चा इसलिए कि देश के जिन राज्यों में नक्सलवाद या आतंकवाद है, वहां भी केंद्र की ओर से राज्य को बहुत बड़ी सहायता धनराशि दी जाती है और उसका कोई हिसाब भी नहीं मांगा जाता। इसी साल अप्रैल में छत्तीसगढ़ के बक्सर इलाके में नक्सली हमला हुआ और 25 जवान शहीद हो गए। मार्च और अप्रैल के दो महीनों में ही 36 जवान शहीद हुए। बहुत शोर मचा, मीडिया में भी और सोशल मीडिया में भी। विपक्ष को राजनीति करने का एक और मुद्दा मिला और मीडिया और सोशल मीडिया के शोर के साथ विपक्ष का शोर भी शामिल हो गया। आरोप लगाए गए, तंज कसे गए। सत्तापक्ष की ओर से श्रद्धांजलियों और फूलमालाओं की रस्म के बाद नक्सलियों के लिए चेतावनियां जारी की गईं, बैठकें हुईं, नई रणनीति बनाने की जरूरत महसूस की गई और फिर दोष मढ़ने के लिए ‘विच-हंट’ यानी बलि का बकरा तलाश कर लिया जाता है। क्या आप जानते हैं कि यह बलि का बकरा कौन होता है?

जी हां, आपने सही सोचा, बलि का बकरा साधनहीन, बेबस, गरीब आदिवासियों को बना दिया जाता है, जो न विरोध कर पाते हैं और न अपने आप को निर्दोष साबित कर सकते हैं। यह एक स्थापित सी कार्यप्रणाली है। आदिवासियों के कई परिवारों को नक्सली कह देना पुलिस और प्रशासन के लिए बहुत आसान है। उनके परिवारों के साथ दुर्व्यवहार करना और उन्हें मार गिराना मच्छर मारने जैसा आसान है। पुलिस और प्रशासन की इस कार्रवाई पर सवाल उठते रहे हैं, उठते रहेंगे लेकिन इनका जवाब कभी नहीं दिया जाता और बड़े सुविधाजनक ढंग से इन्हें भुला दिया जाता है। छत्तीसगढ़ छोटा सा राज्य है और रमन सिंह लगभग साढ़े तेरह साल से प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। वह ही नहीं प्रदेश के उनके पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री अजीत जोगी भी कहते थे कि बस्तर को विकास की आवश्यकता है और विकास के अभाव में वहां नक्सलवाद पनप रहा है। रमन सिंह आज भी यही दोहराते हैं और बस्तर में विकास के अभाव को नक्सलवाद के जन्म का कारण बताते हैं। इतना कहते हुए वह सिर्फ यह बताना भूल जाते हैं कि बस्तर के विकास की जिम्मेदारी किसकी है? बस्तर, राजधानी रायपुर के बगल में ही है। सवाल है कि क्या बस्तर का विकास करने के लिए डोनाल्ड ट्रंप को बुलाया जाएगा या यह जिम्मेदारी राज्य प्रशासन की है?

सच तो यह है कि आदिवासियों का विकास करने के बजाय, उन्हें शिक्षा, चिकित्सा सेवा और रोजगार देने के बजाय उन्हें परेशान करने के नए-नए कानून बनाए जाते हैं ओर इसमें जितना दोष राज्य सरकार का है, उतना ही केंद्र का भी है। गरीब आदमी को सड़क और टेलीफोन से पहले रोटी चाहिए। आदिवासियों की स्थायी आय वाले रोजगार के लिए कुछ करने के बजाय नरेंद्र मोदी की सरकार ने वन की उपज का समर्थन मूल्य घटा डाला और राज्य सरकार ने भी आग में घी डालते हुए महुआ की नई नीति बनाकर आदिवासियों पर एक और शिकंजा कस डाला है। ये बेबस बेजुबान आदिवासी सरकारी अधिकारियों, सुरक्षा बलों और नक्सलियों सभी के  साझा शिकार हैं। आरोप तो यहां तक हैं कि खुद नक्सलियों को भी सरकार से अथवा कुछ चुनिंदा अधिकारियों से आर्थिक सहायता मिलती है। हिमाचल प्रदेश सरकार को ऊपरी हिमाचल के विकास के नाम पर अलग से पैसा मिलता है, आतंकवाद ग्रस्त राज्यों को आतंकवाद के उन्मूलन के लिए अतिरिक्त पैसा मिलता है, नक्सल समस्या से जूझ रहे राज्यों को समस्या के समाधान के लिए पैसा मिलता है। छत्तीसगढ़ को हर साल लगभग 200 करोड़ रुपया नक्सलवाद के उन्मूलन के लिए दिया जाता है और इस सारे धन के खर्च का कोई हिसाब नहीं दिया जाता। जहां इतनी बड़ी धनराशि मिल रही हो और हिसाब-किताब की जिम्मेदारी शून्य हो तो नक्सलवाद कौन खत्म करना चाहेगा।

सच तो यह है कि हमारे देश में नक्सलवाद और आतंकवाद राजनीतिज्ञों और सरकारी अधिकारियों की मौज का साधन बन गया है। यही कारण है कि कोई राजनीतिज्ञ नक्सलवाद का खात्मा नहीं चाहता। न पुलिस, न अधिकारी, न राजनीतिज्ञ और न नक्सली नेता। सबकी मौज है, सबकी मलाई है। किसी को विदेश से धन मिलता है तो किसी को सरकार से। नक्सलवाद के इस अर्थशास्त्र को समझे बिना आप नक्सलवाद की असलियत को नहीं समझ सकते। नक्सलवाद की इस असलियत को समझेंगे, तभी आपको समझ में आएगा कि इतने दशकों बाद भी इस समस्या का कोई समाधान क्यों नहीं हो रहा। पुलिस खुद आदिवासियों के घर जलाती है और फिर उन्हें नक्सलवादी करार दे देती है। हमने बात सुपर कॉप केपीएस गिल से शुरू की थी। उनका जिक्र फिर से करना जरूरी है। रमन सिंह सरकार ने उन्हें नक्सली समस्या के उन्मूलन के लिए सलाहकार नियुक्त किया था लेकिन केपीएस गिल ने एक इंटरव्यू में स्पष्ट कहा था कि खुद मुख्यमंत्री रमन सिंह ने उन्हें नक्सली मामलों का सलाहकार बनाने के बाद कुछ भी करने से मना करते हुए कहा था कि वह वेतन लेते रहें और मौज करते रहें। खेद का विषय है कि इस मामले में नरेंद्र मोदी भी उसी तरह चुप्पी साधे हुए हैं, जिस तरह वह मध्य प्रदेश के व्यापम मामले पर मौनी सिंह बने रहे थे। परिणाम यह है कि हम नक्सलवाद का हौवा बनाकर निर्दोष आदिवासियों को उजाड़ने और मार गिराने में लगे हुए हैं जबकि नक्सली समस्या ज्यों की त्यों है।

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