परोपकार का नया धंधा

By: Jun 26th, 2017 12:08 am

पीटर बफेट 

लेखक, संगीतज्ञ एवं वरिष्ठ टिप्पणीकार  हैं।

दूसरों पर उपकार करने से ये समस्याएं सुलझाई नहीं जा सकतीं केवल टाली जा सकती हैं। मुझे तो उपकार शब्द से ही नफरत हो चली है। आज हमारी कल्पना भी भंवर में फंसी  है। वैज्ञानिक एलबर्ट आइंस्टाइन ने कहा था कि कोई समस्या उसी मानसिकता से नहीं सुधारी जा सकती, जिस मानसिकता से उसका जन्म हुआ हो। परोपकार का धन नए तरह के जोखिम वाले काम और विचार में लगना चाहिए। ये काम तो वे हैं जिनमें व्यापार और उद्योग की दुनिया निवेश नहीं करती, क्योंकि उनमें मुनाफा नहीं है…

मेरे जीवन की गति कुछ और ही थी। मेरा ज्यादातर समय बीतता था फिल्म, टीवी और विज्ञापन की दुनिया के लिए संगीत रचने में। अति धनवान लोगों के परोपकार की दुनिया में मेरा परिचय न के बराबर था। फिर सन् 2006 में यह सब अचानक बदल गया। उस साल मेरे पिता वॉरेन  बफेट ने अपने किए वादे के मुताबिक संचय की हुई अपनी लगभग सारी धन-दौलत समाज को लौटा दी। अनेक सामाजिक संस्थाओं को उन्होंने कई विशाल अनुदान तो दिए ही, साथ ही अपनी तीन संतानों के नाम पर तीन अलग-अलग संस्थान बनाए और इनमें भी पिताजी ने अपनी कमाई का ढेर सारा पैसा डाल दिया। हर संतान को एक-एक संस्था चलाने का भार भी सौंप दिया।

परोपकार के इस नए रास्ते पर निकलते ही मेरी पत्नी और मुझे कुछ नया दिखने लगा। धीरे-धीरे हम इसे ठीक से समझने लगे। और तब हमने इसे नाम दिया- ‘परोपकार का उपनिवेशवाद’। मुझे समझ में आया कि दान देने वालों में कुछ कर दिखाने की उत्तेजना, छटपटाहट होती है। उन्हें लगने लगता है कि दुनिया उनके बचाए ही बचेगी। मुझ जैसे ही ये दानवीर लोग ऐसा सोचने लगते हैं कि वे तो किसी भी जगह की किसी भी समस्या का समाधान कर सकते हैं। चाहे उन्हें इस जगह के बारे में कुछ भी समझ या जानकारी हो या न हो। समस्या चाहे कुछ भी हो। खेती के नए तरीके हों, शिक्षा हो, किसी धंधे का प्रशिक्षण हो या व्यापार का विकास ही हो- मैं बार-बार एक ही राग सुनता था। दानी लोग किसी एक जगह काम कर चुके विचारों को किसी एक जगह बस ज्यों का त्यों उतार देने, लाद देने के लिए बेताब दिखाई पड़ते थे। उस नई जगह की संस्कृति, भूगोल और सामाजिक कायदे समझे बिना। इस काम में पिता से मिले इतने सारे रुपयों को बांट देने के बाद अब मुझे लगने लगा है कि इस तरह के परोपकार से समाज को लाभ तो छोडि़ए कुछ और बहुत बड़ा नुकसान हो रहा है।

मेरे पिता की कीर्ति और सफलता की वजह से मुझे कुछ अनपेक्षित पद मिल गए हैं। परोपकार पर होने वाले लगभग हर महत्त्वपूर्ण सम्मेलन, बैठकों, गोष्ठियों या मेल मिलाप में सरकारों के मुखिया हम बड़े व्यापारी, उद्योगपति और निवेशकों के साथ बैठते हैं। सबके सब अपने दाहिने हाथों से उन समस्याओं का हल ढूंढते हैं, जो उसी बैठक में मौजूद लोगों ने अपने बाएं हाथ से बनाई हैं। ढेर सारे आंकड़े हमें हर रोज बता रहे हैं कि सामाजिक ऊंच-नीच और विषमता बढ़ रही है। इसी दौरान बिना लाभ के काम करने वाली संस्थाएं, सामाजिक संस्थाएं भी बढ़ रही हैं। एक अध्ययन बताता है कि सन् 2001 और 2011 के बीच ऐसी गैर-सरकारी संस्थाओं में 25 फीसदी की बढ़त हुई है। एक तरह  से देखा जाए तो इनकी विकास दर व्यापार-उद्योग और सरकार से भी अधिक है। यानी हमारा यह परोपकार अब बहुत बड़ा व्यापार बन चुका है। सन् 2012 में केवल अमरीका में ही लगभग 316 अरब डालर यानी कोई 20,616 अरब रुपए परोपकार में दिए गए हैं। यह तो हुई दान की बात। रोजगार के क्षेत्र में भी यह अन्य किसी उद्योग से पीछे नहीं है। आज अमरीका में परोपकार का यह नया ध्ांधा कोई 94 लाख लोगों को नौकरी दे रहा है।

समाज में समानता लाने की बात अब अपना रूप बदल रही है। बस अपना धन परोपकार में लगाओ- यह है आधुनिक सनक। इस विषय पर अब अनगिनत बैठकें, गोष्ठियां होने लगी हैं और समता लाने के इस विचित्र तरीके को समझने-समझाने के लिए कई नई संस्थाएं भी बनने लगी हैं। एक तरफ साधारण लोग और समाज एक ऐसी व्यवस्था में पिसते जा रहे हैं जो मुट्ठी भर लोगों को बेशुमार अमीरी दिला रही है, तो दूसरी तरफ परोपकार में अपना धन समाज को वापस देना एक तरह की नई वीरता का पर्याय बनता जा रहा है। मैं इसे पाप बोध की धुलाई कहता हूं। पाप के भद्दे, गहरे से गहरे दाग भी परोपकार के इस बढि़या साबुन से धुल जाते हैं। अपने अपार खजाने से कुछ सिक्के निकालकर यहां-वहां छिड़क देने से, फेंक देने से इन लोगों को इस अपराध बोध से मुक्ति मिल जाती है कि उन्होंने इतने साधन इकट्ठे कर लिए हैं, जिनकी किसी एक  व्यक्ति को कल्पना में भी जरूरत नहीं हो सकती।

इससे होता यही है कि विषमता बढ़ाने वाला ढांचा बराबर खड़ा रहता है, बल्कि वह तो और मजबूत होता जाता है। दौलतमंद लोग रात को चैन की नींद सो पाते हैं और कुछ और लोगों को इतनी रेजगारी चिल्लर मिल जाती है, ताकि उनका आक्रोश न बढ़ पाए। जब भी कोई एक अमीर व्यक्ति परोपकार में कुछ दान देकर अपने बारे में कुछ अच्छा महसूस करने लगता है तो हम मानकर चल सकते हैं कि दुनिया के किसी और हिस्से में कोई और व्यक्ति संकट के किसी दलदल में और गहरा धंस जाता है। उससे यह मौका छीन लिया जाता है कि वह अपने स्वभाव के अनुसार खिल जाए और अपने पैरों पर खड़ा होकर संतोष से जीवन जी सके।

परोपकार के इस धंधे में व्यापार-उद्योग के लोगों का वास्ता बढ़ता ही जा रहा है। इससे परोपकार की दुनिया में अब व्यापारी मूल्यों का बोलबाला भी बढ़ रहा है। मैंने परोपकार करने वाले लोगों को ऐसा पूछते हुए सुना है कि अगर हम पीड़ा में फंसे लोगों की मदद के लिए फलां दान में अपना इतना धन लगाएं, तो हमारे इस निवेश पर मुनाफा कितना होगा। इनके लिए निवेश पर मुनाफा ही सफलता का मानक है। अगर ऐसा नहीं होता तो फिर माइक्रोफाइनांस अल्पबचत योजना और आर्थिक साक्षरता जैसी योजनाओं को लाने का क्या मतलब है। मैं जानता हूं मेरा ऐसा कहना मेरे कुछ मित्रों को अप्रिय लगेगा। वैसे वे सभी उम्दा इनसान हैं, पर इन आर्थिक कार्यक्रमों से नए लोग हमारी उस व्यवस्था से जुड़ जाएंगे, जो कर्ज और सूदखोरी पर ही चलती है। हो सकता है कई साधारण से लोग परोपकार की इन नई योजनाओं के कारण दो-चार सौ रुपए अधिक कमाने लग जाएं। पर यह पैसा खर्च कहां होगा। पक्का मानिए, यह गैर जरूरी नए उत्पादों और सेवाओं को खरीदने पर खर्च हो जाएगा। इससे विषमता उगाने वाले इस पेड़ की जडं़े और गहरी नहीं होंगी क्या? पर दूसरों पर उपकार करने से ये समस्याएं सुलझाई नहीं जा सकतीं केवल टाली जा सकती हैं। मुझे तो उपकार शब्द से ही नफरत हो चली है। आज हमारी कल्पना भी भंवर में फंसी  है। वैज्ञानिक एलबर्ट आइंस्टाइन ने कहा था कि कोई समस्या उसी मानसिकता से नहीं सुधारी जा सकती, जिस मानसिकता से उसका जन्म हुआ हो। परोपकार का धन नए तरह के जोखिम वाले काम और विचार में लगना चाहिए। ये काम तो वे हैं जिनमें व्यापार और उद्योग की दुनिया निवेश नहीं करती, क्योंकि उनमें मुनाफा नहीं है।

ऐसे लोग भी हैं, जो जितनी मेहनत कर रहे हैं नए उदाहरण खड़े करने की। ऐसे सामाजिक संबंधों को खड़े करने की, जो सही में हर किसी को समृद्ध बनाएं, केवल लोगों को भोग की नई विषय-वस्तु खरीदने लायक बनाने के लिए नहीं। आज जरूरत है ऐसे विचारों पर धन लुटाने की जो ऐसी व्यवस्था को तोड़ सकें, जिसने सारी दुनिया को एक बड़ा बाजार बनाकर रख दिया है। क्या हर गली-मोहल्ले में बतौर इंटरनेट ही खुशहाली का हमारा मानक रह गया है। यह नहीं हो सकता। जब तक समाज का एक हिस्सा परोपकार में दिए धन की एवज में अपनी पीठ खुद ठोंकता रहेगा, तब तक गरीबी फैलाने वाली यह भयानक विशाल मशीन चलती रहेगी। यह एक पुरानी, थक चुकी कहानी है हमें एक नई कहानी चाहिए।

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