पर्यावरण का मोल समझना समय की मांग

By: Jun 5th, 2017 12:07 am

newsकर्म सिंह ठाकुर

(लेखक,सुंदरनगर, मंडी से हैं)

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अमर वाकय को चरितार्थ करने हेतु कि धरती पर मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तो सब कुछ है, लेकिन लालच को पूरा करने के लिए प्राकृतिक संसाधन शायद कम पड़ जाएंगे। नीति निर्धारण करना समय की मांग बन गया है। पर्यावरण बचाने की जिम्मेदारी प्रशासन की नहीं बल्कि हर किसी की हो…

पर्यावरण में ही मानव जीवन समाया हुआ है। यदि पर्यावरण नहीं होगा, तो मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पर्यावरण दूषित व विषैला होगा तो मानव स्वार्थों को साधने के लिए प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के कारण पर्यावरण विषैला हो गया। भारत का कुल क्षेत्रफल 32 लाख 87 हजार 263 वर्ग किलोमीटर है, जो कि संपूर्ण विश्व के क्षेत्रफल का 2.4 प्रतिशत है, जबकि जनसंख्या में 17.5 प्रतिशत प्रतिनिधित्व भारत का है। भारत के क्षेत्रफल के लगभग 51 प्रतिशत भाग पर कृषि, चार प्रतिशत भाग पर चरागाह, लगभग 21 प्रतिशत भूमि, पर वन एवं 24 प्रतिशत भूमि बंजर तथा बिना उपयोग की है। देश की कुल श्रम शक्ति का लगभग 52 प्रतिशत भाग कृषि एवं उससे संबंधित उद्योग धंधों से अर्जित होता है। आज ही कृषि व्यवस्था में अंधाधुंध रसायनों, स्प्रे व फर्टिलाइजरों ने कृषि व्यवस्था को जहरीला बना दिया है। वहीं दूसरी तरफ बढ़ते जनसंख्या दबाव के कारण भी पर्यावरण प्रभावित हो रहा है।

संयुक्त राष्ट्र ने अपने व्याख्यान में जनसंख्या वर्ष 2050 तक 9.6 विलियन का इजाफा होने का संकेत दिया है। वर्ष 2050 तक खाद्य पदार्थों, रहन-सहन व पर्यावरण संतुलन गड़बड़ा पाएगा। इसके अतिरिक्त ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर  पिघलने शुरू हो रहे हैं, जब वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर पिघलने शुरू हो रहे हैं, तो जल स्तर बढ़ रहा है, जिसके कारण दुनिया भर में हजारों द्वीप डूब जाएंगे। मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग प्रतिवर्ष बढ़ रहा है, जिसका सबसे बड़ा कारण बेतरतीब शहरीकरण तथा औद्योगिकीकरण है। धरती के लगातार गर्म होने का मुख्य कारण कार्बनडाइआक्साइड गैस का बढ़ना है, जबकि कार्बन डाइऑक्साइड के बढ़ने का कारण कृषि में अंधाधुंध फार्टिलाइजरों का इस्तेमाल, पेड़ों का कटान, कोयले का इस्तेमाल, परिवहन धुंआं, जीवाशियम ईंधनों का प्रयोग शामिल है। इससे ओजोन क्षरण, मौसम में बदलाव, समुद्र जल स्तर बढ़ना, बाढ़, तूफान, महामारी, खाद्य पदार्थों की भारी कमी हो रही है, जो धरती पर मानव जीवन की संभावनाओं को कम कर रहे हैं।

पर्यावरण के विघटन व मानव जीवन को धरती पर बनाए रखने के लिए वर्ष 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने पांच जून को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया था। वर्ष 1974 से संपूर्ण विश्व में पर्यावरण दिवस मनाना शुरू हुआ। इस दिन दुनिया में सबसे ज्यादा पौधारोपण किया जाता है। भारत के पड़ोसी देश नेपाल में प्रथम कक्षा से लेकर कालेज स्तर तक के बच्चों को पर्यावरण दिवस पर उपस्थित होना अनिवार्य होता है। नेपाल में पर्यावरण दिवस को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाया जाता है। भारत में भी ऐसी परंपरा को अपनाने की जरूरत है। हर वर्ष होस्ट राष्ट्र विश्व पर्यावरण दिवस पर एक नया थीम जारी करता है। इस वर्ष कनाडा के ‘कनेक्टिंग पीपल्ज टू नेचर’ थीम द्वारा पांच जून, 2017 का पर्यावरण दिवस संपूर्ण विश्व में मनाया जाएगा। थीम से जागरूकता पैदा की जा सकती है। भविष्य में पर्यावरण के संरक्षण की रूपरेखा भी तैयार की जा सकती है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इन दिवसों को औपचारिक स्वरूप ही मनाया जाता है। अगले दिन ही हर कोई अपने निजी जीवन की जरूरतों में व्यस्त हो जाएगा। पर्यावरण दिवस पर पिछले 43 वर्षों का इतिहास इसका गवाह है। यदि पर्यावरण के महत्त्व, उपयोगिता और मूल्य को सही से पहचाना गया होता, तो आज कार्बन डाइआक्साइड आधा डिग्री सेंटीग्रेट नहीं बढ़ती तथा ग्लेशियरों को पिघलने से भी बचाया जा सकता था।

जब तक मनुष्य के अंतर्भाव से पर्यावरण सचेतना नहीं आएगी, तब तक शायद नारों, निबंधों व बड़े-बड़े सरकारी इश्तहारों में ही पर्यावरण संरक्षण सिमटा रहेगा। भारत जैसे कृषि प्रधान राष्ट्र में पर्यावरण अनुकूल कृषि व्यवस्था को अपनाना अति जरूरी हो गया है। विश्व के दूसरे सबसे बड़े जनमानस वाले इस राष्ट्र को अपनी जनसंख्या नियंत्रण पर विशेष ध्यान देना होगा। क्लोरो-फ्लोरो कार्बन उत्सर्जित गैसों से निपटने की नीति का निर्धारण भी करना होगा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अमर वाकय को चरितार्थ करने हेतु कि धरती पर मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तो सब कुछ है, लेकिन लालच को पूरा करने के लिए प्राकृतिक संसाधन शायद कम पड़ जाएंगे। नीति निर्धारण करना समय की मांग बन गया है। पर्यावरण को बचाने के लिए केवल सरकारों की जिम्मेदारी ही  नहीं है, बल्कि हर किसी को इसमें अपनी भूमिका निभानी है। पहले मनुष्य की आयु हजारों वर्ष होती थी, उसकी वजह थी स्वच्छ पर्यावरण। आज मनुष्य की आयु छोटी होती जा रही है, उसका कारण भी यह अस्वच्छ पर्यावरण ही है। जीना है, तो पर्यावरण को स्वच्छ रखना ही होगा।

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