मौत की झुग्गियां

By: Jun 9th, 2017 12:05 am

हिमाचल में हादसों और अपराध का एक ऐसा ग्राफ ऊपर उठ रहा है, जिसमें कतई कोई हिमाचली शरीक नहीं होता, लेकिन इन अभिशप्त आंकड़ों में कानून-व्यवस्था की चुनौतियां भी दर्ज हैं। बीबीएन में एक दीवार ने झुग्गियों में पलते संसार को लील दिया और हिमाचली छाती से चिपक गया आठ लोगों की मौत का मातम। झुग्गियों की यह एकमात्र ऐसी अवैध बस्ती नहीं थी, बल्कि सारे प्रदेश में प्रश्रय की मजदूरी में पसीने के सौदागर पैदा हो गए हैं। बाहरी मजदूर लाने की जरूरतों के बीच, अपराध की परतों के पनाहगार भी पैदा हो गए। बद्दी की झुग्गियां यूं ही नहीं उग रहीं, इन्हें बसाने का एक तंत्र विकसित हो चुका है। सरकारी जमीन पर अवैध उगाही का शिकार बनती जिंदगी का एक वृत्तांत इस दुखद घटना में मिलता है, लेकिन ऐसी हर बस्ती के पीछे कोई न कोई हिमाचली बाहुबली खड़ा है। परवाणू  के कितने सेक्टरों की जमीन पर यह माफिया खड़ा है, इसका अंदाजा कभी लगाया ही नहीं गया, जबकि हर शहर पर झुग्गियों का काला साया बढ़ रहा है। आश्चर्य यह कि जब धर्मशाला के चरान क्षेत्र से प्रशासन ने झुग्गियों के नीचे से अपनी अमानत हासिल करने की शुरुआत की, तो राष्ट्रीय स्तर के कुछ एनजीओ भी विरोध का डंडा उठाकर हाजिर हो गए। ऐसे में झुग्गियां केवल गरीबी का पैगाम नहीं, एक विशाल समुदाय का चेहरा भी है। यह सामाजिक, राजनीतिक, गैर सरकारी व व्यापारिक संगठन हो सकता है। अमूमन झुग्गियों में बसना, जीवन का आर्थिक ठेका है और जिसके पीछे अंतरराज्यीय गिरोह, हिमाचली अकर्मण्यता की टोह ले रहे हैं। इसे मालूम है कि हिमाचल अब खुद अपनी टांगों पर खड़ा नहीं हो सकता। सामाजिक सुरक्षा को चिन्हित करते प्रदेश के लिए मेहनत का आयात अंततः इसी गिरोह के हवाले है। इसलिए हर गांव-कस्बे से शहर तक को अपने विकास के हर पहलू में ऐसी झुग्गियों को अंगीकार करना पड़ रहा है। यहीं से बाहरी मजदूर एक काफिला और आर्थिक हिसाब की मजबूरी बन चुका है। तीज-त्योहारों से खैनी-गुटखा तक का प्रचलन इनके साथ हमारी संस्कृति का समावेश कर रहा है, लेकिन ऐसे परिदृश्य का मूल्यांकन नहीं हो रहा है। नतीजतन प्रवासी मजदूरों के सहारे हम अपनी औद्योगिक क्रांति का ईंजन तो चला रहे हैं, लेकिन इनकी गतिविधियों में प्रदेश की जिम्मेदारी स्थापित नहीं कर पा रहे हैं। हिमाचल के हर औद्योगिक, शहरी या सामाजिक विकास में अगर बाहरी मजदूर हमारा साथ दे रहे हैं, तो इस तथ्य के आधार पर इनकी सुरक्षा व कानूनी व्यवस्था भी पुष्ट करनी होगी। प्रदेश के कई शहरों में मजदूर कालोनियों का निर्माण अब समय की मांग है और यह पर्यावरणीय दृष्टि से भी लाजिमी है। कांगड़ा, मंडी, कुल्लू व कई अन्य जिलों में मजदूर बस्तियों का स्थायी पता खड्डें बन गई हैं, जहां मानवीय गतिविधियों से जीवन के खतरों के अलावा जल प्रदूषण के अड्डे भी बन रहे हैं। हैरानी यह कि ऐसी बस्तियों के अवैध विस्तार के बावजूद प्रदेश के श्रम, कल्याण, प्रदूषण नियंत्रण, शहरी विकास या उद्योग विभाग ने इनकी शिनाख्त नहीं की और इसलिए अब ये एक स्वीकार्य अंग के रूप में हिमाचली वजूद का हिस्सा बनती जा रही हैं। मजदूरी में दबने या असुरक्षित झुग्गियों में जलने को हमें बाकायदा अपने आपदा प्रबंधन की तस्वीर में देखना होगा। समस्त हिमाचल की दृष्टि से तमाम झुग्गियों के आधार पर सर्वेक्षण यह प्रमाणित करेगा कि किस तरह हमारा अस्तित्व इनके ऊपर टिका है। अंततः यह भी तो पता चले कि प्रदेश में कुल कितने श्रमिक कार्यरत हैं और इनके पंजीकरण में किस हद तक कमियां रह रही हैं। हम इस वर्ग को भले ही भू-माफिया के कब्जे में चलने दें, लेकिन इस हकीकत से गाफिल होकर नहीं चल सकते कि देर-सवेर यही वर्ग हिमाचली समाज की जरूरतों का जवाब बनकर समाहित हो जाएगा। बहरहाल, हिमाचली आबादी को संतुष्ट करने के अलावा किस कद्र यह वर्ग बढ़ रहा है, उस दबाव को समझना और हल करना होगा। बाहरी मजदूरों की आवश्यकता पर आधारित नीति को स्पष्ट करते हुए उन तमाम पहलुओं पर गौर करना होगा, जिनके कारण कभी बद्दी जैसे हादसे हो रहे हैं या कभी ऊना जैसे अग्निकांड की वजह भी यही बस्तियां होती हैं। प्रवासी मजदूरों के रूप में श्रम के अलावा कुरीतियां, संघर्ष, लालसा और अपराध की भुजाएं भी एकत्रित हो रही हैं और इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

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