राष्ट्रपति होने की कसौटी

By: Jun 19th, 2017 12:08 am

कुलदीप नैयर

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

newsयदि हम भूतकाल पर नजर डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच मतभेद होना सामान्य बात है। केवल डा. जाकिर हुसैन और फखरुद्दीन अली अहमद ने बिना किसी सार्वजनिक टकराव के अपना कार्यकाल पूरा किया। जाकिर हुसैन ने खुद को पढ़ाई-लिखाई के कार्यों तक सीमित कर रखा था और फखरुद्दीन बहुत टकराव के लिए आवश्यक साहस कभी भी नहीं जुटा पाए। उन्हीं के कार्यकाल में आपातकाल लगाया गया था और उन्होंने आपातकाल संबंधित उद्घोषणा पर बिना यह जांचे हस्ताक्षर कर दिए थे कि मंत्रिमंडल ने इस पर हस्ताक्षर किए भी हैं या नहीं…

भारतीय जनता पार्टी अपने मुस्लिम विरोधी रुझान को ढक नहीं सकती। राष्ट्रपति पद के लिए हामिद अंसारी के नाम पर सहमति बनाने के बजाय, पार्टी ने तीन शीर्ष नेताओं की एक समिति गठित की है, जो अन्य राजनीतिक दलों की इस पद के उम्मीदवार के लिए सहमति लेगी। मुझे यह समझ में नहीं आता कि हामिद अंसारी में क्या कमी है। उन्होंने राज्यसभा का सुचारू रूप से संचालन किया है और इससे पहले अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में उन्होंने इसे एक उत्कृष्ट शिक्षण संस्थान के रूप में तबदील करने के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। उनकी  विद्वता संदेह से परे है और पंथ निरपेक्षता को लेकर उनकी प्रतिबद्धता पर कभी भी आक्षेप नहीं लगा है। सभी गैर भाजपा दलों को उपराष्ट्रपति अंसारी को अपना उम्मीदवार बनाना चाहिए, जिनकी स्वीकृति हर दल में है।

उपराष्ट्रपति पद पर आसीन होने के कारण उन्हें विपक्ष का उम्मीदवार बनाना असुविधापूर्ण होगा। पूर्व राष्ट्रपति डा.अब्दुल कलाम को दूसरा कार्यकाल देने के पक्ष में अधिकांश दल सहमत थे, लेकिन सहमति नहीं बन पाई और इसके कारण उन्होंने अपना नाम वापस ले लिया। इसके बाद उनकी स्मृति में औरंगजेब रोड का नाम बदलकर अब्दुल कलाम रोड कर दिया गया। भाजपा, राष्ट्रपति पद के लिए आरएसएस की पसंद को  प्राथमिकता देगी। यह पहले ही संकेत दे दिया गया है कि ऐसा करते समय भाजपा को देश के पंथ निरपेक्ष ढांचे का ख्याल रखना चाहिए। यहां पर किंतु-परंतु की ज्यादा संभावना नहीं दिखती। जाहिर तौर पर देश के शीर्ष पद के लिए आरएसएस किसी मुस्लिम उम्मीदवार के बारे में सोच भी नहीं सकता।

अंततः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर यह निर्भर करेगा कि वह अपनी पार्टी को सही उम्मीदवार चुनने में मदद करें। अमित शाह पहले भी अपने भाषणों में यह स्पष्ट रूप से संकेत दे चुके हैं कि किसी मुस्लिम के अतिरिक्त राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए किसी का भी चुनाव किया जा सकता है। वह इस समय दक्षिण के राज्यों सहित पूरे देश का भ्रमण कर रहे हैं और इस बात को सुनिश्चित करने का प्रयास कर रहे हैं कि उनकी पार्टी का मनमाफिक उम्मीदवार ही राष्ट्रपति बने। संसद के दोनों सदन और राज्य की विधानसभाओं पर नजर डालें, जिन्हें इस मतदान में मताधिकार प्राप्त होता है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा को अपने उम्मीदवार को विजयी बनाने में कोई खास मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। भाजपा द्वारा गठित तीन सदस्यीय समिति, जिसमे राजनाथ सिंह, वेंकैया नायडू और अरुण जेटली शामिल हैं, ने यह पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व ही इस बात को तय करेगा कि राष्ट्रपति भवन कौन पहुंचेगा। प्रारंभिक दौर में सुमित्रा महाजन के नाम पर सहमति बनती हुई दिख रही थी, लेकिन उनका नाम दौड़ से बाहर लगता है। उन्हें जाहिर तौर पर डीएमके और एआईडीएमके का समर्थन नहीं मिला। ऐसा लगता है कि एलके आडवाणी भी भाजपा की तरफ से उम्मीदवार हो सकते हैं। संभवतः  बाबरी मस्जिद मामले को लेकर न्यायालय के निर्णय के बाद भाजपा को अन्य उम्मीदवारों की तलाश करनी पड़ी, क्योंकि आडवाणी पर मस्जिद गिराने को लेकर षड्यंत्र रचने का आरोप है। आडवाणी के खराब दिन तब से शुरू हुए, जब उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर जाकर कुछ टिप्पणियां की थीं।

यदि हम भूतकाल पर नजर डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच मतभेद होना सामान्य बात है। केवल डा. जाकिर हुसैन और फखरुद्दीन अली अहमद ने बिना किसी सार्वजनिक टकराव के अपना कार्यकाल पूरा किया। जाकिर हुसैन ने खुद को पढ़ाई-लिखाई के कार्यों तक सीमित कर रखा था और फखरुद्दीन बहुत टकराव के लिए आवश्यक साहस कभी भी नहीं जुटा पाए। उन्हीं के कार्यकाल में आपातकाल लगाया गया था और उन्होंने आपातकाल संबंधित उद्घोषणा पर बिना यह जांचे हस्ताक्षर कर दिए थे कि मंत्रिमंडल ने इस पर हस्ताक्षर किए भी हैं या नहीं।

प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और डा.राजेंद्र प्रसाद पर कई जगह मतभेद देखने को मिलते हैं। 1962 में चीन के हाथों से पराजय मिलने के बाद डा.एस राधाकृष्णन ने रक्षामंत्री कृष्ण मेनन का इस्तीफा ले लिया था। राधाकृष्णन ने राष्ट्रपति भवन में स्वतंत्र पार्टी के विधायकों की परेड की अनुमति देकर, कांग्रेस को उलझन में डाल दिया था। स्वतंत्र पार्टी का दावा था कि राजस्थान विधानसभा में उसे बहुमत प्राप्त है। इंदिरा गांधी के समर्थन से राष्ट्रपति निर्वाचित होने वाले प्रसिद्ध श्रमिक नेता वीवी गिरी भी श्रम कानूनों के बारे में अपनी असहमतियां खुलकर रखते थे। जब केंद्र रेल कर्मचारियों को निलंबित करना चाह रहा था तो उन्होंने आपत्ति दर्ज की थी। उन्होंने उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के निलंबन का भी विरोध किया था। कार्यवाहक राष्ट्रपति बीडी जत्ती अधिक मुखर रहे। जब जनता पार्टी ने कांग्रेस शासित 9 राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के लिए कहा, तो जत्ती ने यह कहकर इनकार कर दिया था कि सरकार को विधि सम्मत ढंग से चुनी गई सरकारों को बर्खास्त करने का कोई अधिकार नहीं है। तब मोरारजी देसाई ने कहा था कि यदि जत्ती अध्यादेश पर दस्तखत नहीं करते तो वह इस्तीफा दे देंगे और उस समय राष्ट्रपति के खिलाफ आक्रोश भरे प्रदर्शन किए गए थे।

संजीव रेड्डी के समय भी देसाई और रेड्डी के बीच संबंध सामान्य नहीं रहे। रेड्डी ने बहुमत साबित न कर पाने वाले प्रधानमंत्री की सलाह पर लोकसभा को भंग कर दिया था। जबकि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जैल सिंह ने संसदीय दल द्वारा किए गए चुनाव के बगैर ही राजनीव गांधी को प्रधानमंत्री बना दिया था।

मेरी इच्छा थी कि प्रणब मुखर्जी अपने कार्यकाल का उपयोग आपातकाल में लिए गए निर्णयों के प्रभाव को कम करने के लिए करेंगे। उस समय वह संजय गांधी के दाहिने हाथ थे। सत्ता में रहते हुए किताब का प्रकाशन कर उन्होंने कुछ विवादों को जन्म दिया। फिलहाल, वर्तमान सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि यदि मृदु हिंदुत्व इसी तरह फैलता रहा तो पंथनिरपेक्षता की रक्षा कैसे हो पाएगी। अंसारी को राष्ट्रपति पद पर आसीन कर भाजपा लोगों को आश्वस्त कर सकती है कि देश अब भी अपने मूल्यों से विपथित नहीं हुआ है और वह भारत के विचार का विरोध करने वाले कृत्यों का समर्थन नहीं करती।

kuldipnayar09@gmail.com

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