विपक्ष की हारी चुनौती

By: Jun 24th, 2017 12:02 am

अब कांग्रेस नेतृत्व वाले विपक्ष के मंसूबे साफ हो गए हैं कि वह राष्ट्रपति का चुनाव सर्वसम्मति तरीके से कराने का पक्षधर नहीं था। स्थिति भी पारदर्शी है कि विपक्ष के 17 दलों के पास इतना भी वोट मूल्य नहीं है कि वह चुनाव को वाकई कांटेदार बना सके। सिर्फ जिद और चुनावी विरोध ही मकसद है, लिहाजा विपक्ष की साझा उम्मीदवार मीरा कुमार की चुनौती महज ‘सांकेतिक’ है। बेशक मीरा लोकसभा की पहली महिला अध्यक्ष रही हैं, केंद्रीय मंत्री रही हैं, लिहाजा संविधान का पर्याप्त ज्ञान होगा, लेकिन कांग्रेस को अब बाबू जगजीवन राम का नाम साथ में नहीं जोड़ना चाहिए। कांग्रेस ने ही उन्हें पीएम नहीं बनने दिया। बाबू जी कभी कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बन पाए। बेशक वह अपने दौर में दलितों के बहुत बड़े नेता थे। यदि मीरा कुमार भी दलितों की स्वीकार्य राजनीति करतीं, तो बाबू जी की परंपरागत सासाराम लोकसभा क्षेत्र से चुनाव नहीं हारतीं। विपक्ष ने राष्ट्रपति चुनाव में मीरा की उम्मीदवारी घोषित कर चुनाव को ‘दलित बनाम दलित’ बनाने की कोशिश की है। यह राष्ट्रपति चुनाव है न कि आम चुनाव। यह दलितवाद का भी चुनाव नहीं है। विभिन्न दलों के सांसद और विधायक ‘दलित ध्रुवीकरण’ के मद्देनजर वोट नहीं देंगे, बल्कि देश का योग्य, सक्षम, संविधान विशेषज्ञ राष्ट्रपति चुनने को वोट देंगे। सामान्यतः राष्ट्रपति चुनाव में भी पार्टी लाइन पर ही वोट डाले जाते हैं, हालांकि इसमें पार्टी व्हिप का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। बहरहाल राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष की चुनौती प्रतीकात्मक ही है, क्योंकि 10.98 लाख से अधिक वोट मूल्य में विपक्ष के पक्ष में 3.50 लाख से कुछ ज्यादा ही वोट दिखाई पड़ रहे हैं। सवाल यह नहीं है कि लोकतंत्र में विपक्ष चुनाव क्यों न लड़े? बेशक उसका भी अधिकार है, लेकिन राष्ट्रपति किसी एक दल, पक्ष या गठबंधन का न होकर पूरे राष्ट्र का होता है, कमोबेश उस पर तो आम सहमति बननी ही चाहिए, क्योंकि केंद्र में भाजपा एनडीए की सरकार है। उसने रामनाथ कोविंद को उम्मीदवार बनाया। जब बीजद, टीआरएस, वाईएसआर कांग्रेस, जद-यू और अन्नाद्रमुक सरीखे संघ और भाजपा विरोधी दल उन्हें अपना समर्थन का ऐलान कर सकते हैं, तो कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को अपनी खिचड़ी अलग पकाने की जरूरत क्या थी? क्या वे सत्तारूढ़ पक्ष के साथ विमर्श करके राष्ट्रपति पर सर्वसम्मत नहीं हो सकते थे? सवाल यह भी नहीं है कि पहले सलाह की गई या नहीं अथवा विपक्ष को विश्वास में लिया गया या नहीं? सवाल देश की संवैधानिक एकता और निष्ठा का है। यही कारण है कि नीतीश कुमार और उनके जद-यू ने कोविंद को समर्थन देना तय किया। दरअसल नीतीश और उनके समकालीन नेता जानते हैं कि बेशक मीरा जन्म से दलित हैं, लेकिन वह दलित नेता नहीं हैं। वैसे भी दलितों की जिस जमात से वह आती हैं, उस पर मायावती और बसपा के प्रभाव का कब्जा है, लिहाजा मीरा कुमार के पक्ष में वोट न देने के मायने ये नहीं होंगे कि दलित नीतीश से नाराज हो जाएं। उस दृष्टि से यह चुनाव दलित बनाम दलित भी नहीं है। राष्ट्रपति चुनाव से बिहार में गठबंधन की सरकार को भी फिलहाल कोई खतरा नहीं है। न तो कांग्रेस समर्थन वापस लेगी, क्योंकि 2012 में नीतीश कुमार ने राष्ट्रपति के लिए प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया था। लालू का राजद भी अलग होने की सोच नहीं सकता, क्योंकि लालू के कई परिवारजन विभिन्न घोटालों में फंसे हैं, लेकिन अपनी छवि और प्रतिष्ठा के मद्देनजर नीतीश को सोचना पड़ेगा कि आखिर वह कहां तक लालू के साथ चल सकते हैं?

भारत मैट्रीमोनी पर अपना सही संगी चुनें – निःशुल्क रजिस्टर करें !


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App