विविधता के विस्थापन का दौर

By: Jun 5th, 2017 12:08 am

newsकुलदीप नैयर

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

कट्टर भाजपाइयों, जो यह मानते हैं कि देश के बडे़ मूल्यगत बदलाव के कारण वे सत्ता में आए हैं, को अपने निष्कर्ष पर एक बार फिर से विचार करना चाहिए। वास्तविक सच्चाई यह है कि लोगों का कांग्रेस से पूरी तरह मोहभंग हो गया था और वे बड़ी शिद्दत से एक विकल्प की तलाश में थे। जब तक कांग्रेस वंशवाद से चिपकी रहेगी, वह अपनी भूमिका का ठीक ढंग से निर्वहन नहीं कर सकेगी। पार्टी को इस बात को महसूस करना चाहिए, जो उसने अभी तक महसूस नहीं किया है कि राहुल गांधी को स्वीकार्यता दिलाना मुश्किल काम है…

बाबरी मस्जिद का विध्वंस और पशुओं की बिक्री पर निषेध एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह बहुसंख्यकों के पूर्वाग्रह को दर्शाते हैं। दोनों माहौल को दूषित कर रहे हैं। हाल में ही अपने तीन वर्ष पूरे करने वाली मोदी सरकार में हिंदुत्व के विविध आयाम अभिव्यक्ति पा रहे हैं। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे ही सही पूरे देश को अपने आगोश में लेती जा रही है। ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी ने 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए तैयारी शुरू कर दी है। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ  द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विश्वसनीय लोगों को महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति कर रही है और इसके कारण उसका प्रभाव भी बढ़ रहा है। नई दिल्ली का हाल भी बहुत अच्छा नहीं है। उदाहरण के लिए यहां पर नेहरू मेमोरियल सेंटर में निदेशक को कार्यभार से मुक्त कर संघ के एक विचारक को इस पद पर बिठा दिया गया। वह इस केंद्र के मूलभूत विचारों से ही खिलवाड़ कर रहे हैं और इसके कारण नेहरू सेंटर का उदारवादी परिवेश नष्ट होता जा रहा है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में चल रही उठापटक के पीछे भी राजनीतिक दलों की भूमिका स्पष्ट रूप से दिखती है।

दक्षिण पंथी ताकतों ने आप अपना सारा ध्यान बीफ पर केंद्रित कर दिया है। उनके अहंकार की झलक विश्वविद्यालय परिसरों में स्पष्ट रूप से महसूस की जा सकती है। इस बार बारी चेन्नई स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान की थी। आवृत्ति और तीव्रता के मामले में हालिया घटनाएं पूर्व की घटनाओं को पीछे छोड़ रही हैं। यहां पर बीफ खाने को लेकर एक व्यक्ति की पिटाई की गई। परिसरों को उदारवादी परिवेश अब उस पार्टी से प्रभावित रहता है, जो उस राज्य में शासन कर रही होती है, जिसमें विश्वविद्यालय स्थित होता है। भाजपा का प्रभाव देश के उत्तर में स्थित हिंदी भाषी राज्यों में अधिक है, जबकि कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों का प्रभाव शेष भारत में अधिक है। इस परिघटना के कारण पूरा देश मानसिकता अैर विचार के आधार पर विभाजित जैसा हो गया है। सत्ता ग्रहण करते समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नारा दिया था कि ‘सबका साथ, सबका विकास।’ इसका सीधा  अर्थ यही था कि सभी की सहभागिता से विकास की प्रक्रिया को गति दी जाएगी। लेकिन अब ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी और उनकी पार्टी भाजपा अपने रास्ते से भटक गई है। अब स्थिति यह है कि वे इसे पसंद करते हो या नहीं, यह सरकार एक खास चिंतन के आधार पर आगे बढ़ रही है। एक असहिष्णुता पूर्ण भारत, जिसमें हिंदुत्व का बोलबाला हो। संभवतः इस पार्टी का थिंक टैंक इस निष्कर्ष पर पहुंच चुका है कि समाज का विभाजित कर अधिकतम मत पाए जा सकते हैं। बजरंग दल और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद खुले तौर पर परिवेश को दूषित कर रहे हैं। ऐसे संगठन विभिन्न शहरों में लाठी तथा अन्य हथियारों के साथ तमाम गतिविधियां संचालित कर रहे हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसे इस्लामिक शासन के भय से पश्चिम के कुछ दक्षिण पंक्षी दल अपनी गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। हम इस बात को भूल जाते हैं कि लोकतांत्रित ढांचे में सभी लोगों को अपनी पसंद का खाना खाने की छूट होती है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में कुछ भी थोपा नहीं जा सकता। एक ऐसे देश में जहां पर हर पचास किलोमीटर के बाद खान-पान की आदतों में अंतर मिलता हो, विविधता अवश्यंभावी है।

भारत की यही ताकत है। विविध इकाइयों के विवधता का सम्मान संघीय ढांचे का केंद्रीय तत्त्व है और इसका अनुगमन हमें करना ही चाहिए।  कट्टर भाजपाइयों, जो यह मानते हैं कि देश के बडे़ मूल्यगत बदलाव के कारण वे सत्ता में आए हैं, को अपने निष्कर्ष पर एक बार फिर से विचार करना चाहिए। वास्तविक सच्चाई यह है कि लोगों का कांग्रेस से पूरी तरह मोहभंग हो गया था और वे बड़ी शिद्दत से एक विकल्प की तलाश में थे। जब तक कांग्रेस वंशवाद से चिपकी रहेगी, वह अपनी भूमिका का ठीक ढंग से निर्वहन नहीं कर सकेगी।

पार्टी को इस बात को महसूस करना चाहिए, जो उसने अभी तक महसूस नहीं किया है कि राहुल गांधी को स्वीकार्यता दिलाना मुश्किल काम है। पार्टी में उपलब्ध अन्य नेताओं के मुकाबले सोनिया गांधी अब भी बहुत बेहतर विकल्प हैं। समय के साथ उनका इटली मूल की होने का मुद्दा पीछे छूट गया है और अब वह अन्य भारतीयों की तरह भारतीय मानी जाने लगी हैं। मूल समस्या यह है कि अब उनके शासन की बागडोर संभालने की संभावनाएं बहुत सीमित हो चुकी हैं। क्योंकि यह पार्टी अब अपनी चमक खो चुकी है। इस बात में कोई संदेह नहीं कि भाजपा ने राजनीति की हिंदुत्वकरण किया है, लेकिन इसके साथ ही इस पार्टी ने लोगों की मनोकामनाओं के साथ खुद को जोड़ा है और मोदी के नेतृत्व का इस काम में अहम योगदान है। भाजपा की सोच तब तक पूरी कामयाब नहीं हो सकती, जब तक देश का बहुलतावादी ढांचा बना हुआ है। ऐसा लगता है कि भाजपा इस बात को लेकर सचेत है और वह अतिवादी दक्षिणपंथ से सौम्य दक्षिणपंथ के पक्ष में भी कदम उठाती हुई दिखती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से आए हुए लोग भाजपा की रीढ़ की तरह है और संभवतः इसी कारण अभी तक कोई घोटाला नहीं हुआ है। संघ की विचारधारा को नापसंद किया जा सकता है, लेकिन उनकी ईमानदारी पर संदेह नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद संघ को सरकार में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। शीर्ष नौकरशाही और न्यायपालिका भी इस विचार से प्रभावित दिखती है। पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने अनेकों ऐसे अधिकारियों की नियुक्ति महत्त्वपूर्ण पदों पर की थी, जिन्हें पंथ निरपेक्ष माना जाता था। उन्होंने ऐसा इसलिए किया था ताकि सरकार में विविध विचारों को अभिव्यक्ति मिल सके। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के समय उन्होंने खुद को ठगा हुआ महसूस किया था। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि ऐसी घटना भी घट सकती है। अब सीबीआई के माध्यम से यह  अनछुआ तथ्य सामने आ रहा है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में एक षड्यंत्र रचा गया था। लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती पर  इस षड्यंत्र में शामिल होने के  आरोप लगे हैं। इस मामले में न्यायपालिका की अब तक की भूमिका पर भी कई प्रश्न उठे हैं।

आडवाणी और उनके सहयोगी, इन आरोपों के खिलाफ उच्च न्यायालय की शरण ले सकते हैं लेकिन उनकी पार्टी  आरोपियों के पक्ष में स्वयं को खड़ा करती है तो यह न्याय के साथ मजाक होगा। कांग्रेस ने उमा भारती के इस्तीफे की मांग की है। गौरतलब है कि उमा मोदी मंत्रिमंडल में मंत्री हैं। उन्हें मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखाकर एक सही संदेश भेजा जा सकता है। मोदी द्वारा यह कदम उठाया ही जाना चाहिए ताकि लोगों को यह विश्वास हो सके कि सरकार आरोपियों के पक्ष में नहीं खड़ी है।

kuldipnayar09@gmail.com

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