शब्द वृत्ति

By: Jun 24th, 2017 12:01 am

खेल-खेल में

(डा. सत्येंद्र शर्मा, चिंबलहार, पालमपुर )

खेल-खेल में हम हारे,

वो मना रहे हैं दिवाली।

कीट धंसे हैं बिष्ठा में,

सूकर को प्यारी है नाली।

उतर चुके हैं कई मुखौटे,

यह चेहरा भी है जाली।

मुर्ग-मुसल्लम भारत का,

गालों पर लाहौरी लाली।

अलगावी ही आतंकी हैं,

उल्लू पसरे हर डाली,

मां की इज्जत स्वयं लूटता,

बाग निगलता है माली।

लहूलुहान किया पत्थर ने,

ऊपर से खाई गाली,

अब खुलकर खंजर खींचें,

क्यों यह गंदी आदत डाली।

पासपोर्ट है भारत का पर,

सारे धंधे हैं जाली,

अम्मी-अब्बू, पता नहीं है,

भीख पाक ने है डाली।

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