सरकारी पाठशालाओं के पिछड़ने का प्रश्न

By: Jun 8th, 2017 12:02 am

किशन बुशहरी लेखक, मंडी से हैं

प्रदेश में शिक्षा के वर्तमान ढांचे में परस्पर दो समानांतर व्यवस्थाएं क्रियाशील हैं, जिसमें एक सरकार द्वारा संचालित व दूसरी निजी, जो अपनी तथाकथित श्रेष्ठता को लेकर प्रदेश के आम जनमानस को भ्रमित कर अपना व्यावसायिक हित साध रही है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रदेश की निजी शिक्षण संस्थाएं हमारी सामाजिक व्यवस्था में कुलीनता का प्रतीक बन चुकी हैैं…

विगत माह हिमाचल प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड द्वारा बारहवीं व दसवीं कक्षा के परीक्षा परिणाम घोषित किए गए, जिसमें प्रदेश के निजी विद्यालयों की तुलना में सरकारी विद्यालयों के छात्रो द्वारा योग्यता व मैरिट सूची में स्थान व बनाना प्रदेश के शिक्षाविदों व शैक्षणिक कार्य में लिप्त अध्यापक-प्राध्यापक वर्ग के साथ-साथ अभिभावक वर्ग का चिंतित होना व इस प्रकार के परीक्षण परिणामों के परिणामस्वरूप भविष्य में अपने अस्तित्व को लेकर आशंकित होना स्वाभाविक ही है। प्रदेश के सरकारी विद्यालयों की वर्तमान शैक्षणिक स्थिति व गिरावट के लिए पूर्ण रूप से प्रदेश के शिक्षक वर्ग को ही उत्तरदायी ठहराना न्यायोचित नहीं होगा, जो कि शिक्षा शिक्षक वर्ग की ईमानदारी व कर्त्तव्यनिष्ठा के मापदंडों पर प्रश्नचिन्ह होगा। विडंबना यह है कि प्रदेश का सर्वश्रेष्ठ शिखक वर्ग (कुछ अपवादों को छोड़कर) अपनी सेवाएं सरकारी पाठशालाओं में दे रहे हैं। इसके विपरीत प्रदेश के आम जनमानस का रुझान निजी शिक्षण संस्थाओं की ओर दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। जिस कारण सरकारी पाठशालाओं में छात्रों की संख्या में निरंतर गिरावट दर्ज की जा रही है। इससे यह प्रतीत हो रहा है कि सरकारी शिक्षा संस्थानों पर प्रदेश की जनता की निर्भरता कम होती जा रही है। सरकारी पाठशालाओं के परीक्षा परिणामों के उपरांत जो परिदृश्य उभर कर सामने आ रहा है, उसमें सरकारी पाठशालाओं के पठन-पाठन व शैक्षणिक वातावरण को लेकर भ्रम और अव्यवस्था की ऐसी स्थितियां पैदा कर दी हैं, जिस कारण भविष्य में सरकारी पाठशालाओं के अस्तित्व को बनाए रखना अत्यंत कठिन प्रतीत हो रहा है। निजी शिक्षण संस्थानों के उत्कृष्ट परीक्षा परिणामों का मुख्य कारण समाज के जागरूक व शिक्षित वर्ग के बच्चों का नामांकन सरकारी पाठशालाओं में न के बराबर होना है। अगर हम बोर्ड द्वारा घोषित मैरिट सूची का अवलोकन व विश्लेषण करें तो अधिकांश छात्र मैरिट सूची में अपना नाम दर्ज करवाने में सफल हुए हैं।

उनके अभिभावकों का शिक्षित व शिक्षा के प्रति जागरूक व सजग होना भी एक मुख्य कारण है। इसके विपरीत प्रदेश के सरकारी शिक्षण संस्थानों में प्रवेश लेने वाले अधिकांश छात्रों की पारिवारिक व सामाजिक पृष्ठभूमि साधारण व अभाव ग्रस्त परिस्थितियों से पूर्ण होती है, जिस कारण सरकारी पाठशालाओं में छात्रों के बीच में प्रतिस्पर्धा का अभाव है। प्रायोगिक तौर पर प्रदेश सरकार द्वारा मार्च, 2017 सत्र के लिए वार्षिक परीक्षा हेतु 100 निजी शिक्षण संस्थानों में सीसीटीवी कैमरों के माध्यम से परीक्षा संचालन का प्रारूप तैयार किया था, परंतु निजी शिक्षण संस्थानों के विरोध व विभागीय उदासीनता व अकर्मण्यता के कारण निजी शिक्षण संस्थानों के बजाय सरकारी शिक्षण संस्थानों में इन कैमरों की निगरानी में परीक्षा का संचालन हुआ। कैमरों के मानसिक दबाव के साथ-साथ निष्पक्ष एवं नकल रहित परीक्षा संचालन के कारण भी सरकारी पाठशालाओं के परीक्षा परिणामों के आंकड़ों में यह गिरावट दर्ज की गई है। प्रदेश शिक्षा विभाग द्वारा सत्र 2016-17 के परीक्षा परिणामों की समीक्षा करने का फरमान व विभाग द्वारा गठित कमेटी द्वारा आम जनता से इस विफलता से निकलने के लिए सुझाव मांगना हास्यस्पद लग रहा है, जो कि इस व्यवस्था के सुचारू संचालन के लिए उत्तरदायी नौकरशाही की पूर्ण विफलता के संकेत हैं। सरकारी शिक्षा संस्थानों में सभी आधारभूत सुविधा उपलब्ध होने के बावजूद सरकारी तंत्र में अव्यवस्था व सरकारी शिक्षकों का अध्यापन के अतिरिक्त अन्य गैर शिक्षण कार्यों में लिप्त होना भी सरकारी शिक्षण संस्थानों से विमुख होने का एक प्रमुख कारण है। अगर विभाग वांछित परीक्षा परिणाम चाहता है, तो शिक्षकों व अन्य सरकारी कर्मचारियों के अपने बच्चों को सरकारी पाठशालाओं में प्रवेश की अनिवार्यता हेतु अधिसूचित करना होगा, बहुत सी स्थितियां अपने आप सुधर जाएंगी, परंतु बिल्ली के गले में घंटी कौन बांध सकता है।

तुलनात्मक दृष्टि से अगर हम शिक्षा को लेकर सरकारी आंकड़ों का विश्लेषण करें तो शिक्षा के क्षेत्र में हमारा प्रदेश भारतवर्ष के अन्य प्रदेशों की तुलना में अग्रणी सूची में अंकित है, परंतु वर्तमान में सरकारी पाठशालाओं का परीक्षा परिणामों में निराशाजनक प्रदर्शन व निजी शिक्षण संस्थानों के परिणामों में अंतर एक यक्ष प्रश्न इंगित करता है, परंतु यह अंतर प्रदेश के बुद्धिजीवी वर्ग को आश्चर्यचकित नहीं करता है, क्योंकि इस अंतर व विषमता की निर्माण प्रक्रिया में हमारी राजनीतिक, प्रशासनिक एवं सामाजिक व्यवस्था मुख्य रूप से उत्तरदायी है। प्रदेश में शिक्षा के वर्तमान ढांचे में परस्पर दो समानांतर व्यवस्थाएं क्रियाशील हैं, जिसमें एक सरकार द्वारा संचालित व दूसरी निजी जो अपनी तथाकथित श्रेष्ठता को लेकर प्रदेश के आम जनमानस को भ्रमित कर अपना व्यावसायिक हित साध रही है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रदेश की निजी शिक्षण संस्थाएं हमारी सामाजिक व्यवस्था में कुलीनता का प्रतीक बन चुकी हैं व समाज दो असमान भागों में बंट चुकी हैं, जो कि भविष्य में एक अंसुलित समाज की संरचना को रेखांकित कर रहा है। इस संपूर्ण अराजक व भ्रमित व्यवस्था का सबसे अधिक नुकसान समाज के साधनहीन, आर्थिक रूप से कमजोर दलित व पिछड़े वर्ग का हो रहा है। इस शिक्षा के प्रारूप ने समाज में एक वर्ग भेद की ऐसी अदृश्य दीवार रेखांकित कर दी है, जिसे भविष्य में शायद ही कोई पार कर सके।

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