उर्दू का योगदान भूल गए हैं हम

By: Jul 31st, 2017 12:05 am

उर्दू के पत्र-पत्रिकाओं की विडंबना यह है कि स्वयं उर्दू भाषा से जुड़ा मुस्लिम वर्ग उसकी क़द्र नहीं करता। ऐसा देखने में आता है कि बड़े शहरों व छोटे कस्बों में एक उर्दू अख़बार को कम से कम 25-50 लोग पढ़ते हैं। उर्दू का चाहने वाला भी अपनी जेब से पैसे निकाल कर उर्दू की पत्रिकाएं व समाचारपत्र नहीं पढ़ता। यह इसके बावजूद हो रहा है जबकि अब बहुत से उर्दू अख़बार ऐसे हैं जो अंग्रेज़ी व अन्य स्थानीय भाषाओं के अखबारों को टक्कर दे रहे हैं…

यदि हम आज के षड्यंत्रों तथा गोरखधंधों के इतिहास के पन्नों को पीछे की ओर पलटें तो पता चलेगा कि स्थानीय झगड़ों से बिल्कुल अलग उर्दू भाषा एक सजी-सजाई दुल्हन नजर आती है। ऐसी दुल्हन जिसके माथे पर संस्कृत का मुकुट जगमगा रहा हो, जिसके मुख पर अरबी की चमक हो, जिसकी आंखों में फारसी का हुस्न हो, जिसकी अदाओं में अंग्रेज़ी की शान-ओ-शौक़त हो, जिसके हाथ-पैरों में हिंदी के बेल-बूटे बने हों, जिसकी रफ़्तार में सावन का यौवन हो, जिसके कथन में कोयलों की कूक हो, जिसका तन-मन-धन सभी हिंदुस्तान पर वारी हो और जिसके चलन से सभी को प्यार हो उसे ही ‘उर्दू’ कहते हैं। आज़ादी के बाद से उर्दू वाले यह रोना रोते चले आए हैं कि उर्दू खत्म हो रही है, आखिरी सांसें ले रही है, मर रही है आदि। जब हम बचपन में पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान स्थित तालीमी समाजी मरकज में उर्दू माध्यम में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, तब भी ऐसा ही सुनने में आता था। इतना समय गुजर गया मगर उर्दू अब भी जिंदा है, हृष्ट-पुष्ट है और ख़ूब परवान चढ़ रही है। उर्दू के अख़बार भी आज कहीं उस से अधिक हैं जितने हमारे बचपन में दिल्ली में हुआ करते थे। पहले बस एक ही अख़बार ‘‘अल-जमियत’’ उर्दू रोज़नामा का नाम ज़हन में आता है जो हमारे घर बचपन के दिनों में आया करता था। आज उसी दिल्ली में उर्दू के कई दैनिक हैं, जैसे- ‘‘राष्ट्रीय सहारा’’, ‘‘क़ौमी आवाज़’’, ‘‘अवाम’’, ‘‘मिलाप’’, ‘‘प्रताप’’, ‘‘अल-यौम’’, ‘‘ख़बरदार’’, ‘‘नया उफक़’’, ‘‘इन दिनों’’ आदि। उर्दू यूं तो सियासतदानों ने मुसलमानों की भाषा बना रखी है मगर वास्तविकता तो यह है कि उर्दू हिंदुस्तान में पली-बढ़ी और हर धर्म के लोगों ने इसे अपना प्यार दिया व आगे बढ़ाया। उर्दू भारत की आज़ादी की लड़ाई में एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुकी है। महात्मा गांधी तो अंग्रेज़ों से छिपाने के लिए महत्वपूर्ण मालूमात उर्दू में ही भेजा करते थे। यही नहीं क्रांतिकारियों ने तो एक भूमिगत उर्दू रेडियो स्टेशन भी बना रखा था।

मगर उर्दू के पत्र-पत्रिकाओं की विडंबना यह है कि स्वयं उर्दू भाषा से जुड़ा मुस्लिम वर्ग उसकी क़द्र नहीं करता। ऐसा देखने में आता है कि बड़े शहरों व छोटे कस्बों में एक उर्दू अख़बार को कम से कम 25-50 लोग पढ़ते हैं। उर्दू का चाहने वाला भी अपनी जेब से पैसे निकाल कर उर्दू की पत्रिकाएं व समाचारपत्र नहीं पढ़ता। यह इसके बावजूद हो रहा है जबकि अब बहुत से उर्दू अख़बार ऐसे हैं जो अंग्रेज़ी व अन्य स्थानीय भाषाओं के अखबारों को टक्कर दे रहे हैं। इन समाचारपत्रों को विज्ञापन भी अच्छा मिल जाता है। उर्दू अख़बारों के साथ एक विडंबना यह है कि ये सदा से ही राष्ट्रीयता और हुब्बुल-वतनी का गुणगान करते चले आए हैं मगर इनको मीडिया ने मुसलमानों और इस्लाम से जोड़ दिया है जो कि बिल्कुल ही अनुचित है। जहां तक उर्दू का संबंध है इसने बड़े-बड़े नारे दिए हैं, जैसे – ‘‘इन्क़लाब जि़न्दाबाद’’, ‘‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिलों में है’’, ‘‘सारे जहां से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा’’ आदि। कुछ लोग यह भी समझते हैं कि उर्दू अख़बार देशभक्त नहीं होते जो कि बिल्कुल झूठ है। सच्चाई तो यह है कि उर्दू के अख़बार सदा से ही वतनपरस्ती की भावना में सर से पैर तक डूबे रहे। यही नहीं स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में 1857 से ही उर्दू अख़बारों ने हिंदुस्तान की जंग-ए-आज़ादी में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। उस समय उत्तरी भारत में उर्दू पत्रकारिता का सबसे मज़बूत स्तंभ ‘‘देहली उर्दू अख़बार’’ था जिसके संस्थापक संपादक मौलवी मुहम्मद बाक़र पर अंग्रेज़ों ने यह आरोप थोप कर तोप दाग़ दी कि वे 1857 में अगिणत बागि़यों के साथी थे। 77 वर्षीय इस वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी ने 16 सितंबर, 1857 को शहादत पाई। अंग्रेज़ों का सलूक दूसरे उर्दू अख़बारों के साथ भी अच्छा नहीं था। उस समय उर्दू में लिखने वाले प्रसिद्ध लेखकों पंडित त्रिभुवन नाथ ज़ार देहल्वी, मुंशी सज्जाद हुसैन, नवाब सैयद मुहम्मद आज़ाद, ज्वाला प्रसाद बर्क़, मुंशी अहमद अली कस्मण्डवी, अकबर इलाहाबादी, अहमद अली शौक़, हिज्र और मिर्जा मच्छू बेग सितमज़रीफ़ आदि को भी अंग्रेज़ों की ओर से कष्ट झेलना पड़ा। मौलाना हसरत मोहानी का ‘‘उर्दू-ए-मुअल्ला’’, मुंशी सज्जाद हुसैन का ‘‘अवध पंज’’, मौलाना मुहम्मद अली जौहर के ‘‘काम्रेड’’ और ‘‘हमदर्द’’, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के ‘‘अल-हिलाल’’ और ‘‘अल-बलाग़’’, ज़फ़र अली ख़ान का ‘‘ज़मीनदार’’ आदि ऐसे समाचारपत्र थे जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर भाग लिया।

इनका लोहा तो जलियांवाला बाग़ में गोली चलवाने वाले जनरल माइकल डायर जैसे ज़ालिम ने भी मानते हुए अपनी रिपोर्ट में लिखा था, ‘‘ज़फर अली ख़ान और मुहम्मद अली जौहर मां के पेट से बग़ावत की क़लम ले कर निकले हैं। अंग्रेज़ों से दुश्मनी उनकी प्रवृत्ति में सम्मिलित है। कोई सामान्य मंसूबा बनाने से पूर्व इनका गिरफ़्तार होना बहुत ज़रूरी है।’’ इसी प्रकार स्वतंत्रता संग्राम के अन्य कलम के सिपाहियों मौलाना अब्दुल मजीद सालिक, मौलवी नज़ीर अहमद सीमाब, हाफि़ज़ सैयद अहमद, पंडित राम शरण, क़ाज़ी मुहम्मद अदील अब्बासी, मौलवी फ़ज़ल मुहम्मद ख़ां, लाला डोगर अली, लाल शाह, हाफि़ज़ मुहम्मद अहमद ख़ान, अल्लाह दिया आदि को भी अंग्रेज़ों ने बड़ी कठिन डगर पर चलने को मजबूर किया। दुखद है कि उर्दू को तो अब आतंकवाद से भी जोड़ा जाने लगा है। अक्सर दूरदर्शन पर यह देखने या सुनने में आता है कि फलां पाकिस्तानी उग्रवादी मारा गया और उसकी जेब से उर्दू में लिखे पर्चे मिले। इस प्रकार की ख़बरों से ऐसा लगता है कि उर्दू का नाता पाकिस्तान और देशद्रोह से जोड़ा जा रहा है। उर्दू दैनिक ‘‘राष्ट्रीय सहारा’’ के संपादक अज़ीज़ बर्नी का मानना है कि उर्दू सभी धर्मों और प्रांतों की भाषा है, भले ही मुसलमान उसे अधिकतर संख्या में पढ़ने लगे हों। उर्दू के दिग्गज शायरों व लेखकों में बहुत से ग़ैर मुस्लिम नाम बड़े आदर से लिए जाते हैं, जैसे- फिराक़ गोरखपुरी, कृष्ण चंद्र, मोहिंद्र सिंह बेदी, जगन्नाथ आज़ाद, बृज नारायण चकबस्त, मुंशी हरगोपाल तुफ़्ता, पंडित आनंद ज़ुत्शी, गुलज़ार देहलवी, गोपी चंद नारंग, केसी कांडा, केऐल साकी नारंग, तिलोक चंद महरूम, चंद्र भान ख़याल आदि। उर्दू को किसी वर्ग विशेष से जोड़ना सरासर नाइंसाफ़ी है।

वोट बैंक की राजनीति में पिछले तीन दशकों से सौदेबाजी की गेंद बनी हुई है उर्दू। उर्दू कभी इस पाले में तो कभी उस पाले में भटकती रही है। भांति-भांति के राजनीतिक दल उर्दू के नाम पर सौदा करते और वोट बटोरते रहे हैं। ऐसा भी हुआ है कि चुनाव के निकट उर्दू के हज़ारों अख़बार चालू हो गए जो उर्दू और मुसलमान वोटों की ठेकेदारी करते हैं व सरकारी विज्ञापन पर चलते हैं। ये उर्दू अखबार मुसलमानों के असली मुद्दों को नज़रअंदाज़ कर ऐसे प्रकरणों को छेड़ते हैं जिनका एक आम मुसलमान से कोई संबंध नहीं। यह तो इसी प्रकार के कुकुरमुत्ते जैसे उर्दू और हिंदी अख़बारों की गंदी राजनीति का फल था कि अयोध्या समस्या का अंत बाबरी मस्जिद के विध्वंस में हुआ और नाहक हजारों जानें गईं। वक़्त के चलते बहुत से उर्दू के पत्र-पत्रिका बंद हो चुके हैं जिसकी जि़म्मेदारी बहुत से लोग सरकार को देते हैं। वास्तव में अपने अंदर जज़्बे की कमी को सरकार की बेध्यानी बता कर उर्दू के पिछड़ेपन से हाथ धो लिए जाते हैं। वास्तविकता तो यह है कि कोई भी भाषा सरकार की सहायता से नहीं चलती बल्कि उसके चाहने वालों के सहयोग और प्रेम भाव से ही चलती है। जहां तक उर्दू का संबंध है, उर्दू वाले प्रायः अपने ही अख़बारों को ख़रीदने से कतराते और शरमाते हैं। अब उर्दू की किताबों को महंगा कह कर नहीं लिया जाता। यदि किताब अंग्रेज़ी की होगी तो, ‘‘किताब अच्छी है’’ कह कर उसे ख़रीद लिया जाता है। स्वयं उर्दू वाले उर्दू की पत्रिकाएं मंगाना अपनी तौहीन समझते हैं। जिस उर्दू वाले को भी थोड़ी सी हिंदी या अंग्रेज़ी आ जाती है तो वह उर्दू का अख़बार छोड़ हिंदी व अंग्रेज़ी का ही अख़बार पढ़ता है। इसमें कोई बुराई नहीं, मगर उर्दू का अख़बार अवश्य ख़रीद कर पढ़ना चाहिए।

-फिरोज बख्त अहमद

 ए-202, अदीबा मार्किट व अपार्टमेंट्स, मेन रोड, ज़ाकिर नगर, नई दिल्ली

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