जीवंत परंपराओं का प्रतीक ‘शांत महायज्ञ’

By: Jul 24th, 2017 12:05 am

इस पूजन के लिए ब्राह्मणों को एक विशेष प्रकार की पोशाक पहनाई जाती है। यह पोशाक पीले या भगवे रंग के वस्त्र से बना पूरी बाजू का चोगा होता है और सिर पर पहनने के लिए इसी रंग की टोपी होती है। इस पूजन का मुख्य आकर्षण बलि देने के बाद बकरों का छत से मंदिर परिसर में गिराना होता है, यह दृश्य देखने में जितना रोमांचकारी होता है, उतना ही भयभीत करने वाला भी होता है…

गतांक से आगे…

फेर का कार्य पूरा होते ही मेजबान देवता के मंदिर की छत का ‘शिखर पूजन’ किया जाता है। शांत महायज्ञ में इस पूजन का अपना एक विशेष महत्त्व है। निम्न कारणों से यह महत्त्व और भी अधिक बढ़ जाता हैः शिखर पूजन की पूजा ‘गुप्त तांत्रिक विद्या’ द्वारा नहीं, बल्कि वैदिक तंत्र विद्या से की जाती है और मंत्रों का उच्चारण ऊंचे स्वर में पुरोहितों द्वारा किया जाता है। मेजबान देवता के शिखर पूजन की तरह ही उसी विधि-विधान से अन्य सभी मंदिरों का भी शिखर पूजन किया जाता है। इस पूजन के लिए ब्राह्मणों को एक विशेष प्रकार की पोशाक पहनाई जाती है, यह पोशाक पीले या भगवें रंग के वस्त्र से बना पूरी बाजू का चोगा होता है और सिर पर पहनने के लिए इसी रंग की टोपी होती है। इस पूजन का मुख्य आकर्षण बलि देने के बाद बकरों का छत से मंदिर परिसर में गिराना होता है, यह दृश्य देखने में जितना रोमांचकारी होता है, उतना ही भयभीत करने वाला भी होता है। शिखर पूजन के आरंभ होने से पहले ब्राह्मण पूजा की सामग्री को लेकर मंदिर के छत की शिखर तक पहुंचने का प्रयास करते हैं। तत्पश्चात जब वे शिखर तक पहुंचने में कामयाब हो जाते हैं तो चारों दिशाओं में फैली कालियों को उनके द्वारा आह्वान किया जाता है और फिर उन्हें संतुष्ट करने के लिए पहले धूप, अगरबत्ती, सूखा आटा एवं रोट से उन्हें पूजा जाता है। पूजा के संपन्न होते ही अन्य व्यक्तियों द्वारा बकरों को बलि देने के लिए देवता के छत पर लाया जाता है और उन्हें छत के चारों कोनों और छत के शिखर तक ले जाया जाता है ताकि बकरे की बलि छत के चारों कोनों के साथ-साथ शिखर पर भी दी जा सके। बकरे की बलि देने के साथ-साथ नारियल की बलि देने की प्रथा है, ताकि चारों दिशाओं से आई कालियों के साथ-साथ वे देवता भी संतुष्ट हो जाएं जो बलि नहीं लेते। जब चारों दिशाओं से आई देवियां संतुष्ट हो जाती हैं तो पुरोहितों द्वारा सूखे आटे को चारों ओर फेंका जाता है, ताकि कालियां हर प्रकार से संतुष्ट होकर अपने-अपने निवास स्थानों की ओर लौट जाएं। शिखर पूजन की एक खास विशेषता यह भी है कि इसके संपन्न होते ही गांववासी भी अपने-अपने घरों की छतों पर एक या दो बकरे इस उद्देश्य से काटते हैं कि उनके द्वारा की गई पूजा से भी हर प्रकार के देवी-देवता संतुष्ट हो सकें और वे हर विपदा में उसके परिवार की रक्षा कर सकें। इस महायज्ञ में हर तरह की बलि देने का उद्देश्य मात्र यही है कि गांववासियों पर देवी-देवताओं की छत्र-छाया बनी रहे और वे हर तरह की विपदा से सुरक्षित रहें। शिखर पूजन के समाप्त होते ही आमंत्रित खूंद अपने-अपने देवताओं की पालकी कंधों पर उठाए अपनी पारंपरिक वेश-भूषा में नाचते-गाते हैं और लोग (दर्शक) नृत्य का देर रात तक आनंद उठाते हुए अपने-अपने घर लौट आते हैं, जबकि खूंद सारी रात नाचते-गाते रहते हैं।

शांत महायज्ञ के तीसरे दिन यानी अंतिम दिन भी पहले की प्रक्रिया दोहराई जाती है और फिर जगह की शुद्धि होते ही तीसरे रास मंडल का निर्माण किया जाता है। इसके बनते ही इसे चारों ओर से मोटी-मोटी रस्सी से घेर लिया जाता है। तत्पश्चात फेर (परिक्रमा) वाले देवता के खूंद इसकी रक्षा हेतु हाथों में हथियार लिए चारों ओर खड़े रहते हैं। इस रास मंडल (जिसे स्थानीय भाषा में छबरछनी भी कहते हैं) की खास विशेषता यह है कि इसमें प्रवेश करने के लिए किसी भी देवता को पुरोहितों द्वारा आमंत्रित नहीं किया जाता, बल्कि उन्हें भीतर लाने के लिए खूंदों को अपने-अपने देवता के प्रतीक ब्राह्मण परशुराम को सिर पर उठाए संघर्ष करना पड़ता है। खूंदों का यह आपसी संघर्ष काफी समय तक चलता रहता है। दर्शक भी मंत्रमुग्ध होकर इस संघर्ष को कौतुक दृष्टि से देखते रहते हैं। इस संघर्ष में जिस देवता के खूंद अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए रास मंडल में प्रवेश कर जाते हैं, उसी देवता को विजयी मान लिया जाता है। तत्पश्चात विजयी देवता के खूंदों द्वारा अपनी शक्ति प्रदर्शन करते हुए कुछ देर तक रास मंडल में नृत्य किया जाता है। नृत्य की समाप्ति के बाद मेजबान देवता महासू देवता को रास मंडल को विध्वंस करने की आज्ञा देता है। आज्ञा मिलते ही देवता महासू मंडल में प्रवेश कर उसका विध्वंस कर देता है। रास मंडल के नष्ट होते ही ग्राम देवता के आदेश पर ब्राह्मण लोगों पर सूखा आटा डालते हैं, जिसके द्वारा यह संकेत देने का प्रयास किया जाता है कि देवी के विराट रूप को शांत करने के लिए जो शांत महायज्ञ का आयोजन किया गया था वह अब समाप्त हो गया है और अब तुम अपने-अपने देवता सहित खुशी-खुशी अपने-अपने स्थानों को लौट सकते हैं। विदाई की इस बेला में आमंत्रित देवता मेजबान देवता से जाने की आज्ञा मांगते हुए विदा होते हैं। इस प्रकार शांत महायज्ञ का आयोजन समाप्त हो जाता है।

इंदु वैद्य, सह संपादक ‘ग्लोबल वर्ल्ड’

रावत भवन, सरस्वती नगर,

डा. हाटकोटी

तहसील जुब्बल, जिला शिमला

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