बरसाती पर्यटन के नाजुक लम्हे

By: Jul 19th, 2017 12:02 am

बरसाती पर्यटन के नाजुक लम्हों को समझे बिना, श्रावण महीने के भीगने का अर्थ नहीं समझा जा सकता। प्रदेश के धार्मिक स्थलों में श्रद्धा के नाम पर भागती अनियंत्रित भीड़ को हमें चुनौती की तरह देखना होगा। बेशक बंदोबस्त दुरुस्त करते हुए कई कदम उठाए गए हैं, लेकिन व्यवस्थागत प्रबंधन के कई मजमून खड़े हैं। हिमाचल का भक्तिमय होना उतना ही नियमित है, जितना मानसून का बरसना, इसलिए मंदिर स्थलों पर यह समय किसी बड़े संघर्ष से कम नहीं। खास तौर पर चिंतपूर्णी, नयनादेवी, बालाजी, दियोटसिद्ध व अन्य देवी स्थलों की सूची में घूमते पर्यटक की पहचान की जा सकती है। यह लंगर पर्यटन के रूप में हर दिन सैकड़ों दोपहिया वाहनों को आमंत्रित करता है, तो ट्रकों या ट्रैक्टर ट्रालियों से पर्यटक को ढोने का दस्तूर भी है। इस दौरान पुलिस भी नाके लगा लेती है, लेकिन दोपहिया वाहनों पर अगर तीन से चार सवारियां हर तरफ घूम रही हैं तो व्यवस्थागत खामियों का जखीरा बढ़ रहा है। मात्र मेले की व्यवस्था नहीं, बल्कि धार्मिक पर्यटन को हिमाचली आतिथ्य के साथ जोड़ने की कसरत होनी चाहिए। धार्मिक पर्यटन को इसकी समग्रता में निरूपित करने के लिए, राज्य स्तरीय योजना प्रारूप व नेतृत्व का गठन जरूरी है। एक अनावश्यक दबाव के रूप में ट्रक सवारी व लंगर व्यवस्था को भी समझना होगा। दोनों ही पहलुओं में मानवीय सुरक्षा के अलावा स्वच्छता की चेतावनी दर्ज है, लेकिन मंदिर से बाहर इस दिशा में कुछ खास नहीं हो रहा। स्वच्छता अभियान के जिस शिखर को हिमाचल छू रहा है, उसे मंदिरों की आस्था से जोड़कर भी देखना होगा। तीर्थ यात्री खास तौर पर जो ट्रकों या इसी तरह के माल ढुलाई के वाहनों का इस्तेमाल कर रहे हैं, यातायात नियमों के सीधे उल्लंघन के अलावा जान का जोखिम भी उठा रहे हैं। टै्रफिक की इस संस्कृति का हिमाचल में प्रवेश वर्जित होना चाहिए, जबकि ऐसे में यात्रियों के दल खुले में शौच व खानपान की असुरक्षित व्यवस्था के पात्र भी बनते हैं। अधिकांश लंगरों का आयोजन केवल पंजीकरण फीस अदायगी तक ही सिमट गया है, जबकि सामूहिक भोजन के परीक्षण की व्यवस्था तक नहीं है। इतना ही नहीं, लंगर व्यवस्था के नाम पर गंदगी का आलम मंदिर परिसर तक को बदनाम करने पर तुला है। ऐसे में श्रावण के मेलों का अभिप्राय मंदिर व्यवस्था के दबाव को हिमाचल के प्रवेश द्वार से जोड़ता है। बहरहाल सबसे बड़ी चुनौती मंदिर व्यवस्था के साथ-साथ परिवहन नियमों की रखवाली बन जाती है। विडंबना यह है कि श्रावण मेलों में परिवहन के निरंकुश इरादों के कारण हिमाचल एक बेचारगी की तरह काफिलों के दर्शक के रूप में दिखता है। यह दीगर है कि मंदिर चौबीस घंटे दर्शन देते हैं या कानून-व्यवस्था का सख्त पहरा रहता है, लेकिन अब पूरे कारवां को एक बड़े मास्टर प्लान में समझना होगा। मंदिर ढांचे का वर्तमान स्वरूप बेशक कुछ आधारभूत अंतर पैदा कर सका है, लेकिन इसे पुख्ता व्यवस्था के ढांचे के रूप में मजबूत करना होगा। यह तभी होगा अगर एक केंद्रीय ट्रस्ट, मंदिर एवं धार्मिक स्थल विकास बोर्ड या प्राधिकरण बने। प्रदेश के प्रवेश द्वारों से मंदिर स्थलों तक श्रद्धालुओं के आगमन को देखते हुए कई स्थलों पर रुकने की व्यवस्था बनानी होगी। इसके अलावा श्रद्धालु पंजीकरण की अनिवार्यता में टोकन सिस्टम लागू करना होगा। यानी धार्मिक स्थलों पर ऐसे पर्यटकों को एक निश्चित अवधि के लिए निर्धारित स्थान पर रोका जाए और मंदिर के शेड्यूल के अनुसार जत्थे भेजे जाएं। मंदिर परिसरों के विकास के साथ श्रद्धालु विश्राम की परिपाटी प्रवेश द्वारों तक विकसित हो। मौसम के कठिन दौर के बीच धार्मिक यात्राओं के आयोजन मंदिर परिसरों के अलावा मणिमहेश, श्रीखंड व कुछ अन्य स्थलों के लिए भी भारी जोखिम लिए हुए हैं। अतः हर यात्री को स्पष्ट निर्देश, पंजीकरण व परिवहन नियम बताने पड़ेंगे और जहां आवश्यक हो, वैकल्पिक व्यवस्था का इंतजाम किया जाए। चिंतपूर्णी, नयनादेवी व दियोटसिद्ध के पूजा स्थल भौगोलिक चुनौतियों से भरपूर हैं। अतः विकास योजनाओं के मॉडल कुछ इस प्रकार बनें कि धार्मिक स्थलों में न तो कोई वाहन प्रवेश करे और न ही नवनिर्माण अमर्यादित व अवैज्ञानिक ढंग से हो। मंदिर स्थलों में एरियल ट्रांसपोर्ट नेटवर्क व इलेक्ट्रिक वाहनों के माध्यम से सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था कायम करने की दिशा में विशेष प्रयास करने होंगे।

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