बाढ़ को बढ़ावा देती नौकरशाही

By: Jul 25th, 2017 12:08 am

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

newsदेश को वाटर इंजीनियरों के दुराग्रह से उबरना होगा। बाढ़ को अपनाना होगा। टिहरी और भाखड़ा को हटाना होगा। सड़कों और रेल लाइनों के नीचे बाढ़ के बहने के पर्याप्त पुल बनाने होंगे। बाढ़ के पानी को फैल कर बहने देना होगा। फरक्का को हटा कर हूगली में पानी को नदी में आंशिक ठोकर लगा कर धकेलना होगा। प्रकृति की इच्छा के विपरीत हमें चलना बंद करना होगा…

इस समय असम बाढ़ की चपेट में है। आने वाले समय में बाढ़ का तांडव दूसरे राज्यों में भी देखने को मिलेगा। बाढ़ का आना प्रकृति की स्वाभाविक गति है, जैसे शाम को बच्चा स्वभाव से ही फील्ड में खेलने निकल जाता है, परंतु बाढ़ की इस सामान्य गति को हमारी वाटर इंजीनियरों ने तांडव में बदल दिया है। पहले हिमालयी नदियों के चरित्र को समझें। इनकी दो विशेषताएं हैं। एक यह कि ये हिमालय के युवा पहाड़ों से निकलती हैं। युवा पहाड़ों की ढीली मिट्टी को ये भारी मात्रा में काट कर अपने साथ मैदान में लाती हैं, जिसे गाद कहा जाता है। मैदान में इन नदियों का वेग कम हो जाता है और ये गाद को जमा कर देती हैं। गाद के जमा होने से नदी का पाट ऊंचा हो जाता है। हिमालयी नदियों की दूसरी विशेषता है कि इनमें वर्षा के चार माह में पानी ज्यादा रहता है। पांच-छह वर्षों के बाद बाढ़ आती है। बीते पांच-छह वर्षों मे जो गाद नदी ने अपने पाट में जमा की होती है, उसे वह बाढ़ के समय ढकेल कर समुद्र मे पहुंचा देती है। इस प्रकार नदी और गाद का एक संगीतमय संबंध रहता है। जैसे संगीत में तबले की ताल रुक-रुक कर बजती है और संगीत को दिशा देती है, उसी तरह नदी की बाढ़ रुक-रुक कर आती है और नदी के क्षेत्र को उसका सुंदर स्वरूप प्रदान करती है।

यहां स्पष्ट करना होगा कि बाढ़ के समय नदी संपूर्ण गाद को समुद्र तक बहा कर नहीं ले जाती है। कुछ गाद रह जाती है। बाढ़ के समय नदी अपनी मुख्यधारा के पाट की गाद को समुद्र तक ले जाती है, परंतु अगल-बगल के मैदानों की गाद को छोड़ देती है। इससे नदी के मूल क्षेत्र का स्तर ऊंचा होता जाता है। हरिद्वार से गंगा सागर तक की हमारी भूमि इसी प्रकार गाद के जमा होने से बनी है। पूर्व में इस पूरे क्षेत्र में समुद्र था। गाद के जमा होने से समुद्र पीछे हट गया है। वाटर इंजीनियरों तथा नौकरशाही ने बाढ़ में हस्तक्षेप का अवसर देखा। उन्होंने देखा कि बाढ़ से लोग परेशान होते हैं। उनकी परेशानी को दूर करने के लिए भाखड़ा और टिहरी जैसे बांध बनाए। बाढ़ का पानी इन जलाशयों में थम गया। साथ-साथ ऊपर से आ रही गाद भी बांध के जलाशय में रुक गई। इस रुकावट के मैदानी क्षेत्रों में दो प्रभाव हुए। गाद कम आई, चूंकि कुछ गाद जलाशय में रुक गई थी। लेकिन साथ-साथ बाढ़ भी कम आई। बाढ़ के कम आने से मैदानी क्षेत्रों में नदी का वेग कम हो गया और वह अपने पाट में जमा गाद को समुद्र तक धकेल कर ले जाने को असमर्थ हो गई। हमारा जीवंत अनुभव बताता है कि बाढ़ का तांडव बढ़ा है। इससे प्रमाणित होता है कि कम गाद के आने में लाभ कम हुआ है, जबकि बाढ़ का वेग कम होने से नुकसान ज्यादा हुआ है। इसलिए टिहरी जैसे बांधों से बाढ़ विकराल होती जा रही है। फरक्का बराज ने बाढ़ के तांडव को बढ़ाने में भरपूर सहयोग दिया है। फरक्का बैराज का निर्माण गंगा के पानी को हुगली में डालने के लिए हुआ था। बीती शताब्दी में हूगली अकसर सूख जाती थी। भारतीय मैदान का ढाल बांग्लादेश की ओर झुक रहा है। इससे गंगा का पूरा पानी पद्मा नदी से बांग्लादेश को चला जाता था और हुगली सूख जाती थी। फरक्का बैराज ने गंगा के आधे पानी को हूगली में डाल कर इस नदी को सतत जीवित कर दिया है। परंतु एक अनदेखा परिणाम हुआ है कि रुकावट के कारण बैराज के पीछे गंगा का वेग कम हो गया है और वह गाद को भारी मात्रा में बैराज के पीछे जमा कर रही है। बाढ़ के समय फरक्का के गेट खोल दिए जाते हैं, फिर भी रुकावट तो बनती ही है जैसे पुल के खंभों से भी नदी का वेग कम होता है। बैराज के पीछे गाद के जमा होने से नदी का ढाल कम हो गया है और गंगा द्वारा उत्तरोत्तर अधिक गाद को जमा किया जा रहा है। सहायक नदियों जैसे शारदा, गंडक तथा कोसी द्वारा लाए गए पानी को लेकर समुद्र तक पहुंचाने की गंगा की क्षमता नहीं रह गई है। लिहाजा फरक्का के ऊपर बाढ़ का प्रकोप बढ़ रहा है।

उपरोक्त कार्यों से बढ़े बाढ़ के तांडव से जनता को राहत दिलाने के लिए वाटर इंजीनियरों तथा नौकरशाहों ने नया शगूफा छोड़ा है। असम के मुख्यमंत्री सरबानंद सोनोवाल ने गत वर्ष कहा था कि ब्रह्मपुत्र की डे्रजिंग करके उसके पाट में एक गहरी चैनल बनाई जाएगी, जिससे बाढ़ का पानी सुगमता से निकल जाएगा। लेकिन इस वर्ष फिर बाढ़ आई। कारण यह कि डे्रजिंग से नदी के एक हिस्से की गाद को उठा कर नदी के ही दूसरे हिस्से में डाल दिया जाता है। जैसे विद्यालय के बरामदे में दरवाजे को बाई तरफ से हटाकर दहिनी तरफ लगा दिया जाए तो बच्चों को निकलने में तनिक अंतर नहीं पड़ेगा। इसी तरह डे्रजिंग से नदी की मुख्य चैनल की क्षमता बढ़ जाती है, परंतु आसपास की क्षमता उतनी ही घट जाती है। इसलिए डे्रजिंग से बाढ़ पर नियंत्रण नहीं होता है। डे्रजिंग का कार्यक्रम नदियों पर जहाज चलाने के लिए बनाया गया है, जिसे जनता को बाढ़ नियंत्रण का उद्देश्य बताकर भ्रमित किया जा रहा है। मेरा स्पष्ट मानना है कि टिहरी और फरक्का जैसी बड़ी योजनाओं ने देश में बाढ़ के तांडव को बढ़ाने में पूरा योगदान दिया है। लगभग 20 वर्ष पूर्व मुझे गोरखपुर की बाढ़ का अध्ययन करने का अवसर मिला था। वहां के लोगों ने बताया था कि पूर्व में बाढ़ का पानी पूरे क्षेत्र में फैल कर एक पतली चादर की तरह बहता था। गांव ऊंचे टीलों पर बसाए गए थे। गांव में पानी नहीं आता था।

बाढ़ के समय आवागमन रुक जाता था, परंतु जान-माल सुरक्षित रहता था। किसानों द्वारा धान की विशेष प्रजातियां लगाई जाती थीं, जो कि बाढ़ के साथ बढ़ती जाती थीं। खेत जलमग्न हो जाते थे, परंतु फसल का नुकसान कम होता था। बाढ़ के पानी के चौतरफा फैलने से भूमिगत एक्सीफरों का पुनर्भरण हो जाता था। बरसात के बाद भूमिगत पानी का स्तर जमीन से चार-पांच फुट नीचे ही रहता था। कहीं पर भी छोटा गड्ढा बनाकर डीजल पंप से सिंचाई की जा सकती थी। लेकिन यह सुंदर व्यवस्था हमारे वाटर इंजीनियरों, नौकरशाहों और नेताओं को रास नहीं आई। इस व्यवस्था में उनके लिए पैसा अथवा वोट कमाने के अवसर नहीं थे। इसलिए टिहरी, फरक्का और डे्रजिंग के कार्यक्रम लिए गए और जनता को बाढ़ से बचाने के नाम पर बाढ़ के तांडव मे झोंक दिया। देश को वाटर इंजीनियरों के दुराग्रह से उबरना होगा। बाढ़ को अपनाना होगा। टिहरी और भाखड़ा को हटाना होगा। सड़कों और रेल लाइनों के नीचे बाढ़ के बहने के पर्याप्त पुल बनाने होंगे। बाढ़ के पानी को फैल कर बहने देना होगा। फरक्का को हटा कर हूगली में पानी को नदी में आंशिक ठोकर लगा कर धकेलना होगा। प्रकृति की इच्छा के विपरीत हमें चलना बंद करना होगा।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com

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